Political, social and economic justice in the Indian Constitution

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 भारतीय संविधान में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था

Political, social and economic justice in the  Indian Constitution.

भारतीय संविधान में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था   Political, social and economic justice in the  Indian Constitution.
भारतीय संविधान में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की व्यवस्था(Political, social and economic justice in the  Indian Constitution) भारतीय संविधान में न्याय के आदर्श की वही भूमिका है, जो मन्दिर में मंगलकलश की होती है। संविधान निर्माताओं द्वारा इस तथ्य को समझ लिया गया है कि सच्चे लोकतन्त्र के लिए स्वतन्त्रता और समानता की ही नहीं, वरन् न्याय की भी आवश्यकता है क्योंकि न्याय के बिना स्वतन्त्रता और समानता के आदर्श बिल्कुल व्यर्थ हो जाते हैं। संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना संविधान का लक्ष्य घोषित किया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। सर्वप्रथम राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के लिए लोकतान्त्रिक व गणतन्त्रीय व्यवस्था को अपनाया गया है और संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को 6 स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं।(Article 19 of the Constitution provides 6 freedoms to the citizens.)

 

भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के आदर्श को अनेक रूपों में स्वीकार किया गया है। संविधान के तीसरे भाग (मौलिक अधिकार) और चौथे भाग (राज्य की नीति के निर्देशक तत्व) में सामाजिक न्याय की प्राप्ति के कानून के सामने लिए विविध उपायों का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 14(Article 14)  में भारत के सभी नागरिकों को समानता और कानूनों से समान सुरक्षा प्रदान की गई है। अनुच्छेद 15(Article 15) में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव की मनाही की गई है और अनुच्छेद 16(Article 16)  के द्वारा राज्य के अधीन पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को अवसर की समानता प्राप्त है। अनुच्छेद 17(Article 17)  द्वारा छुआछूत का तथा अनुच्छेद 23 व 24(Articles 23 and 24)  द्वारा बेगार व शोषण का अन्त कर दिया गया है। संविधान के उपर्युक्त अनुच्छेदों द्वारा तो सामाजिक न्याय के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर किया गया है और संविधान के नीति निदेशक तत्वों के अन्तर्गत विशेषतया अनुच्छेद 41 से 47(Articles 41 to 47)  तक जो विविध व्यवस्थाएं की गई हैं, उसका लक्ष्य सकारात्मक रूप में सभी नागरिकों को सामाजिक न्याय प्रदान करना है। अनुच्छेद 41(Article 41)  में नागरिकों का कुछ अवस्थाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार स्वीकार किया गया है, अनुच्छेद 42(article 42) राज्य को जिम्मेदारी सौंपता है कि वह काम की उचित दशाएं बनाये रखने का प्रयत्न करेगा। अनुच्छेद 43(article 43) श्रमिकों के लिए निर्वाह योग्य मजदूरी का प्रबन्ध, अनुच्छेद 44(Article 44)  नागरिकों के लिए समान व्यवहार संहिता, अनुच्छेद 45(Article 45) बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था, अनुच्छेद 46 अनुसूचित जातियों तथा अन्य सभी दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी उन्नति और अनुच्छेद 47(article 47) में सामान्य जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की बात कही गई है।

संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विशेष सुविधाएं प्रदान की गई हैं, उन्हें किसी भी प्रकार से सामाजिक न्याय के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में, भारत के इन दलित वर्गों की स्थिति बहुत अधिक गिरी हुई थी और जब तक इन्हें विशेष स्थिति प्रदान न कर दी जाए, तब तक उनके द्वारा समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ समानता प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती।

इसी प्रकार आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी संविधान के नीति निदेशक तत्वों में विविध कार्य करने का निर्देश किया गया है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख व्यवस्थाएं इस प्रकार हैं— (1) राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा और प्रत्येक नागरिक को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा। (ii) राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक-से-अधिक सार्वजनिक हित हो सके। (iii) राज्य इस बात का भी ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार से केन्द्रीकरण न हो सके कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार की हानि पहुंचे। (iv) राज्य श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न होने देगा । (v) राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें एवं बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंगहीनता, आदि दशाओं में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सकें।

भारत के शासक दल द्वारा समाजवादी ढंग के समाज और लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना अपना लक्ष्य घोषित किया गया है और अब तक की पंचवर्षीय योजनाएं इस दिशा में आगे बढने के प्रयास में रही है।

लेकिन संविधान और शासन द्वारा की गई इन सभी घोषणाओं के बावजूद यह मानना होगा कि सामाजिक और में अभी अधिक किया जाना तुलना किया गया है उसकी जो आर्थिक न्याय की दिशा में अभी तक शेष है।

 

 

आर्नाल्ड ब्रैचट और न्याय की धारणा'

(Arnold Brecht and Conception of Justice )

आर्नाल्ड ब्रैचट और न्याय की धारणा' (Arnold Brecht and Conception of Justice )राजनीति विज्ञान के आधुनिक विद्वानों में सबसे अधिक प्रमुख रूप में अर्नाल्ड ब्रैचट के द्वारा अपनी पुस्तक " Poltical Theory" में न्याय के सिद्धान्त की विवेचना की गई है। उनका कथन है कि न्याय की धारणा वांछित स्थिति के प्रति हमारे स्वभाव पर निर्भर करती है और यह तो एक ऐसे बर्तन की भांति है, जिसके कई तल होते हैं। न्याय के सम्बन्ध में हमारी धारणा या तो सभ्य जीवन की परम्परागत संस्थाओं पर आधारित होती है अथवा वह परम्परागत संस्थाओं से आगे बढ़ जाती है। प्रथम स्थिति में उसे परम्परागत न्याय और दूसरी स्थिति में उसे अपरम्परागत न्याय कहा जा सकता है।

