MAHATMA GANDHI महात्मा गांधी

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MAHATMA GANDHI महात्मा गांधी

 

MAHATMA GANDHI महात्मा गांधी

'व्यक्ति की दो अन्तरात्माएं नहीं हो सकतीं—एक व्यक्तिगत और सामाजिक तथा दूसरी राजनीतिक। मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों में एक ही नैतिक संहिता का पालन किया जाना चाहिए...हमें सत्य और अहिंसा को केवल व्यक्तिगत व्यवहार के ही नहीं वरन् संघों, समुदायों और राष्ट्रों के व्यवहार के सिद्धान्त बनाना है।"

   महात्मा गांधी : एक आध्यात्मिक सन्त (Mahatma Gandhi: A Spiritual Saint)

                                                                                                            -महात्मा गांधी

महात्मा गांधी मूल रूप में एक आध्यात्मिक सन्त थे, जिनका मूल उद्देश्य धार्मिक जीवन व्यतीत करना था। लेकिन महात्मा गांधी की धर्म सम्बन्धी धारणा पारलौकिक नहीं वरन् लौकिक थी और वे मानवता की सेवा को ही वास्तविक धर्म समझते थे। महात्मा गांधी के जीवन काल की परिस्थितियां ऐसी थीं कि उन परिस्थितियों के कारण महात्मा गांधी को राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ा। स्वयं महात्मा गांधी के शब्दों में, “मैं उस समय तक धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं कर सकता था, जब तक कि स्वयं को सम्पूर्ण मानवता के साथ एकीकृत न कर लेता और यह मैं उस समय तक नहीं कर सकता था जब तक कि राजनीति में भाग नहीं लेता। "

परिस्थितियों से बाध्य होकर इस आध्यात्मिक सन्त ने न केवल राजनीतिक जीवन में प्रवेश किया वरन् भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भारत की जनता का अत्यन्त सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में इतना सब कुछ करने पर भी महात्मा गांधी अपने मूल रूप में आध्यात्मिक सन्त बने रहे और उन्होंने आध्यात्मिक तथा नैतिक दृष्टिकोण के आधार पर ही विविध राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याओं का अध्ययन करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। स्वयं गांधी जी ने एक बार पोलक से कहा था, “मैंने राजनीति का चोंगा पहन रखा है, किन्तु हृदय से एक धार्मिक पुरुष हूं।” सन् 1929 में उन्होंने अरूण्डेल को लिखा था, "मेरा झुकाव राजनीति की ओर नहीं, धर्म की ओर है।"

गांधीजी की विचारधारा का आधारभूत तत्व यह है कि अपने मूल रूप में मानव और मानव जाति की समस्त समस्याएं नैतिक समस्याएं हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य सही अर्थों में मानव बन जाय और अपने समस्त सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक कार्यों को अन्तरात्मा की पुकार के अनुसार करे, तो समाज अथवा विश्व दुःख, संकट तथा समस्या जैसी चीज रह ही नहीं सकती है। एक स्वस्थ राजनीतिक समाज तथा विकासशील व्यक्ति के प्रत्येक कार्य के पीछे एक नैतिक बल अथवा प्रेरणा होनी चाहिए, क्योंकि जिस क्षण व्यक्ति अपनी आत्मा की सचेतन आवाज को स्वार्थ के वशीभूत होकर कुचल देता है, उसी क्षण उसका पशुत्व प्रबल हो जाता है और सभी समस्याओं के प्रति उसका विचार एवं दृष्टिकोण दूषित हो जाता है।

मेंसकता। ऐसी स्थिति में राजनीति में समस्त दुर्गुणों को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि राजनीतिक कार्यों का संचालन विशुद्ध मानवीय दृष्टिकोण के आधार पर किया जाय। संक्षेप में, महात्मा गांधी का समस्त दर्शन राजनीति तथा समाज के प्रति उनका आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण ही है ।

जीवन परिचय (Life introduction)

महात्मा गांधी दार्शनिक से अधिक व्यावहारिक व्यक्ति थे और उनके जीवन का सबसे बड़ा गुण यह था कि जो आदर्श उनके हृदय में घर कर लेता था, उसे वह व्यावहारिक जीवन में उतारते थे और स्वयं अनुभव प्राप्त कर लेने के बाद ही उसे वे दूसरों के सम्मुख रखते थे। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, “मैं दूसरों को अपना जीवन दर्शन समझाने में सर्वथा अयोग्य हूं, मैं तो केवल उस दर्शन को, जिसमें विश्वास रखता हूं, अभ्यास में लाने की योग्यता रखता हूं।" ऐसी स्थिति में महात्मा गांधी के दर्शन का भली-भांति अध्ययन उनके जीवन परिचय की पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है।

मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. को काठियावाड़ में पोरबन्दर नामक स्थान पर एक धार्मिक विचारधारा वाले परिवार में हुआ था। उनके पिता करमचन्द पोरबन्दर राज्य के दीवान थे तथा उनकी सदाचारिता एवं निष्पक्षता की बड़ी धाक थी। उनकी माता एक साधु प्रकृति की और अत्यन्त धार्मिक महिला थीं। मोहनदास स्कूल में एक साधारण योग्यता के, किन्तु समय के बहुत पाबन्द और शिक्षकों के आज्ञाकारी विद्यार्थी थे। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद 1888 ई. में उनको कानून पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया।

गांधीजी सन 1891 ई. में लन्दन से लौटे और उन्होंने वकालत करनी प्रारम्भ कर दी। काठियावाड़ तथा बम्बई में थोड़े दिनों तक वकालत करने के बाद एक धनाढ्य गुजराती मुसलमान की ओर से एक मुकदमे की पैरवी करने दक्षिण अफ्रीका गए। दक्षिण अफ्रीका के काले-गोरे के भेद और अपने देशवासियों की दयनीय दशा को देखकर उनको तीव्र आघात पहुंचा और यहीं से उनका सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ। सन् 1906 से उन्होंने दक्षिणी अफ्रीका सरकार के 'एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट' (Asiatic Registration Act) के विरुद्ध सफलतापूर्वक सत्याग्रह किया। दक्षिण अफ्रीका में इस प्रकार की सफलता प्राप्त करने के बाद महात्मा गांधी ने सन् 1914 में भारतीय राजनीति में प्रवेश किया।

