कानूनी न्याय को प्राप्त करने के साधन...
(MEASURES FOR
THE ATTAINMENT OF LEGAL JUSTICE)
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| JUSTICE |
राजनीतिक चिन्तन में न्याय की धारणा पर विविध दृष्टि से विचार किया जाता रहा है, लेकिन न्याय का तात्पर्य प्रमुख रूप से कानूनी न्याय से ही लिया जाता है। कानूनी रूप से न्याय की प्राप्ति व्यक्ति के लिए निश्चित रूप से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और यह तभी सम्भव है जबकि न्याय का ढांचा स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। लॉस्की के द्वारा अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'राजनीति के मूल तत्व' (Grammar of Politics) में कानूनी न्याय प्राप्त करने के साधनों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है।' इस सम्बन्ध में लॉस्की की विवेचना और अन्य विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कानूनी न्याय को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित साधन प्रमुख रूप से अपनाए जाने चाहिए :
(1) न्यायपालिका का कार्यपालिका
के प्रभाव से मुक्त होना—यह
एक सर्वमान्य बात है कि यदि न्यायपालिका कार्यपालिका के दबाव से मुक्त नहीं हुई, तो उसके द्वारा निष्पक्ष रूप से न्याय प्रदान करने का कार्य
नहीं किया जा सकेगा। विधियों की व्याख्या का कार्य ऐसे व्यक्तियों को सौंपा जाना
चाहिए, जिनके विचार पर कार्यपालिका का विचार
हावी न हो सके। केवल इतना ही नहीं, वरन् वे इस योग्य होने चाहिए
कि उनके द्वारा ज़रूरत पड़ने पर कार्यपालिका या व्यवस्थापिका से जवाब-तलब किया जा सके। न केवल सर्वोच्च स्तर पर वरन् निम्न
स्तरों पर भी न्यायपालिका कार्यपालिका के दबाव से मुक्त होनी चाहिए।
(2) न्यायाधीशों की नियुक्ति, चुनाव नहीं— न्यायाधीशों के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से तीन विधियां
प्रचलित हैं— (i) जनता द्वारा निर्वाचन,
(ii) व्यवस्थापिका
सभा द्वारा निर्वाचन, और (iii) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
। 'इनमें जनता द्वारा न्यायाधीशों के निर्वाचन की पद्धति
निश्चित रूप से सबसे अधिक बुरी है। और व्यवस्थापिका सभा द्वारा न्यायाधीशों का
चुनाव किए जाने पर भी न्यायाधीश पद दलबन्दी का शिकार बन जाएगा। अतः न्यायाधीशों की
कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति की पद्धति ही सबसे अधिक श्रेष्ठ है। लॉस्की ने लिखा
है, “इस विषय में सभी बातों को देखते हुए
न्यायाधीशों की कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति के परिणाम सबसे अच्छे रहे हैं। परन्तु
यह अति आवश्यक है कि न्यायाधीशों के पदों को राजनीतिक सेवा का फल नहीं बनाया जाना चाहिए।"
(3) न्यायाधीशों के लिए उच्च
योग्यताएं-न्याय की उचित रूप में
प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को प्रदान
किया जाए, जिनकी व्यावसायिक कुशलता और
निष्पक्षता सर्वमान्य हो। न केवल उच्च, वरन् निचले न्यायाधीशों के
पद पर भी ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए, जो योग्य और विधि के बहुत अच्छे ज्ञाता हों।
(4) पर्याप्त वेतन और पदोन्नति
के अवसर—हैमिल्टन ने अपनी पुस्तक 'राजनीति के तत्व' (Elements of Politics) में लिखा है कि 'यह मानव स्वभाव है कि जो
