स्वतन्त्रता,समानता और न्याय का परस्पर सम्बन्ध…
(RELATION BETWEEN LIBERTY, EQUALITY AND JUSTICE)

JUSTICE
न्याय एक जटिल और विविध पक्षों वाली अवधारणा है। उदारवाद, रूढ़िवाद, मार्क्सवाद और सुधारवाद इन सभी दृष्टियों से न्याय पर विचार
किया जाता है और हर विचारधारा उसकी एक नवीन व्याख्या प्रस्तुत करती है। स्वतन्त्रता
और समानता दोनों का लक्ष्य एक न्यायपूर्ण स्थिति को प्राप्त करना है और इस दृष्टि
से स्वतन्त्रता और समानता को न्याय का महत्वपूर्ण अंग समझा जाता है।

साधारणतया
स्वतन्त्रता और समानता एक दूसरे के पूरक हैं परन्तु किसी विशेष
स्थिति में इन दोनों के बीच टकराव उत्पन्न हो सकता है। इस बात की भी सम्भावना है
कि स्वतन्त्रता के ही विविध पक्षों के बीच किसी प्रकार के संघर्ष की स्थिति
उत्पन्न हो जाए। उदाहरण के लिए 'नागरिक स्वतन्त्रता' और 'आर्थिक स्वतन्त्रता' के बीच टकराव की स्थिति
उत्पन्न हो सकती है। ऐसी प्रत्येक स्थिति में संघर्ष के समाधान का कार्य न्याय की
अवधारणा के आधार पर ही किया जा सकता है। इस प्रसंग में अर्नेस्ट बार्कर
लिखते हैं- “न्याय ही वह अन्तिम
सिद्धान्त है जो स्वतन्त्रता व समानता तथा इन दोनों के विविध दावों के बीच ताल-मेल उत्पन्न करता है।'
स्वतन्त्रता, समानता और न्याय के परस्पर सम्बन्ध का चित्रण इस प्रकार किया
जा सकता है :
स्वतन्त्रता और न्याय—व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक हैं तथा स्वतन्त्रता का लक्ष्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और समाज के सामूहिक हित की साधना होता है। अतः व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक हितों के बीच साधारणतया कोई टकराव नहीं होता। लेकिन व्यवहार में कुछ ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं जब समाज के सामूहिक हित में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करना पड़े। उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की मांग है कि किसी भी व्यक्ति को उस समय तक बन्दी न बनाया जाए जब तक उसने किसी कानून का उल्लंघन न किया हो और गिरफ्तार करने के बाद उस पर मुकदमा चलाते हुए, उसे अपने आप को निरपराध सिद्ध करने का अवसर दिया जाए। लेकिन युद्धकाल अथवा संकट की स्थिति में सरकार शत्रु देश के विदेशियों और अपने ही देश के ऐसे नागरिकों को, जिनसे अपराध की आशंका हो, बिना मुकदमा चलाये जेल में डाल देती है। शासन द्वारा किए गए इस प्रकार के कार्य व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के विरुद्ध हैं लेकिन इनका इस आधार पर समर्थन किया जाता है कि यदि राष्ट्र की एकता, अखण्डता और स्वतन्त्रता के लिए ही संकट उत्पन्न हो गया है तो व्यक्ति के अधिकारों की दुहाई का महत्व क्या है ? ऐसी प्रत्येक स्थिति में न्याय की मांग यह है कि व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से कम-से-कम समय के लिए ही वंचित किया जाए और जैसे ही संकट समाप्त हो जाए या टल जाए, स्वतन्त्रता पर लगाए गए प्रतिबन्ध हटा दिए जाने चाहिए।