इस समय गांधीजी को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास था; इसलिए उन्होंने भारतीय जनता को बिना किसी शर्त के ब्रिटिश सरकार की सहायता देने के लिए प्रेरित किया। गांधीजी ने भारत में अपना राजनीतिक जीवन चम्पारन के सत्याग्रह से आरम्भ किया और इस क्षेत्र में नील की खेती करने वाले कृषकों पर गोरे जमींदारों के अत्याचारों की जांच करने के लिए सरकार को एक कमीशन नियुक्त करने को बाध्य किया। इसके एक वर्ष बाद खेड़ा जिले में 'कर न दो आन्दोलन' और अहमदाबाद के मजदूर आन्दोलन में उन्होंने अपूर्व सफलता प्राप्त की ।

इस समय तक गांधीजी एक राजभक्त भारतीय थे, लेकिन सन् 1918 में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'रौलेट ऐक्ट' के रूप में दमनकारी कानून पास किए जाने और अप्रैल सन् 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के कारण महात्मा गांधी को ब्रिटिश सरकार की न्यायप्रियता में विश्वास नहीं रहा। इसी समय खिलाफत के प्रश्न पर भारत का मुसलमान वर्ग भी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध था, अतः हिन्दू-मुस्लिम एकता में विश्वास रखने वाले महात्माजी ने इसे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ करने का उपयुक्त अवसर समझा और उन्होंने खिलाफत के प्रश्न को असहयोग आन्दोलन के साथ मिलाकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। असहयोग आन्दोलन ने भारतीय जनता को जाग्रत करने की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि महात्मा गांधी की 'एक वर्ष में स्वराज्य' की कल्पना चरितार्थ होने वाली है। लेकिन आन्दोलन के प्रसार के साथ-ही-साथ आन्दोलन हिंसक रूप धारण करने लगा। अतः 4 फरवरी, 1922 के चौरी-चौरा काण्ड से दुःखी होकर महात्मा गांधी ने इस आन्दोलन को जबकि वह चरमोत्कर्ष पर था, स्थगित कर दिया। 4 मार्च, 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर उन्हें राजद्रोह के अपराध में 7 वर्ष की सजा दी गई। परन्तु जेल में उनका स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण उन्हें 5 फरवरी, 1924 को जेल से मुक्त कर दिया।

महात्मा गांधी

यद्यपि इस आन्दोलन के आधार पर स्वराज्य नहीं प्राप्त किया जा सका, परन्तु इसने भारतीय राष्ट्रीयता में एक नवीन जीवन का संचार किया। कूपलैण्ड के शब्दों में, “इसने राष्ट्रीय आन्दोलन को एक क्रान्तिकारी आन्दोलन और जन-आन्दोलन का रूप प्रदान कर दिया।' 1

असहयोग आन्दोलन स्थगित हो जाने के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम दंगे भी फिर प्रारम्भ हो गए। गांधीजी को इन दंगों से मर्मान्तक दुःख पहुंचा और सन् 1924 में जेल से छूटने पर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए 21 दिन का अनशन किया। इसी वर्ष वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।

सन् 1930 में गांधीजी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आन्दोलन का संचालन किया और सन् 1942 में उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम अहिंसक संघर्ष 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का सन्देश और 'करो या मरो' (Do or Die) का नारा दिया। सन् 1931 में गांधी-इरविन समझौते के आधार पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर उन्होंने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था। गांधीजी का यह कार्य रचनात्मक राजनीति की दिशा में एक प्रयास था, लेकिन लीग के प्रतिनिधियों और ब्रिटिश नौकरशाही के अपवित्र गठबन्धन के कारण गांधीजी को अपने इस कार्य में सफलता नहीं मिली।

मई 1944 में जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी ने हिन्दू-मुस्लिम समस्या के हल के लिए प्रत्येक सम्भव चेष्टा की, किन्तु मि. जिन्ना पाकिस्तान के निर्माण की बात पर अड़े रहे। गांधीजी देश के बंटवारे के विरोधी थे, किन्तु ब्रिटिश-नीति, मुस्लिम लीग की हठधर्मी और हिन्दू-मुस्लिम दंगों के कारण उन्हें विभाजन स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

सन् 1947 में भारत की स्वतन्त्रता बहुत सीमा तक गांधीजी के प्रयत्नों का परिणाम कही जा सकती है। इसके अतिरिक्त गांधीजी सार्वजनिक जीवन की विभिन्न दिशाओं में कार्य करते रहे। उन्होंने सदैव ही रचनात्मक कार्यक्रम अपनाने पर बल दिया और उनके द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता, दलितोद्धार, नारी-कल्याण, मद्य-निषेध, हथकरघा उद्योग को प्रोत्साहन, आदि की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये गये ।

स्वतन्त्रता के बाद गांधीजी के प्रयत्नों के बावजूद साम्प्रदायिक तनाव बहुत अधिक बढ़ गया और अन्त में साम्प्रदायिकता की विषाक्त आग उनकी आहुति लेकर ही शान्त हुई। 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम के समय मृत्यु गौडसे नामक युवक ने तीन गोलियां दागकर उनके लौकिक शरीर का अन्त कर दिया। उनकी विश्व के महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा था, “आगे आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास कर सकेंगी कि उन जैसे हाड़-मांस का पुतला कभी इस भूमि पर पैदा हुआ था।"

महात्मा गांधी की मृत्यु पर डॉ. स्टेन्ले जोन्स ने लिखा है, “हत्यारे की गोलियां महात्मा गांधी और उनके विचारों का अन्त करने के लिए चलाई गई थीं। परन्तु उनका फल यह हुआ कि वे विचार स्वच्छन्द हो गए और मृत्यु में वे अपने मानव जाति की थाती बन गए। हत्यारे ने महात्मा गांधी की हत्या करके उन्हें अमर बना दिया। जीवन की अपेक्षा अधिक बलशाली हो गए।'

गांधीवादी दर्शन के प्रेरणा स्रोत (Sources of inspiration for Gandhian philosophy)

