न्याय की धारणा (Concept of Justice)
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| JUSTICE |
न्याय धारणा के विविध रूप (Various Forms of the Concept of Justice)
परम्परागत
रूप में न्याय की दो ही धारणाएं प्रचलित रही हैं—नैतिक और कानूनी। लेकिन आज की स्थिति में न्याय ने बहुत अधिक
व्यापकता प्राप्त कर ली है और आज कानूनी या राजनीतिक न्याय की अपेक्षा भी सामाजिक और आर्थिक न्याय अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। न्याय की
धारणा के इन विविध रूपों का उल्लेख निम्न प्रकार
से किया जाता है
(1) नैतिक न्याय—–परम्परागत रूप में न्याय की धारणा को
नैतिक रूप में ही अपनाया जाता रहा है। नैतिक न्याय इस धारणा पर आधारित है कि विश्व
में कुछ सर्वव्यापक, अपरिवर्तनीय तथा अन्तिम प्राकृतिक
नियम हैं जो कि व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को ठीक प्रकार से संचालित करते हैं।
इन प्राकृतिक नियमों और प्राकृतिक अधिकारों पर आधारित जीवन व्यतीत करना ही नैतिक
न्याय है। जब हमारा आचरण इन नियमों के अनुसार होता है, तब वह नैतिक न्याय की अवस्था होती है। जब हमारा आचरण इसके
विपरीत होता है, तब वह नैतिक न्याय के विरुद्ध होता
है।
नैतिक न्याय के
अन्तर्गत जिन बातों को शामिल किया जा सकता है,
उनमें से कुछ
हैं- सत्य बोलना, प्राणि मात्र के प्रति दया का
बर्ताव करना, प्रतिज्ञा पूरी करना या वचन का पालन
करना, उदारता और दान का परिचय देना आदि।
नैतिक न्याय और नैतिकता परस्पर सम्बन्धित होते हुए भी इनमें कुछ भेद हैं और
नैतिकता नैतिक न्याय की तुलना में निश्चित रूप से व्यापक है।
(2) कानूनी न्याय - राज्य के उद्देश्यों में न्याय को बहुत अधिक महत्व दिया गया
है और कानूनी भाषा में समस्त कानूनी व्यवस्था को न्याय व्यवस्था कहा जाता है।
कानूनी न्याय में वे सभी नियम और कानूनी व्यवहार सम्मिलित हैं, जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए। इस प्रकार कानूनी न्याय की
धारणा दो अर्थों में प्रयोग की जाती है— (i) कानूनों का निर्माण अर्थात्
सरकार द्वारा बनाये गए कानून न्यायोचित होने चाहिए, (ii) कानूनों को लागू करना अर्थात् बनाये
गए कानूनों को न्यायोचित ढंग से लागू किया जाना चाहिए। कानूनों को न्यायोचित ढंग
लागू करने का मतलब यह है जिन व्यक्तियों ने कानूनों का उल्लंघन किया है, उन्हें दण्डित करने में किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं किया
जाना चाहिए।
(3) राजनीतिक न्याय—-राज-व्यवस्था का प्रभाव समाज के सभी व्यक्तियों पर प्रत्यक्ष या
परोक्ष रूप में पड़ता ही है। अतः सभी व्यक्तियों को ऐसे अवसर प्राप्त होने चाहिए
कि वे राज-व्यवस्था को लगभग समान रूप
से प्रभावित कर सकें और राजनीतिक शक्तियों का प्रयोग ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए
कि सभी व्यक्तियों को लाभ प्राप्त हो। यही राजनीतिक न्याय है और इसकी प्राप्ति
स्वाभाविक रूप से एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत ही की जा सकती है।
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के साथ-साथ
राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के कुछ अन्य साधन हैं—वयस्क मताधिकार, सभी व्यक्तियों के लिए विचार, भाषण, सम्मेलन और संगठन, आदि की नागरिक स्वतन्त्रताएं, प्रेस
की स्वतन्त्रता, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता, बिना किसी भेदभाव के सभी व्यक्तियों को सार्वजनिक पद प्राप्त
होना, आदि। राजनीतिक न्याय की धारणा में यह
बात निहित है कि राजनीति में कोई कुलीन वर्ग अथवा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं
होगा।
(4) सामाजिक न्याय—सामाजिक न्याय का मतलब यह है कि
नागरिक-नागरिक के बीच में सामाजिक
स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए और प्रत्येक व्यक्ति को
आत्मविकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय की धारणा में यह बात निहित है
कि अच्छे जीवन के लिए आवश्यक परिस्थितियां व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए और इस
सन्दर्भ में समाज की राजनीतिक सत्ता से यह आशा की जाती है कि वह अपने विधायी तथा
प्रशासनिक कार्यक्रमों द्वारा एक ऐसे समाज की स्थापना करेगा, जो समानता पर आधारित हो।
वर्तमान
समय में सामाजिक न्याय का विचार बहुत अधिक लोकप्रिय है और सामाजिक न्याय पर बल
देने के कारण ही विश्व के करोड़ों लोगों द्वारा मार्क्सवाद या समाजवाद के अन्य
किसी रूप को अपना लिया गया है। इस सम्बन्ध में पं. नेहरू ने एक बार यह ठीक ही कहा था कि लाखों-करोड़ों लोगों के लिए मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण का
स्रोत उसका वैज्ञानिक सिद्धान्त नहीं है, वरन् सामाजिक न्याय के प्रति
उसकी तत्परता है। गेहरलिख, सोम्बार्ट, टायनवी और बर्जाइम, आदि ने इसी आधार पर
मार्क्सवाद को 'नवीन युग का एक नया धर्म' बताया है। वास्तव में,
सामाजिक न्याय
के बिना समानता तथा स्वतन्त्रता के आदर्श बिल्कुल निस्सार हो जाते हैं।
(5) आर्थिक न्याय -आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय
का एक अंग है। कुछ लोग आर्थिक न्याय का तात्पर्य पूर्ण आर्थिक समानता से लेते हैं, किन्तु वास्तव में इस प्रकार की स्थिति व्यवहार के अन्तर्गत किसी
भी रूप सम्भव नहीं है। आर्थिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सम्पत्ति सम्बन्धी भेद
इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि धन सम्पदा के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विभेद की कोई दीवार खड़ी हो जाए और कुछ
धनीमानी व्यक्तियों द्वारा अन्य व्यक्तियों के
श्रम का शोषण किया जाए या उसके जीवन पर अनुचित अधिकार स्थापित कर लिया जाए। इसमें
यह बात भी निहित है कि पहले समाज में सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी
होनी चाहिए, उसके बाद ही किन्हीं व्यक्तियों
द्वारा आरामदायक आवश्यकताओं या विलासिता की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है।
आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार को
सीमित किया जाना आवश्यक है।

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