राजनीतिक चिन्तन में न्याय की धारणा
(CONCEPT OF JUSTICE IN POLITICAL THOUGHT)
पाश्चात्य और पूर्वात्य, दोनों ही राजनीतिक दर्शनों में न्याय की धारणा को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वस्तुस्थिति यह है कि न्याय न केवल राजनीतिक वरन् नैतिक चिन्तन का भी एक अनिवार्य अंग और बहुत अधिक महत्वपूर्ण आधार है।
पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन में न्याय
का अध्ययन प्लेटो की विचारधारा से प्रारम्भ किया जा सकता है।(The study of justice in Western political thought can be
started with Plato's ideology.) प्लेटो के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'रिपब्लिक' (Republic) का सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषय न्याय की प्रकृति और उसके निवास की खोज करना
ही है। 'रिपब्लिक' में उसकी इस न्याय सम्बन्धी धारणा को इतना प्रमुख स्थान प्राप्त है कि ‘रिपब्लिक' का उपशीर्षक ‘न्याय से सम्बन्धित' (Concerning Justice) रखा गया है। इबेन्स्टीन (Ebenstein) तो लिखते हैं कि “प्लेटो के न्याय
सम्बन्धी विवेचन में उसके राजनीतिक दर्शन के समस्त तत्व शामिल हैं।""
प्लेटो ने न्याय शब्द का प्रयोग
वैधानिक अर्थ में नहीं वरन् नैतिक अर्थ में किया है। उसके द्वारा 'न्याय'(justice) शब्द का प्रयोग धर्म (लौकिक धर्म) के पर्यायवाची अर्थ में किया गया है।
प्लेटो का कहना है कि 'न्याय मानव आत्मा की उचित अवस्था और मानवीय स्वभाव की प्राकृतिक मांग है।' प्लेटो न्याय के दो रूपों का वर्णन करता है—व्यक्तिगत न्याय(personal justice) और सामाजिक या राज्य से सम्बन्धित न्याय(justice releated to social or state) प्लेटो की धारणा थी कि मानवीय आत्मा तीन तत्व या अंश मौजूद हैं—इन्द्रिय तृष्णा या इच्छा तत्व (Appetite), शौर्य (Spirit) और बुद्धि (Wisdom)। इन तीनों तत्वों के प्रतिनिधि के
रूप में राज्य के तीन वर्ग होते हैं, जिन्हें क्रमशः शासक वर्ग, सैनिक या रक्षक
वर्ग और उत्पादक या सेवक वर्ग कहा जाता है। प्लेटो का कहना है कि समाज अथवा राज्य
समाज की आवश्यकता और व्यक्ति की योग्यता को दृष्टि में रखते हुए प्रत्येक व्यक्ति
के लिए कुछ कर्तव्य निश्चित करते हैं और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा सन्तोषपूर्वक
अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना ही न्याय है। प्लेटो के न्याय सिद्धान्त के
सम्बन्ध में बार्कर के विचार हैं, “न्याय का
अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उस कर्तव्य का पालन, जो उसके प्राकृतिक गुणों और सामाजिक स्थिति के अनुकूल है। नागरिक की अपने
धर्म की चेतना तथा सार्वजनिक जीवन में उसकी अभिव्यंजना ही राज्य का न्याय है।""(justice) वास्तव में, प्लेटो ने अपने
न्याय सिद्धान्त का प्रतिपादन एक कानूनी सिद्धान्त के रूप में नहीं, वरन् एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में ही किया है।
प्लेटो के समान अरस्तू भी राज्य के
लिए न्याय को बहुत महत्वपूर्ण मानता है, लेकिन अरस्तू ने न्याय की धारणा का प्रतिपादन प्लेटो से भिन्न रूप में किया
है। अरस्तू ने न्याय के दो भेद माने हैं— (i) वितरणात्मक
या राजनीतिक न्याय (Distributive Justice), (ii) सुधारक न्याय ( Corrective or Rectificatory Justice) | वितरणात्मक न्याय का सिद्धान्त(Theory of
Distributive Justice) यह है कि राजनीतिक
पदों की पूर्ति नागरिकों की योग्यता(Qualifications
of citizens) और उनके द्वारा
राज्य के प्रति की गई सेवा के अनुसार हो । सुधारक न्याय कर तात्पर्य यह है कि एक
नागरिक के दूसरे नागरिक के साथ सम्बन्ध को निर्धारित करते हुए सामाजिक जीवन को
व्यवस्थित रखा जाए।