महात्मा गांधी की विचारधारा के प्रेरणा स्रोत को मूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है—पूर्वी और पश्चिमी । पूर्वी स्रोतों में सर्वप्रथम उन पर अपनी माता के व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता और पिता की सादगी एवं सदाचार का अमिट प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी माता से वैष्णव हिन्दू धर्म के संस्कार प्राप्त किए। उनके जीवन और विचार पर अन्य प्रभावों में जैन और बौद्ध धर्म, गीता और उपनिषद्, भारत के विभिन्न साधु-सन्तों के उपदेश एवं प्रमुख रूप से जैन साधक श्री रायचन्द्रजी के सम्पर्क का उल्लेख किया जा सकता है। गांधीजी ने अपनी विचारधारा के मूल आधार सत्य और अहिंसा को जैन और बौद्ध दर्शन से ग्रहण किया था और उन्होंने अपने प्रथम चरित्र लेखक एक मिशनरी डोक को बताया था कि अहिंसक प्रतिकार की कल्पना मुझे सर्वप्रथम श्यामलाल भट्ट द्वारा रचित गुजराती कविता से सूझी थी, जिसका सारांश इस प्रकार था—“यदि कोई तुम्हें पानी पिलावे और तुमने भी उसे बदले में पानी पिलाया तो उसका कोई महत्व नहीं है। अपकार के बदले उपकार करने में ही खूबी है।" विभिन्न धर्मग्रन्थों में श्रीमद्भागवत् गीता का प्रभाव उन पर सर्वोपरि था और वे इस ग्रन्थ रत्न को 'आध्यात्मिक सन्दर्भों की पुस्तक' (Book of Spiritual References) कहा करते थे।

गांधीजी की विचारधारा के पश्चिमी स्रोतों में बाइबिल विशेषतया उसका अध्याय पर्वत प्रवचन' (Sermon on the Morant) तथा टाल्सटॉय, रस्किन और थोरो की रचनाएं हैं। गांधीजी ने 'पर्वत प्रवचन' वाले भाग से इस बात को ग्रहण किया कि "अत्याचारी का प्रतिकार मत करो, वरन् जो तुम्हारे दाएं गाल पर चांटा मारे उसके सामने बायां गात भी कर दो. अपने शत्रु से प्रेम करो।'' गांधीजी ने सन् 1896 ई. में नेपाल जाते हुए रास्ते में अपने मित्र पोलक द्वारा दी गई जॉन रस्किन की पुस्तक 'Unto this Last' को पढ़ा और वे इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सर्वोदय के नाम से इसका गुजराती में अनुवाद किया। इस पुस्तक से उन्होने तीन बातें सीखी-(1) एक व्यक्ति का हित सभी व्यक्तियों के हित में निहित है। (2) एक वकील के कार्य का भी उतना ही महत्व है जितना कि नाई के कार्य का, क्योंकि सभी व्यक्तियों को अपने कार्य से आजीविका प्राप्त करने का समान अधिकार है। (3) शारीरिक श्रम करने वाले किसान या कारीगर का जीवन ही वास्तविक जीवन है। गांधीजी ने रस्किन से प्रभावित होकर बुद्धि की अपेक्षा चरित्र पर अधिक बल दिया; आत्मिक बल को सर्वोच्च स्थान दिया; जीवन में राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में धर्म को महत्ता दी और पूंजीपतियों से यह अपेक्षा तथा आशा रखी कि वे मजदूरों के संरक्षक बनें और उनसे पितृतुल्य व्यवहार करें।

गांधीजी पर अमरीकन अराजकतावादी लेखक हेनरी डेबिट थोरो का भी प्रभाव पड़ा। थोरो का सिद्धान्त था कि भलाई को बढ़ाने वाले सभी लोगों तथा संस्थाओं के साथ सहयोग एवं बुराई को प्रोत्साहित करने वालों के साथ असहयोग किया जाना चाहिए। धोरो मनुष्य की स्वाभाविक भलाई और राज्यहीन समाज के आदर्श में विश्वास रखता था और दास प्रथा के प्रश्न पर उसने अमरीकन सरकार के साथ निष्क्रिय प्रतिकार के मत का समर्थन किया था। उसका विचार था कि दास-प्रथा जैसे नैतिक प्रश्न पर राज्य की आज्ञा भंग कर इस विषय से सम्बन्धित कानून तोड़ा जाना चाहिए और इस सम्बन्ध में अहिंसा का पालन आवश्यक नहीं है। गांधीजी ने थोरो की विचारधारा को संशोधित करते हुए इस बात पर बल दिया कि सरकार के अनैतिक कानूनों का विरोध तो अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा करते हुए हमारा व्यवहार अहिंसक ही होना चाहिए। थोरो की पुस्तक 'On the Duty of Civil Disobedience' ने भी उन पर पर्याप्त प्रभाव डाला ।

गांधीजी पर रूसी लेखक टाल्सटॉय की रचनाओं 'संक्षिप्त सुसमाचार' (Gospel in Brief), 'क्या करें' (What to do) तथा 'स्वर्ग तुम्हारे भीतर है' (The Kingdom of God is within You) ने भी प्रभाव डाला। इनमें से अन्तिम पुस्तक का उन पर विशेष और स्थाई प्रभाव पड़ा। इस पुस्तक के अध्ययन से पूर्व गांधीजी के मन में अहिंसा के सम्बन्ध में अनेक सन्देह थे। इस पुस्तक ने उन सभी सन्देहों का निराकरण कर दिया। उपर्युक्त विचारकों तथा उनकी रचनाओं के अतिरिक्त गांधीजी पर 'कार्लायल की वीरपूजा' (Hero Worship) तथा हजरत मुहम्मद और उनके उत्तराधिकारियों के जीवन-चरित्र का भी प्रभाव पड़ा।

गांधीजी की कृतियां (Gandhiji's works)