Read the न्याय की धारणा (Concept of Justice) 👇👇👇

(Concept of Justice)                                      👈👈

1. परम्परागत न्याय (Traditional Justice )न्याय की परम्परागत धारणा रीति-रिवाज, प्रथाओं और परम्पराओं पर आधारित होती है। यह उन मूलभूत संस्थाओं को स्वीकार करती है जो हमारे दैनिक सामाजिक जीवन की आधार हैं। इस प्रकार की मूलभूत संस्थाओं या प्रथाओं में प्रमुखतया निम्न पांच हैं—एक पत्नी विवाह प्रथा, परिवार, निजी सम्पत्ति, पैतृक धन के सम्बन्ध में उत्तराधिकार की व्यवस्था तथा समझौता करने की स्वतन्त्रता और समझौते की बाध्यकारी शक्ति। परम्परागत न्याय की धारणा उस मन्दिर में निहित है, जो इन पांच आधारों पर टिका हुआ है। उसमें इन संस्थाओं के औचित्य को कोई चुनौती नहीं दी जाती है। जब व्यक्ति इन आधारभूत संस्थाओं के अनुसार आचरण करता है, तब वह न्याय भावना के अनुसार होता है और जब इनका उल्लंघन होता है, तब यह न्यायसंगत नहीं होता है।

ब्रैचट के अनुसार इस परम्परागत न्याय भावना में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं— (i) व्यक्ति ज्ञानपूर्वक या अज्ञानपूर्वक ढंग से परम्परागत संस्थाओं को अपने तर्क में स्वीकार करता है। (ii) व्यक्ति इनका प्रयोग क्रमिक तर्क और पूर्व कल्पनाओं को प्राप्त करने के लिए करता है। (iii) वह निश्चितता और औचित्य बनाये रखने वाले नियमों और विनियमों को स्वीकार करता है। (iv) वह इन संस्थाओं की आलोचना के विरुद्ध तर्क करता है।

2. अपरम्परागत न्याय (Trans-traditional Justice )जब हम न्याय की परम्परागत संस्थाओं को स्वीकार करने के बजाय उनकी अपने दृष्टिकोण से आलोचना करते और मूल्यांकन करते हैं, तब हम अपरम्परागत न्याय की धारणा में प्रवेश करते हैं। इसके अन्तर्गत निश्चित और पहले से चली आ रही परम्परागत संस्थाओं से व्यक्ति अपने आपको अलग कर लेता है और इनकी आलोचना न्याय के सम्बन्ध में अपनी धारणा और विश्वास के आधार पर करता है। वह अपनी धारणा और विश्वास के आधार पर कल्पना करता है कि कौन-सी उपयोगी परिस्थितियां हो सकती हैं, जिनकी ओर समाज को बढ़ना चाहिए, जिससे कि न्यायपूर्ण जीवन के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। वह विचार करता है कि अनेक महत्वपूर्ण उद्देश्यों में कौन-सा उद्देश्य उपयुक्त है और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कौन-से साधन उपयुक्त हैं।

अपरम्परागत न्याय के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न समयों पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा न्याय को अलग-अलग मापदण्डों के आधार पर परखा गया और जांचा गया है। दार्शनिक काण्ट ने कहा है कि यदि पृथ्वी पर कोई परम मूल्यवान वस्तु है, तो वह व्यक्ति का गौरव और महत्व है। 19वीं सदी में व्यक्तिवादियों ने केवल व्यक्ति की भलाई को ही न्यायसंगत माना, जबकि संघवादियों के लिए संघ की भलाई ही न्यायसंगत है। वास्तव में, न्याय क्या है, यह व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत धारणा पर निर्भर करता है।

विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए भिन्न-भिन्न मूल्य न्यायपूर्ण हैं। कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके

मूल्यों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है :

(The values can be mentioned as follows:)

 

राजनितिक दल                          प्रमुख न्याय मूल्य

(1) लोकतन्त्रवादी                      बहुमत

(2) समाजवादी                         समानत

(3) उदारवादी                          स्वतन्त्रता

(4) परम्परावादी                       परम्परा, राष्ट्रीय एकता और शक्ति

(5) राष्ट्रवादी                           राष्ट्र

(6) धार्मिक दल                        ईश्वरीय कथन

(7) यथार्थवादी                          सत्ता

(8) फासिस्टवादी व नाजी पार्टी         नेतृत्व, समूह एवं राष्ट्र

(9) उपयोगितावादी                        प्रसन्नता, उपयोगिता

(10) स्वतन्त्रतावाद                     सभ्यता, प्रसन्नता, एकता, शान्ति तथा अनुरूपता

इस प्रकार प्रत्येक दल अपनी विचारधारा के दृष्टिकोण से न्याय का मापदण्ड रखता है और इनमें से कौन-सा विचार ठीक है, यह निर्णय कर सकना निश्चित रूप से बहुत अधिक कठिन है।


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