ऑगस्टाइन न्याय को ईश्वरीय राज्य का
सर्वप्रमुख तत्व मानता है और उसका कथन है कि 'जिन राज्यों में न्याय नही रह जाता वे
डाकुओं के झुण्ड मात्र कहे जा सकते हैं।' ऑगस्टाइन के अनुसार, न्याय एक
व्यवस्थित और अनुशासित जीवन व्यतीत करने तथा उन कर्तव्यों का पालन करने में है
जिनकी कि व्यवस्था मांग करती है।' उसके
द्वारा परिवार, लौकिक
राज्य और ईश्वरीय राज्य के सन्दर्भ में न्याय की विवेचना की गयी है और अन्तिम रूप
में न्याय से उसका आशय व्यक्ति द्वारा ईश्वरीय राज्य के प्रति कर्तव्य पालन से है।
थॉमस एक्वीनास कानून और न्याय को परस्पर
सम्बन्धित मानते हुए न्याय की विवेचना करता है। न्याय के सम्बन्ध में एक्वीनास
प्रधान रूप में रोमन विधिशास्त्रियों के मत का अनुकरण करते हुए कहता है कि यह 'प्रत्येक व्यक्ति
को उसके अपने अधिकार देने की निश्चित और सनातन इच्छा है।' किन्तु इस
सिद्धान्त की व्याख्या उसने यह मान लिया है कि न्याय का मौलिक तत्व समानता (Equality
is the fundamental element of justice.)है।
ऑगस्टाइन तथा एक्वीनास के बाद मध्य युग
तथा आधुनिक युग के पश्चिमी राजनीतिक चिन्तन में न्याय पर विचार व्यक्त किए गए हैं, लेकिन इस सम्बन्ध
में प्राचीन धारणा और आधुनिक सम्बन्ध में आधारभूत अन्तर है। प्राचीन युग में जहां
न्याय की नैतिक दृष्टि से विवेचना की गई है वहां मध्य युग के अन्त और आधुनिक युग
में न्याय की कानूनी दृष्टि से विवेचना की गई है, जिसका अध्ययन आगे किया जाएगा।
भारतीय राजनीतिक चिन्तन में न्याय (Justice in Indian Political Thought) — भारत के प्राचीन
राजनीतिक चिन्तन में न्याय को अधिक महत्व दिया गया है और मनु, कौटिल्य, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज तथा
सोमदेव आदि सभी के द्वारा राज्य की व्यवस्था में न्याय को महत्वपूर्ण स्थान दिया
गया है। इस सम्बन्ध के भारतीय राजनीतिक चिन्तकों की विशेषता यह रही है कि उन्होंने
प्राचीन युग में भी न्याय की उस कानूनी धारणा को अपना लिया था, जिसे पश्चिम के
राजनीतिक चिन्तक आधुनिक युग में ही अपना सके। इस सम्बन्ध में मनु और कौटिल्य के
विचारों का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
मनु की दूरदृष्टि इस बात में है कि
उन्होंने प्राचीन युग में भी विवादों की वे दो श्रेणियां बतला दी थीं, जिन्हें आज
दीवानी और फौजदारी की संज्ञा दी जाती है। मनु ने न्याय की निष्पक्षता और सत्यता पर
अधिक बल दिया है। एक स्थान पर वे लिखते हैं, “जिस सभा (न्यायालय)(Court) में सत्य असत्य
से पीड़ित होता है उनके सदस्य ही पाप से नष्ट हो जाते हैं।" "
कौटिल्य समुचित न्याय प्रणाली को राज्य
का प्राण समझता है और उसका विचार है कि जो राज्य अपनी प्रजा को न्याय प्रदान नहीं
कर सकता, वह शीघ्र ही नष्ट
हो जाता है। उसके अनुसार न्याय का उद्देश्य प्रजा के जीवन तथा सम्पत्ति की रक्षा
करना तथा असामाजिक तत्वों एवं अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले व्यक्तियों को दण्डित
करना है। कौटिल्य अपने 'अर्थशास्त्र' में दो प्रकार के
न्यायालयों का उल्लेख करता है— धर्मस्थीय तथा कण्टक शोधन, जिन्हें वर्तमान
समय के दीवानी तथा फौजदारी न्यायालयों के लगभग समान कहा जा सकता है। उसके द्वारा
न्यायिक संगठन और प्रक्रिया का भी विशद वर्णन किया गया है।(Kautilya
mentions two types of courts in his 'Arthashastra'— theological and concussion, which
can be said to be almost identical to the civil and criminal courts of the
present day. He also elaborates on the judicial organisation and procedure. )
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hi
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