गांधीजी ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रमुख रूप में दो पुस्तकों 'हिन्द स्वराज्य' (Hind Swaraj) तथा 'अपनी आत्मकथा' में किया है, जिनका नाम बिल्कुल ठीक रूप में 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' (My Experiments with Truth) रखा गया है। उनकी अन्य रचनाएं हैं— 'शान्ति और युद्ध में अहिंसा' (Non-violence in Peace and War), 'नैतिक धर्म' (Ethical Religion), 'सत्याग्रह' (Satyagrah), 'सत्य ही ईश्वर है' (Truth is God), 'सर्वोदय' (Sarvodaya), 'साम्प्रदायिक एकता' (Communal Unity), और 'अस्पृश्यता निवारण' (The Removal of Untouchability), आदि। इसके अतिरिक्त गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में 'इण्डियन ओपीनियन' (Indian Opinion) नामक साप्ताहिक पत्र का, भारत में 'यंग इण्डिया' (Young India), 'हरिजन' (Harijan), नवजीवन, हरिजन सेवक, हरिजन बन्धु, आदि पत्रों का सम्पादन करते हुए अपने विचारों का प्रतिपादन किया। सन् 1969 से 'गांधी शताब्दी वर्ष' कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा गांधीजी के सभी लेखों और भाषणों के प्रमाणित संग्रह कई खण्डों में प्रकाशित किए गए हैं।

गांधीवाद का अस्तित्व

गांधीजी की विचारधारा के सम्बन्ध में प्रमुख और सम्भवतया सर्वप्रथम प्रश्न यह है कि क्या गांधीवाद नाम की कोई वस्तु है ? स्वयं गांधीजी ने 1936 ई. में सांवली सेवा संघ में प्रवचन करते हुए कहा था, 'गांधीवाद नामक कोई वस्तु नहीं है। मैं अपने बाद कोई सम्प्रदाय छोड़ना नहीं चाहता। मैं किन्हीं नए सिद्धान्तों यागांधीजी का विचार है कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कार्यों को पूर्णतया पृथक भागों में विभाजित कहीं किया जा सकता और मानवीय कार्यों से पृथक् रूप में धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। धर्म मानव के सभी कार्यों को एक ऐसा नैतिक आधार प्रदान करता है, जिसके अभाव में मानव के सभी कार्यों का महत्व समाप्त हो जायगा। गांधीजी इस बात को स्वीकार करने के लिए कदापि तैयार नहीं थे कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के मापदण्ड अलग-अलग होने चाहिए, वरन् उनका विचार तो यह था कि मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों में एक ही नैतिक संहिता लागू की जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में उनका कहना था कि 'व्यक्ति की दो अन्तरात्माएं नहीं हो सकतीं—एक व्यक्तिगत और सामाजिक तथा दूसरी राजनीतिक । मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों में एक ही नैतिक संहिता का पालन किया जाना चाहिए।"

उनका लक्ष्य तो सत्य और अहिंसा को व्यक्तिगत व्यवहार ही नहीं वरन् सार्वजनिक व्यवहार का आधार बनाना था और उन्होंने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उनके शब्दों में, “मैं यदि राजनीति में भाग लेता हूं तो इसका कारण केवल यही है कि राजनीति हमें एक सर्पिणी की भांति जकड़े हुए है और हम चाहे कितना भी प्रयास क्यों न करें, उससे बाहर नहीं निकल सकते। मैं इस सर्पिणी से जूझना चाहता हूं। मैं इस राजनीति में धर्म को प्रविष्ट करने का प्रयास कर रहा हूं।"

उन्होंने स्वयं को सार्वजनिक जीवन सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर व्यतीत कर 'राजनीति में आध्यात्मिकता को प्रविष्ट किया।'

सत्य और अहिंसा (truth and nonviolence)

गांधीवादी विचारधारा में सर्वोच्च महत्व सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों को प्राप्त है। सत्य और अहिंसा को गांधीजी मनुष्य में अन्तर्निहित धार्मिक भाव के विकास के लिए अपरिहार्य समझते थे। इन दोनों का एक अविभाज्य जोड़ा है। गांधीजी के लिए सत्य ईश्वर है और जो व्यक्ति दूसरे को आघात पहुंचाता है, सत्य का उल्लंघन करता है। हिंसा असत्य है, क्योंकि वह जीवन की एकता और पवित्रता के विरुद्ध है, इसलिए जीवन में अहिंसा का पालन करना सत्य के उपासक का सबसे बड़ा कर्तव्य है। सत्य और अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट कहना गांधीजी की कोई मौलिक बात नहीं थी। उनकी देन यह है कि उन्होंने अहिंसा को एक व्यापक अर्थ दिया और एक व्यापक स्तर पर उनका प्रयोग किया।

सत्य क्या है, इसके उत्तर में गांधीजी ने कहा था, "यह एक बड़ा कठिन प्रश्न है, किन्तु स्वयं अपने लिए मैंने इसे हल कर लिया है। तुम्हारी अन्तरात्मा जो कहती है, वही सत्य है ।' पर सत्य को ग्रहण कर उसे व्यक्त करने के लिए अन्तरात्मा शुद्ध होनी चाहिए, क्योंकि शुद्ध अन्तरात्मा की वाणी ही सत्य हो सकती है । अन्तरात्मा की शुद्धि के लिए साधना की आवश्यकता होती है और यह साधना जीवन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अपनाकर ही की जा सकती है। गांधीजी का विचार था कि देहधारियों के लिए पूर्ण सत्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि मानव आत्मशुद्धि के इन साधनों को पूर्णरूप से नहीं अपना सकता है, फिर भी उनका मत था कि उक्त साधना के द्वारा सत्य की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हो सकता है।

गांधीजी के मत में केवल सत्य बोलना सत्य के प्रति निष्ठा का प्रमाण नहीं है। सत्य परायण व्यक्ति मन, वचन और आचरण तीनों से सत्य के प्रति समर्पित रहेगा। मन की पवित्रता, आचरण की शुद्धता और वाणी की निर्मलता, व्यक्ति के आचरण की सत्य परायणता के तीन स्पष्ट मापदण्ड हैं।

गांधीजी ने स्पष्ट किया कि सत्य परायणता में पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के लिए कोई स्थान नहीं होता । सत्य के प्रति निष्ठावान् व्यक्ति अपने दृष्टिकोण की अपूर्णता को स्वीकार करता है और जब कभी अनुभव करता है कि उसका पक्ष सत्य नहीं था, तब उसमें विनम्रता के साथ अपनी गलती को स्वीकार करने का साहस होता है। अहिंसा