राष्ट्रीय संकट के अतिरिक्त अन्य स्थितियों में भी नागरिक स्वतन्त्रताओं को सीमित करने की आवश्यकता अनुभव की जा सकती है। उदाहरण के लिए, मकान-मालिक को इस बात के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वह अपना खाली पड़ा मकान राज्य द्वारा निर्धारित किए गए व्यक्ति को किराये पर दे अथवा होटल के स्वामी को इस बात के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वह हर किसी व्यक्ति का होटल में स्वागत करे। न्याय की मांग है कि राज्य व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की अपेक्षा सामूहिक हितों को अधिक महत्व दे और नागरिक स्वतन्त्रताओं पर ये प्रतिबन्ध इसी आधार पर लगाए जाते हैं। कमजोर व्यक्तियों के हितों की रक्षा तभी सम्भव है जब राज्य इन कमजोर व्यक्तियों के हित में हस्तक्षेप करे और शक्तिशाली व्यक्तियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाए। न्याय की मांग है कि स्वतन्त्रता समाज के किसी एक वर्ग या कुछ विशेष व्यक्तियों को नहीं वरन् समस्त मानव समुदाय को प्राप्त हो। न्याय का सिद्धान्त स्वतन्त्रता को व्यापक बनाने पर बल देता है और इस दृष्टि से स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध की ये स्थितियां न्यायसंगत हैं।
समानता और न्याय-न्याय की अवधारणा समानता के सिद्धान्त की भी पूरक है और इस बात की मांग करती है कि समानता के सिद्धान्त को न्यायसंगत रूप में लागू किया जाना चाहिए। समानता की मांग है कि सभी नागरिकों को बराबर-बराबर अधिकार प्राप्त हों और उनके कर्तव्य भी एक जैसे हों। उदाहरण के लिए, यह सोचा जाता है कि राज्य अपने सभी नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य, आदि के क्षेत्र में समान सुविधाएं प्रदान करे। लेकिन भारत जैसे देश में ऐसे कुछ वर्ग हैं जिन्होंने सदियों से समाज के उच्च वर्गों की यातनाएं सहन की और लम्बे समय तक अभावों की जिन्दगी जीने के कारण आज स्थिति यह है कि उन्हें विकास के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान करने पर ही वे समानता का उपभोग कर सकते हैं। अतः न्याय की मांग है कि उन्हें विकास के लिए विशेष सुविधाएं प्रदान की जाएं और इस प्रकार न्याय का सिद्धान्त वास्तविक रूप में समानता की प्राप्ति का मार्ग बतलाता है।
न्याय : स्वतन्त्रता और समानता की प्राप्ति का साधन – स्वतन्त्रता और समानता आज के जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धान्त
हैं। इन्हें अपनाना उचित और आवश्यक है। लेकिन व्यवहार में स्वतन्त्रता और समानता
के बीच टकराव की स्थिति या स्वतन्त्रता के ही विविध रूपों में टकराव की स्थिति
खड़ी हो सकती है। श्रमिकों द्वारा अधिक मजदूरी की मांग करते हुए हड़ताल, पूंजीपति द्वारा की गई उद्योग की तालेबन्दी, व्यक्ति द्वारा शासन से जुड़े हुए व्यक्तियों पर लगाए गए
भ्रष्टाचार के आरोप, शासन द्वारा लागू की गई निवारक निरोध
कानून की व्यवस्था और शासन द्वारा दलित वर्गों को उनके विकास के लिए प्रदान की गई
विशेष सुविधाएं ऐसी ही स्थितियां हैं। ये दुविधापूर्ण स्थितियां इस समस्या को जन्म
देती हैं कि किस मार्ग को अपनाकर स्वतन्त्रता और समानता दोनों की अधिकतम अंशों में
प्राप्ति सम्भव है। न्याय का सिद्धान्त इस बात की मांग करता है कि ऐसी प्रत्येक
स्थिति में सम्पूर्ण समाज के हित को ही सर्वोपरि समझा जाना चाहिए। स्वतन्त्रता और
समानता के प्रसंग में उत्पन्न होने वाली इन दुविधापूर्ण स्थितियों का समाधान न्याय
के सिद्धान्त के आधार पर ही सम्भव है। प्रो.बार्कर के शब्दों में, “न्याय का सिद्धान्त न केवल व्यक्ति व व्यक्ति के बीच ही
समन्वय पैदा करता है, बल्कि विभिन्न सिद्धान्तों
के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का भी एक साधन है।""
Do leave your comments