स्वतन्त्रता और कानून का सम्बन्ध (The relationship between freedom and law)
प्रथम
विचार का प्रतिपादन अराजकतावादी, व्यक्तिवादी और कुछ सीमा तक
साम्यवादी विचारधारा द्वारा किया गया है। अराजकतावादियों के अनुसार स्वतन्त्रता का
तात्पर्य व्यक्तियों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है और राज्य
के कानून शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्तियों के इच्छानुसार कार्य करने में
बाधक होते हैं, अतः स्वतन्त्रता और कानून परस्पर
विरोधी हैं। इससे आगे चलकर वे यह भी कहते हैं कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के हित में
राज्य जैसी कानून-निर्मात्री संस्था का अन्त
हो जाना चाहिए। विलियम गाडविन के शब्दों में,
“कानून सबसे
अधिक घातक प्रकृति की संस्था है। '(Law is an institution of
the most deadly nature)
(1) व्यक्तिवादी (Individualist):-
राज्य को एक आवश्यक बुराई समझते हैं। उनका विचार है कि स्वतन्त्रता और कानून परस्पर विरोधी हैं। इसी विचारधारा के आधार पर डायसी ने कहा है कि “एक की मात्रा जितनी अधिक होगी, दूसरे की उतनी ही कम हो जायगी । '
(2) साम्यवादी विचारधारा(Communist ideology):-
के अन्तर्गत भी कानून
को उच्च वर्ग के हितों को लाभ पहुंचाने का एक साधन कहा गया है और इसी कारण
वर्गविहीन समाज की आदर्श अवस्था में राज्य के विलुप्त हो जाने की कल्पना की गयी
है।
अराजकतावाद, व्यक्तिवाद और साम्यवाद की धारणा(Notions of Anarchism, Individualism and Communism)
किन्तु
वर्तमान समय में स्वतन्त्रता और कानून के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर अराजकतावाद, व्यक्तिवाद और साम्यवाद की धारणा(Notions of Anarchism, Individualism and Communism) को स्वीकार नहीं किया जाता। वर्तमान समय में तो उपर्युक्त धारणा के
नितान्त विपरीत इस विचार को मान्यता प्राप्त है कि कानून स्वतन्त्रता को सीमित
नहीं करते,
वरन् स्वतन्त्रता की रक्षा करते और उसमें वृद्धि करते
हैं। लॉक के शब्दों में “जहाँ कानून नहीं
होता,
वहाँ स्वतन्त्रता भी नहीं हो सकती है।" विलोबी
के अनुसार,
"जहाँ नियन्त्रण होते हैं, वहीं स्वतन्त्रता का अस्तित्व होता है।" मत को स्पष्ट करते हुए प्रो. रिची
ने कहा है कि "व्यक्तित्व के विकास के
यथार्थ अवसर के रूप में स्वतन्त्रता कानून की उत्पत्ति अथवा परिणाम ही है। वह कोई
ऐसी वस्तु नहीं है जिसका अस्तित्व राज्य के कार्य-क्षेत्र से बाहर हो।" लॉक
और प्रो. रिची से आगे बढ़कर
हॉकिंग ने तो यहाँ तक कहा है कि "व्यक्ति
जितनी अधिक स्वतन्त्रता चाहता है, उतनी अधिक सीमा तक उसे
शासन की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए।
लॉक, विलोबी, रिची, हॉकिंग आदि विद्वानों द्वारा व्यक्त विचार बहुत कुछ सीमा तक
सही हैं और कानून निम्नलिखित तीन प्रकार से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते
और उसमें वृद्धि करते हैं :
(1) राज्य के कानून व्यक्ति की
स्वतन्त्रता की अन्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं यदि समाज के
अन्तर्गत किसी भी प्रकार के कानून न हों तो समाज के शक्तिशाली व्यक्ति निर्बल
व्यक्तियों पर अत्याचार करेंगे और संघर्ष की इस अनवरत प्रक्रिया में किसी भी
व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं रहेगी।
(2) कानून व्यक्ति की स्वतन्त्रता की
राज्य के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं— साधारणतया
वर्तमान समय के राज्यों में दी प्रकार के कानून होते हैं- साधारण कानून और संवैधानिक कानून। इन दोनों प्रकार के कानूनों
में से संवैधानिक कानूनों द्वारा राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को
रक्षित करने का कार्य क्रिया जाता है। भारत और अमरीका आदि देशों के संविधानों में
मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था है, वह इस सम्बन्ध में श्रेष्ट
उदाहरण है। यदि राज्य इन मौलिक अधिकारों (संवैधानिक
कानूनों) के विरुद्ध कोई कार्य करता
है तो व्यक्ति न्यायालय की शरण ले, राज्य के हस्तक्षेप से अपनी
स्वतन्त्रता की रक्षा कर सकता है।
(3) स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप (Negative forms of freedom) :-
के
अतिरिक्त इसका एक सकारात्मक स्वरूप भी होता है। इसका तात्पर्य है व्यक्ति की
व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना। कानून व्यक्तियों को
व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्रदान करते हुए उनकी स्वतन्त्रता में वृद्धि
करते या दूसरे शब्दों में इन्हें सकारात्मक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। वर्तमान
समय में लगभग सभी राज्यों द्वारा जनकल्याणकारी राज्य के विचार को अपना लिया गया है
और राज्य कानूनों के माध्यम से ऐसे वातावरण के निर्माण में संलग्न है जिसके
अन्तर्गत व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकें। राज्य द्वारा की गयी
शिक्षा की व्यवस्था, अधिकतम श्रम और न्यूनतम वेतनों के
सम्बन्ध में कानूनी व्यवस्था, कारखानों में स्वस्थ जीवन की
सुविधाओं की व्यवस्था और जनस्वास्थ्य का प्रबन्ध, आदि
कार्यों द्वारा नागरिकों को व्यक्तित्व के विकास की सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं
और इस प्रकार राज्य नागरिकों को वह सकारात्मक स्वतन्त्रता प्रदान कर रहा है जिसे
ग्रीन ने 'करने योग्य कार्यों को करने की
स्वतन्त्रता' के नाम से पुकारा है।
यदि
राज्य सड़क पर चलने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के नियमों का निर्माण करता है, मद्यपान पर रोक लगाता या अनिवार्य शिक्षा और टीके की व्यवस्था
करता है, तो राज्य के इन कार्यों से व्यक्ति
की स्वतन्त्रता सीमित नहीं होती, वरन् उसमें वृद्धि ही होती
है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साधारण रूप से राज्य के कानून व्यक्तियों की
स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं और उसमें वृद्धि करते हैं।
सभी
कानून स्वतन्त्रता के साधक नहीं—लेकिन
राज्य द्वारा निर्मित सभी कानूनों के सम्बन्ध में इस प्रकार की बात नहीं कही जा
सकती है कि वे मानवीय स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं। यदि शासक वर्ग अपने ही
स्वार्थी को दृष्टि में रखकर कानूनों का निर्माण करता है, जनसाधारण के हितों की अवहेलना करता है और बिना किसी विशेष
कारण के व्यक्तियों की नागरिक स्वतन्त्रता सीमित करता है तो राज्य के इन कानूनों
व्यक्तियों की स्वतन्त्रताएँ सीमित ही होती हैं। उदाहरणार्थ, हिटलर और मुसोलिनी के द्वारा जिन कानूनों का निर्माण किया गया
था, उनमें से अधिकांश व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता के विरोधी थे। इसी प्रकार आज के तानाशाही राज्यों द्वारा भी जब नागरिक
स्वतन्त्रताओं पर प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं,
तब ये कानून
व्यक्तियों की स्वतन्त्रता को सीमित ही करते हैं।
इस
प्रकार हम देखते हैं कि सभी कानून नागरिकों की स्वतन्त्रता में वृद्धि नहीं करते, वरन् ऐसा केवल उन्हीं कानूनों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है
जिनके सम्बन्ध में लॉस्की के शब्दों में “व्यक्ति
यह अनुभव करते हैं कि मैं उन्हें स्वीकार कर सकता और उनका पालन कर सकता हूँ।"
उपर्युक्त
विवेचना से स्पष्ट होता है कि यदि राज्य का कानून जनता की इच्छा पर आधारित है तो
स्वतन्त्रता का पोषण होगा और यदि वह निरंकुश शासन की इच्छा का परिणाम है तो
स्वतन्त्रता का विरोधी हो सकता है।

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