गांधीजी अहिंसा को मानव का प्राकृतिक गुण मानते थे और उनका विचार था कि मनुष्य स्वभावतः अहिंसाप्रिय है तथा वह परिस्थितियोंवश ही हिंसावान बनता है। मनुष्य की अहिंसक वृत्ति का ही परिणाम है, कि आदिमकाल का वह व्यक्ति जो परिस्थितियोंवंश नरभक्षी के रूप में जीवन व्यतीत करता था, आज का की सभ्य और सुसंस्कृत प्राणी बन गया है। इस प्रकार समस्त मानव इतिहास में हम देखते हैं कि श्रेष्ठ प्रवृत्तियों का विकास हो रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार में हिंसा को पूर्ण अनास्तित्व नहीं है, यह

मनुष्यसंसार में विद्यमान है और कभी कभी अपना रौद्र रूप भी प्रकट करती है; परन्तु मानव समाज के विकास का इतिहास यही बताता है कि मनुष्य मूल रूप में अहिंसाप्रिय है और उसकी इस अहिंसक वृत्ति के कारण ही मानव जाति निरन्तर बढ़ती जा रही है। इस प्रकार अहिंसा को मानवीय जीवन का सर्वोच्च नियम मानते हुए गांधीजी का मत था कि अहिंसा के आधार पर ही एक व्यवस्थित समाज की स्थापना और मानव जीवन की भावी उन्नति सम्भव है।

अहिंसा : मानव जीवन की महानतम् शक्ति (Non-Violence: The Greatest Power of Human Life)

गांधीवाद की मूल धारणा है कि अहिंसा मानव जाति के पास उपलब्ध महानतम् शक्ति है। वे अहिंसा को विश्व के विनाशकारी शस्त्रों के सम्पूर्ण योग की तुलना में भी अधिक शक्तिशाली और प्रभावकारी मानते थे। अहिंसा एक जीवन्त शक्ति है तथा पूरा संसार इस शक्ति द्वारा नियन्त्रित एवं संचालित है। गांधीवाद की मूल धारणा यह है :

1. अहिंसा मानवीय जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति (non-violence natural tendency of human life ) - गांधीजी का विचार है कि हिंसा नहीं, वरन् अहिंसा ही मानवीय जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अज्ञान, असत्य और क्रोध के वशीभूत होकर व्यक्ति हिंसक आचरण को अपना सकता है, लेकिन यह नितान्त अस्थाई स्थिति है। विवेक और चेतना के जाग्रत होने पर वह अहिंसा को अपना लेगा।

2. अहिंसा, हिंसा की तुलना में अधिक प्रभावकारी (nonviolence is more effective than violence) — गांधीजी की दृढ़ मान्यता है कि अहिंसा, हिंसा की तुलना में नैतिक और व्यावहारिक, दोनों ही दृष्टियों से अधिक प्रभावशाली है। हिंसा से कोई समस्या हल नहीं होती, वह केवल प्रति हिंसा को जन्म देती है, लेकिन अहिंसा विरोधी के मन-मस्तिष्क पर स्थाई विजय दिलाने में समर्थ है।

3. अहिंसा की सफलता सुनिश्चित है (nonviolence is sure to succeed )—अहिंसक मार्ग को अपनाकर सफलता प्राप्त करने में समय लग सकता है, लेकिन सफलता सुनिश्चित है। गांधीजी के अनुसार, “अहिंसा ऐसा अस्त्र है, जिसे कोई भी भौतिक नहीं सकता। अहिंसा की शक्ति को संख्या या मात्रा की सीमा में नहीं बांधा जा सकता।'

अहिंसा का आशय-गांधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ केवल हत्या न करना ही नहीं है, वरन् अहिंसा से उनका तात्पर्य अन्य किसी प्रकार से भी अपने विरोधी को कष्ट न पहुंचाना है। 9 मार्च, 1930 के 'यंग इण्डिया' के अंक में गांधीजी ने लिखा था कि "पूर्ण अहिंसा सभी प्राणियों के प्रति दुर्भावना के अभाव का नाम है।... इस प्रकार अहिंसा अपने क्रियात्मक रूप में सभी जीवधारियों के प्रति सद्भावना का नाम है। यह तो विशुद्ध प्रेम है।" इस प्रकार उनके द्वारा मनसा-वाचा-कर्मणा अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है।

अनेक मनुष्यों द्वारा भ्रमवश अहिंसा का आशय यह समझ लिया जाता है कि बुराई को न रोकना या बुराई के सामने झुक जाना ही अहिंसा है, लेकिन अहिंसा किसी भी रूप में या किसी भी परिस्थिति में बुराई या अत्याचार को सहन करने या उसके सम्मुख समर्पण करने का आदेश नहीं देती, वरन् उसके द्वारा तो बुराई का आध्यात्मिक बल के आधार पर प्रतिरोध का आदेश दिया जाता है। स्वयं गांधीजी के शब्दों में, अहिंसा का तात्पर्य अत्याचारी के प्रति नम्रतापूर्ण समर्पण नहीं है, वरन् इसका तात्पर्य अत्याचारी की मनमानी इच्छा का आत्मिक बल के आधार पर प्रतिरोध करना है।"

महात्मा गांधी का दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य और समाज की स्थिति में रक्तपूर्ण क्रान्ति के आधार पर नहीं वरन् अहिंसात्मक पद्धति के आधार पर ही सुधार सम्भव है। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मनुष्य में चैतन्य शक्ति होती है और नैतिक प्रभाव द्वारा इस चैतन्य शक्ति को जाग्रत करके उसका हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। गांधीजी अहिंसा से आध्यात्मिक बल पाते थे और उनका विश्वास था कि अहिंसा में कठोर हृदय को भी पिघलाने की शक्ति होती है। अहिंसा आत्मिक बल की प्रतीक होती है, जिसके विरोध में भौतिक बल चाहे कुछ समय के लिए विजयी हो जाय; किन्तु अन्ततः उसे पराजित होना ही पड़ेगा। हिंसा केवल कुछ ही लोगों के लिए सम्भव है और वह भी अवास्तविक रूप से, जबकि अहिंसा जनसाधारण का स्वाभाविक धर्म है क्योंकि "यह हम जैसे जीवों का शाश्वत कानून है।"

गांधीजी की मान्यता है कि अहिंसा का विचार कोई जड़ सिद्धान्त नहीं है, अपितु यह एक गतिशील नैतिक आस्था है। गांधीजी के लिए अहिंसा आस्था और निष्ठा का विषय है, कोई व्यावहारिक नीति नहीं है। 1 नवजीवन, 1 नवम्बर, 1921.