व्यक्ति अपनी आजीविका की दृष्टि से शक्ति सम्पन्न हैं, उनके पास संकल्प की शक्ति का भी बड़ा बल होता है।' यह कथन पूर्ण सत्य है और इसके आधार पर कहा जा सकता है कि
न्यायाधीशों को निश्चित और पर्याप्त वेतन दिया जाना चाहिए। इस बात की आशंका बनी
रहती है कि कम वेतन पाने वाले न्यायाधीश भ्रष्टाचार के शिकार हो जाएंगे। इसके
अलावा न्यायाधीशों को पदोन्नति के अवसर भी दिए जाने चाहिए, जिससे उनकी अपने कार्य में रुचि बनी रहे।
(5) लम्बा कार्यकाल और पद की
सुरक्षा
- न्यायाधीशों का कार्यकाल
लम्बा होना चाहिए तथा सामान्यतया ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि वे सदाचार-पर्यन्त अपने पद पर बने रहें। लम्बा कार्यकाल होने पर
न्यायाधीश अपने कार्य का अनुभव प्राप्त कर अधिक कुशल बन जाते हैं एवं स्वतन्त्रता
और निष्पक्षता के साथ अपना कार्य कर सकते हैं। इसके साथ ही ऐसी व्यवस्था की जानी
चाहिए कि न्यायाधीशों को पद की सुरक्षा प्राप्त हो और कार्यपालिका अपनी इच्छानुसार
उन्हें न हटा सके। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि न्यायाधीशों को भ्रष्टता या
अयोग्यता की स्थिति में केवल व्यवस्थापिका के द्वारा विशेष बहुमत से महाभियोग का
प्रस्ताव पास करके ही हटाया जा सके। कार्यपालिका द्वारा न्यायाधीशों की आलोचना भी
नहीं की जानी चाहिए।
(6) न्यायाधीशों के लिए अवकाश
प्राप्ति के बाद व्यवसाय निषेध-शक्ति
के बुरे प्रयोग को रोकने के लिए भी आवश्यक है कि न्यायाधीश को अवकाश प्राप्ति के
बाद वकालत करने के लिए निषेध किया जाए। इस सम्बन्ध में इतनी व्यवस्था तो अवश्य की जानी चाहिए कि एक व्यक्ति जिन
न्यायालयों में न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो, कम-से-कम उन न्यायालयों या उनके
क्षेत्राधिकार में आने वाले अन्य न्यायालयों में वकालत का कार्य न कर सके। इसके
साथ ही अनेक विचारक यह भी सुझाव देते हैं कि जो व्यक्ति एक बार न्यायिक पद प्राप्त
कर चुका हो, उसे किसी भी राजनीतिक या कार्यपालिका
पद के पात्र नहीं समझा जाना चाहिए।
(7) ज्यूरी व्यवस्था-सामान्यतया ज्यूरी की व्यवस्था को न्याय की प्राप्ति
में सहायक ही पाया गया है। इसलिए सभी फौजदारी मामलों में और सार्वजनिक हितों से
सम्बन्धित दीवानी मामलों में ज्यूरी की व्यवस्था होनी चाहिए। ज्यूरी का सदस्य होने
के लिए सम्पत्ति का मालिक होना जरूरी नहीं समझा जाना चाहिए। ज्यूरी के सदस्य को
उचित पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए, जिससे उनकी अपने कार्य में
रुचि रहे। ज्यूरी के निर्णयों, विशेषतया फौजदारी मामलों में
उनके निर्णयों के विरुद्ध अपील की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(8) न्याय में समानता की
व्यवस्था
- न्याय में समानता के लक्ष्य
को प्राप्त किया जाना बहुत आवश्यक है, नहीं तो न्याय धनीमानी वर्ग
की सुविधा बनकर रह जाएगा। न्याय में समानता को प्राप्त करने के लिए दो व्यवस्थाएं
जरूरी हैं—पहली, विशेषाधिकारों की समाप्ति और दूसरी निःशुल्क कानूनी
सहायता की व्यवस्था। वास्तव में, 'मुफ्त कानूनी सहायता' (Free Legal Aid) की व्यवस्था होने पर ही साधारण व्यक्ति
न्याय प्राप्त करने की आशा कर सकता भारत में अभी हाल ही के वर्षों में 'मुफ्त कानूनी सहायता' की व्यवस्था करने की कोशिश
की जा रही है। उपर्युक्त व्यवस्थाएं कर लेने पर ही कानूनी न्याय को प्राप्त
करने की आशा की जा सकती है।

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