गांधीजी का अहिंसा में दृढ़ विश्वास था और उन्होंने अहिंसा की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं बताई हैं : (अ) जाग्रत अहिंसा (Enlightened Non-violence)इसे अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट रूप कहा जा सकता है और यह साधन-सम्पन्न या बहादुर व्यक्तियों की अहिंसा है। अहिंसा के इस रूप को दुःखद आवश्यकताओं के कारण ही नहीं वरन् नैतिक धारणाओं में दृढ़ विश्वास के कारण ही अपनाया जा सकता है। जाग्रत अहिंसा से पूर्ण व्यक्ति में प्रहार करने की क्षमता रहती है, किन्तु वह इसका इच्छुक नहीं होता। अहिंसा के इस रूप को केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, अपितु जीवन के सभी क्षेत्रों में दृढ़ता के साथ अपनाया जाना चाहिए। अहिंसा के इस रूप में ही असम्भव को सम्भव में बदलने और पहाड़ों को हिला देने की अपार शक्ति निहित है।

(ब) औचित्यपूर्ण अहिंसा (Reasonable Non-violence )अहिंसा के इस रूप को जीवन के क्षेत्र में किसी विशेष आवश्यकता के पड़ने पर औचित्यानुसार एक नीति के रूप में अपनाया जाता है। यह निर्बल व्यक्तियों की अहिंसा या असहाय व्यक्तियों का 'निष्क्रिय प्रतिरोध' (Passive Resistance) होती है। इसमें नैतिक विश्वास के कारण नहीं वरन् निर्बलता के कारण ही हिंसा का प्रयोग नहीं किया जाता है। फिर भी यदि इसे ईमानदारी, साहस और सावधानीपूर्वक एक नीति के रूप में अपनाया जाय, तो इससे कुछ सीमा तक वांछित लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। लेकिन यह 'जाग्रत अहिंसा' के समान प्रभावशाली नहीं हो सकती है। आन्तरिक विश्वास नहीं, वरन् परिस्थितियों की मांग पर आधारित होने के कारण अहिंसा के इस रूप में आवश्यक होने पर हिंसा का प्रयोग भी किया जा सकता है। औचित्यपूर्ण अहिंसा को 'व्यावहारिक अहिंसा' भी कहा जा सकता है।

(स) भीरुओं की अहिंसा (Non-violence of the Cowards)कई बार डरपोक और कायर व्यक्ति भी अहिंसा का दम भरते हैं, किन्तु उनकी इस प्रवृत्ति को अहिंसा नहीं वरन् डरपोक और कायर व्यक्तियों की निष्क्रिय हिंसा कहा जाना चाहिए। एक डरपोक संकट का सामना करने की अपेक्षा उससे भाग जाता है जो नितान्त अमानवीय, अप्राकृतिक और असम्मानजनक है। गांधीजी के शब्दों में, “कायरता और अहिंसा, पानी और आग की भांति एक साथ नहीं रह सकते।""

अहिंसा वीरों का धर्म है और अपनी कायरता को अहिंसा की ओट में छिपाना निन्दनीय तथा घृणित है। यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक का चुनाव करना हो तो गांधीजी हिंसा को स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में उनका यह स्पष्ट विचार है कि “यदि हमारे हृदय में हिंसा भरी है तो हम अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए अहिंसा का आवरण पहनें, इससे हिंसक होना अधिक अच्छा है।”” वस्तुतः गांधीजी कायरता के पक्ष में कतई नहीं थे।

इस प्रकार गांधीवादी अहिंसा को कायरता की संज्ञा देना नितान्त अनुचित है। यह कायरता या पलायनवादी प्रवृत्ति की परिचायक नहीं, वरन् “आत्मिक बल के रूप में वीरों का वास्तविक भूषण है। " अहिंसा के सामाजिक व राजनीतिक आयाम—अहिंसा, गांधीजी के अनुसार केवल व्यक्ति का सद्गुण सामाजिक जीवन और राजनीतिक व्यवस्था का भी विश्वसनीय आधार है। यदि हम अहिंसा के आदर्श को व्यक्तिगत सद्गुण तक सीमित रखते हैं तो यह अहिंसा की व्यापक और रचनात्मक शक्ति का अवमूल्यन होगा। महात्मा गांधी ने इस बात पर बल दिया है कि अहिंसा न केवल सामाजिक और राजनीतिक जीवन की विकृतियों को दूर करने में सक्षम है, वरन् एक श्रेष्ठ सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का मूल आधार अहिंसा ही हो सकती है। अहिंसा सामाजिक जीवन और राष्ट्र के सामूहिक जीवन का सर्वोच्च धर्म है। यह सामाजिक व राजनीतिक आचरण तथा व्यवस्था की प्रेरक व मूलभूत शक्ति है।

अहिंसा के अन्तर्राष्ट्रीय आयाम-गांधीजी के अनुसार अहिंसा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन और व्यवस्था का भी विश्वसनीय आधार बन सकती है। गांधीजी के अनुसार अहिंसा के माध्यम से ही एक न्यायसंगत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का निर्वाह किया जाना सम्भव है। उनका दृढ़ मत है कि अहिंसा के द्वारा किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का समाधान किया जा सकता है तथा लम्बे अहिंसक संघर्ष का मार्ग अपनाकर हिटलर जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी के आक्रमण को भी निष्फल किया जा सकता है।

के अनुरूप ही होने चाहिए। हमारा साध्य नैतिक हो केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, यह बात भी उतनी ही आवश्यक है कि हमारे साधन भी नैतिक हों। साधनों की अनैतिकता निश्चित रूप से साध्य की नैतिकता को नष्ट कर देती है, अतः श्रेष्ठ साध्य की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ साधनों को अपनाया जाना चाहिए। गांधीजी ने तो यहां तक कहा है कि यदि आपके पवित्र साध्य के लिए उतने ही पवित्र साधन नहीं मिलते, तो उस साध्य को ही छोड़ दो। स्वयं गांधीजी के शब्दों में, “साधन बीज है और साध्य वृक्ष। इसलिए जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है, वही सम्बन्ध साधन और साध्य में है। मैं शैतान की उपासना करके ईश्वरोपासना का फल नहीं पा सकता।

साधनों की पवित्रता का आग्रह करके गांधीजी ने राजनीति के आध्यात्मीकरण की ओर सबसे बड़ा कदम उठाया। उनके समय तक यह सामान्य धारणा प्रचलित थी कि राजनीति में सफलता ही सब कुछ है और सफलता प्राप्ति के लिए उचित-अनुचित सभी साधन अपनाए जा सकते हैं। फासिस्ट तथा साम्यवादी इस प्रमुख प्रतिपादक रहे हैं कि 'साध्य ही साधनों का औचित्य है' (End Justifies the means) | गांधीजी ने इसे अस्वीकार करते हुए यह धारणा व्यक्त की कि साधन साध्य के अनुरूप होने चाहिए। राजनीति में यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था और इसे राजनीति की कला को गांधीजी की सबसे महत्वपूर्ण देन कहा जा सकता है। गांधीजी ने स्वयं अपने जीवन भर इस सिद्धान्त का पालन किया। उन्होंने अपने देश की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए कभी भी अनैतिक या हिंसात्मक साधनों का प्रयोग नहीं किया।

गांधीवादी पद्धति में व्यक्ति की नैतिक पवित्रता पर अत्यधिक बल दिया गया है और इस दृष्टि से गांधीजी व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक मानते हैं। गांधीजी का विचार था कि मनुष्य की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक समस्याएं मूल रूप में नैतिक समस्याएं ही हैं और इनका समाधान भी नैतिक साधनों से ही किया जाना चाहिए। इसलिए गांधीजी कहा करते थे कि चरित्र की महानता बुद्धि की महानता से अधिक महत्वपूर्ण है। वास्तव में गांधीजी द्वारा नैतिकता पर इतना अधिक बल दिया गया है कि गांधीजी की विचारधारा एक राजनीतिक दर्शन की अपेक्षा नैतिक दर्शन प्रतीत होती है। गांधीजी का विचार था कि श्रेष्ठ साधनों को उचित और सफलतापूर्ण ढंग से अपनाने के लिए आत्मा की शुद्धि की आवश्यकता होती है और आत्मा की इस शुद्धि हेतु ही वे समय-समय पर व्रत, आदि किया करते थे।

सत्याग्रह (satyagraha)

गांधीजी की सत्य और अहिंसा, साध्य और साधना की श्रेष्ठता तथा व्यक्ति की नैतिक पवित्रता में दृढ़ आस्था थी और अपने इन्हीं विश्वासों के आधार पर उन्होंने बुराई के प्रतिरोध के एक नवीन मार्ग का आविष्कार किया, जिसे सत्याग्रह का नाम दिया गया। सत्याग्रह की पद्धति गांधीजी की राजनीति को विशेष और अपूर्व देन है। स्वयं गांधीजी के शब्दों में, “अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बजाय, स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय प्राप्त करना ही सत्याग्रह है।” सत्याग्रह शक्तिशाली और वीर मनुष्य का शस्त्र है। एक सत्याग्रही अपने प्रतिद्वन्द्वी से आध्यात्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। वह उसमें ऐसा विश्वास उत्पन्न कर देता है कि वह बिना अपने को नुकसान पहुंचाए उनको नुकसान नहीं पहुंचा सकता। सत्याग्रह तो सत्य की विजय हेतु किए जाने वाले आध्यात्मिक और नैतिक संघर्ष का नाम है।

निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistance) और सत्याग्रह में अन्तर

अनेक बार सत्याग्रह को निष्क्रिय प्रतिरोध का ही पर्यायवाची समझ लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। यद्यपि ये दोनों आक्रमण का सामना करने, संघर्षों को दूर करने तथा सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन लाने की पद्धतियां हैं; लेकिन फिर भी इनमें मूलभूत अन्तर हैं, जितना उल्लेख इन रूपों में किया जा सकता है :

(1) सत्याग्रह के अन्तर्गत अहिंसा के सिद्धान्त को नीति के रूप में नहीं, वरन् आदर्श के रूप में अपनाया जाता है। इस कारण सत्याग्रही किसी भी स्थिति में अहिंसा का त्याग और हिंसा का प्रयोग नहीं कर सकता है। किन्तु निष्क्रिय प्रतिरोध में अपनी निर्बलता के कारण नीति के रूप में अहिंसा का पालन किया जाता है, मौलिक सिद्धान्त के रूप में नहीं। (2) निष्क्रिय प्रतिरोध में शत्रु को परेशान करने की भावना पर बल दिया जाता है, किन्तु सत्याग्रह में सत्याग्रही स्वयं ही अधिकतम कष्ट झेलता है। सत्याग्रह में शत्रु के प्रति दुर्भावना के लिए कोई स्थान नहीं होता है। (3) निष्क्रिय प्रतिरोध निर्बल का शस्त्र है और सत्याग्रह वीरों का। सत्याग्रह करने के लिए निर्भयता, हिम्मत और मर्दानगी की जरूरत होती है। गांधीजी के शब्दों में, “निर्बल कभी सत्याग्रही हो ही नहींसकता है।" लेकिन निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रयोग प्रायः निर्बल व्यक्ति ही किया करते हैं। (4) निष्क्रिय प्रतिरोध द्वेष, घृणा और अविश्वास पर आधारित है, इस कारण इनका प्रयोग स्वजनों और रिश्तेदार के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है; लेकिन सत्याग्रह प्रेममूलक है, वह विरोधी के प्रति प्रेम और उदारता की भावना पर आधारित है। इस कारण सत्याग्रह का प्रयोग निकटतम और प्रियतम व्यक्ति के प्रति भी किया जा सकता है। (5) निष्क्रिय प्रतिरोध में रचनात्मक प्रवृत्ति या कार्यों के लिए कोई स्थान नहीं है और उसका कोई अपना विशिष्ट जीवन-दर्शन भी नहीं है, किन्तु सत्याग्रह का अपना जीवन-दर्शन है और उसमें रचनात्मक कार्यक्रम को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। गांधीजी ने अपने सत्याग्रह आन्दोलन में खादी, ग्रामोद्योग, अस्पृश्यता निवारण, प्रौढ़ शिक्षा, साक्षरता प्रसार, मद्यपान-निषेध, आदि रचनात्मक कार्यक्रमों को अपनाया था।

सत्याग्रही के गुण (qualities of a satyagrahi)

गांधीजी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति सत्याग्रह के सिद्धान्त पर आचरण नहीं कर सकता, सत्याग्रही में विशेष गुण होने चाहिए। उनके अनुसार सत्याग्रही के लिए यह आवश्यक है कि वह सत्य पर चलने वाला हो; अनुशासन में रहने का अभ्यस्त हो तथा मनसा, वाचा और कर्मणा अहिंसा में विश्वास रखने वाला हो। सत्याग्रही कभी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए छल, कपट, झूठ, हिंसा, इत्यादि का आश्रय नहीं लेता । वह जो कुछ करता है, खुले रूप में करता है और अपनी कमजोरियों व भूलों को छिपाने के बजाय उन्हें खुले रूप में स्वीकार करने के लिए तत्पर रहता है। गांधीजी ने 'हिन्द स्वराज्य' में सत्याग्रही के लिए 11 व्रतों का पालन आवश्यक बताया है। ये व्रत निम्नलिखित हैं : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वाद, निर्भयता, सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना, स्वदेशी तथा अस्पृश्यता निवारण। सत्याग्रह के विभिन्न रूप

गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह का यह शस्त्र विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग रूप ग्रहण कर सकता है। सत्याग्रह के प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं :

(1) असहयोग आन्दोलन (non cooperation movement )-गांधीजी का विचार था कि किसी भी शासन द्वारा जनता के सहयोग से ही शोषण और अत्याचार किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में यदि जनता शासन के साथ सहयोग करने से इन्कार कर दे, तो शासन के द्वारा कार्य नहीं किया जा सकेगा। सन् 1919-20 में भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए असहयोग आन्दोलन के मार्ग को ही अपनाया गया था।

(2) सविनय अवज्ञा आन्दोलन(Civil disobedience movement)-सत्याग्रह का असहयोग से अधिक प्रभावपूर्ण रूप सविनय अवज्ञा है। गांधीजी इसे पूर्ण प्रभावदायक और सैनिक विद्रोह का रक्तहीन विकल्प कहते थे। सविनय अवज्ञा का तात्पर्य अहिंसक और विनयपूर्ण तरीके से कानून की अवज्ञा करना है। कानूनों की यह अवज्ञा हिंसक रूप ग्रहण न कर ले, इसलिए उनका विचार था कि सविनय अवज्ञा का प्रयोग जनसाधारण द्वारा नहीं वरन् कुछ चुने हुए विशेष व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिए और किन कानूनों का उल्लंघन किया जाय, यह बात सत्याग्रहियों द्वारा नहीं, वरन् नेता द्वारा ही निश्चित की जानी चाहिए। सन् 1931 में नमक आन्दोलन के रूप में महात्माजी द्वारा इसी शस्त्र का प्रयोग किया गया था।

(3) हिजरत या प्रवजन(hijrat or emigration)-सत्याग्रह का एक अन्य रूप हिजरत है, जिसका अर्थ है, स्थाई निवास स्थान का स्वैच्छिक परित्याग। ऐसे व्यक्ति जो अपने आपको पीड़ित अनुभव करते हों, आत्मसम्मान रखते हुए उस स्थान में नहीं रह सकते हों और अपनी रक्षा के लिए हिंसक शक्ति नहीं रखते हों, उनके द्वारा हिजरत का प्रयोग किया जा सकता है। सन् 1918 में बारडोली और सन् 1939 में बिट्ठलगढ़ और लिम्बडी की जनता को गांधीजी के द्वारा हिजरत का सुझाव दिया गया।

(4) अनशन(hunger strike )-सत्यागह का अन्य रूप अनशन है जिसका आजकल बड़ा गलत प्रयोग किया जाने लगा है। गांधीजी इसे अत्यधिक उग्र अस्त्र समझते थे और उनका विचार था कि इसे अपनाने में अत्यधिक सावधानी बरती जानी चाहिए। अनशन केवल कुछ विशेष अवसरों पर आत्मशुद्धि या अत्याचारियों के हृदय-परिवर्तन के लिए ही किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इस अस्त्र का प्रयोग हर किसी व्यक्ति द्वारा नहीं वरन् आध्यात्मिक बल-सम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा ही किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके सफल प्रयोग के लिए मानसिक शुद्धता, अनुशासन और नैतिक मूल्यों में आस्था की अत्यधिक आवश्यकता होती है।

(5) हड़ताल (strike) - सत्याग्रह का एक अन्य रूप हड़ताल है, किन्तु हड़ताल के सम्बन्ध में गांधीजी का विचार समाजवादियों और साम्यवादियों से भिन्न है। गांधीजी वर्ग संघर्ष की धारणा में विश्वास नहीं करते थे और उनके अनुसार हड़ताल आत्मशुद्धि के लिए किए जाने वाला एक स्वैच्छिक प्रयत्न है जिसका लक्ष्य स्वयं कष्ट सहन करते हुए विरोधी का हृदय परिवर्तन करना है। गांधीजी के अनुसार हड़ताल करने वाले व्यक्तियों की मांगें नितान्त स्पष्ट और उचित होनी चाहिए।

यहां यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी के द्वारा न केवल आन्तरिक क्षेत्र में वरन विदेशी आक्रमण की स्थिति में भी सत्याग्रह का सुझाव दिया गया है। हिटलर द्वारा इंग्लैण्ड पर आक्रमण किए जाने पर उन्होंने इंग्लैण्ड को यही परामर्श दिया था। इन परिस्थितियों में सत्याग्रह किस सीमा तक सफल हो सकता है, इस सम्बन्ध में अन्य विचारकों का उनसे काफी मतभेद है।

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