JAWAHARLAL NEHRU(जवाहरलाल नेहरू)
JAWAHARLAL NEHRU (1889 से 1964)
जवाहरलाल नेहरू (1889 से 1964)
हमारी संस्कृति,
सभ्यता व राष्ट्रीयता के प्रतीक पं. जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र देश
के प्रधानमन्त्री के रूप में सदैव अविस्मरणीय रहेंगे। उन्होंने स्वयं को राष्ट्रीय
जीवन से इतना आत्मसात् कर लिया था कि उनके बिना हमारे लिए स्वतन्त्र भारत की
कल्पना भी निरर्थक है । स्वतन्त्रता व जनतन्त्र के पुजारी, शान्ति
के अग्रदूत तथा एक कर्मठ जननायक के रूप में भारत की आगे आने वाली पीढ़ियां उनसे
निरन्तर प्रेरणा लेती रहेंगी। उनके जीवन और कार्यों का गहरा प्रभाव हमारे चिन्तन,
हमारे सामाजिक संगठन और हमारे बौद्धिक विकास पर पड़ा है। उन्होंने
जिस तरह से इस शोषित व पीड़ित देश का नव-निर्माण किया उसका उदाहरण किसी देश के
इतिहास में मिलना कठिन है।
नेहरू की प्रतिभा के अनेक पक्ष अब
इतिहास का अंग बन चुके हैं, किन्तु हम
इस महान राजनेता के आदर्शों और नीतियों को तब तक नहीं समझ पायेंगे, जब तक हम उस दर्शन को न समझ लें, जो इन आदर्शों और
नीतियों में अन्तर्निहित था और यह न जान लें कि किस प्रकार इसने उनके विचारों के निर्माण
में सहायता की।
जवाहरलाल नेहरू : जीवन परिचय
(JAWAHARLAL NEHRU : LIFE HISTORY)
जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14
नवम्बर, 1889 को इलाहाबाद में एक ऐसे कश्मीरी
परिवार में हुआ था जो वैभव और प्रभाव की दृष्टि से बहुत ऊंचा माना जाता था। उनके
पिता पं. मोतीलाल नेहरू अपने समय के माने हुए वकील थे जिन्होंने अपने विशिष्ट
ज्ञान और तर्कशक्ति के बल पर बहुत धन कमाया तथा ऐशो-आराम में जीवन व्यतीत किया।
उनके रहन-सहन पर पाश्चात्य सभ्यता का पूरा प्रभाव था। बालक जवाहरलाल का लालन-पालन
भी ऐसी ही वैभवपूर्ण परिस्थितियों में हुआ। पिता जहां पाश्चात्य रहन-सहन से
प्रभावित थे, उनकी माता स्वरूपरानी की हर सांस में भारतीय
संस्कृति बसी हुई थी। इस प्रकार एक अनोखे वातावरण में बालक नेहरू का बचपन बीता।
नेहरू की 12
वर्ष की आयु तक की प्रारम्भिक शिक्षा घर में ही हुई। घर पर ही इनके
लिए अंग्रेज और आयरिश शिक्षक रखे गये। इन्हीं में से एक थे मिस्टर ब्रुक्स जिनका
नेहरूजी के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने ही बचपन में नेहरू के दिल में
मानवतावादी विचारों का बीज बोया। बाद में उन्हें इंगलैण्ड भेज दिया, जहां से बी. ए. ऑनर्स तथा बैरिस्टरी पास करके जब 1892 में स्वदेश लौटे तब अपने पिता के साथ उन्होंने वकालत शुरू कर दी। इस बीच
मोतीलाल जी ने राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया था।
कुछ भारतीय राजनीतिक रंचमंच पर जवाहरलाल नेहरू का आविर्भाव धीमी गति से हुआ, परन्तु उनका प्रभाव अमिट था। 1926 तक उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में कोई खास योगदान नहीं किया। वे केवल संकोचपूर्वक गांधीजी का ही अनुसरण करते रहे। 1926 में वे यूरोप गये, जहां वे लगभग 9 मास तक रहे। अपनी यूरोप यात्रा के बीच 1927 में उन्होंने ब्रुसेल्स में समाजवादियों एवं साम्यवादियों की कांग्रेस में भाग लिया, जिसका प्रभाव उनके मन पर गहरा पड़ा और उनकी समाजवाद में आस्था पक्की हो गयी। नवम्बर 1927 में उन्होंने रूस की यात्रा भी की। 1927 और 1930 के मध्य नेहरू के समाजवादी चिन्तन का पर्याप्त विकास हुआ और यह उनकी राष्ट्रवादी विचार प्रणाली का मुख्य आधार बन गया।
में उन्होंने कांग्रेस सन् 1929
में जवाहरलाल को कांग्रेस का सभापति चुन लिया गया। दिसम्बर 1929
के लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता की तथा पूर्ण स्वतन्त्रता को भारत का
अपरिवर्तनीय लक्ष्य बना दिया। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने दृढ़तापूर्वक
स्पष्ट कर दिया कि भारतीयों की स्वतन्त्रता का अर्थ 'ब्रिटिश
प्रभुत्व और ब्रिटिश साम्राज्यवाद' से पूर्ण स्वतन्त्रता है।
31 दिसम्बर, 1929 को अर्द्ध-रात्रि के
तुरन्त बाद उन्होंने रावी के किनारे (लाहौर में) तिरंगा फहराकर भारत के लिए पूर्ण
आजादी का संकल्प दोहराया। यह राष्ट्रीय नीतियों में नेहरू की प्रमुख विजय थी ।
1934 में कांग्रेस के बम्बई
अधिवेशन में उन्होंने स्वतन्त्र भारत के लिए संविधान बनाने के उद्देश्य से संविधान
सभा बुलाने का एक प्रस्ताव पेश किया जिसे कांग्रेस ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर
लिया। पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग को दृष्टिगत रखकर ही नेहरू ने 1935 का भारत सरकार अधिनियम अस्वीकार कर दिया और उसे दासता का एक नया अध्याय
बताया। गांधीजी के 1940 के व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन
में उन्होंने भाग लिया। 1942 में राष्ट्रीय आन्दोलन तीव्र हो
गया। अन्य नेताओं के साथ श्री जवाहरलाल नेहरू को भी गिरफ्तार कर लिया गया और
उन्हें अहमदनगर जेल में भेज दिया गया। अहमदनगर जेल में वे लगभग तीन वर्ष तक रहे और
वहां उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'भारत की खोज'
(Discovery of India) की रचना की। अगस्त 1846 में
वायसराय लॉर्ड वैवेल ने श्री नेहरू से केन्द्र में अन्तरिम सरकार बनाने के लिए
कहा। 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान
निर्मात्री सभा में उन्होंने अन्तरिम सरकार के अध्यक्ष के रूप में ‘उद्देश्य प्रस्ताव' रखा, जिसके
द्वारा भारत की आन्तरिक एवं बाह्य नीतियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। इस
उद्देश्य प्रस्ताव के द्वारा उनकी प्रजातन्त्र एवं समाजवाद में आस्था परिलक्षित
होती है। 15 अगस्त, 1947 को जब विभाजन
की कीमत पर देश को आजादी मिली तो जवाहरलाल स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री
बने तथा 27 मई, 1964 के दिन तक अर्थात्
अपनी मृत्यु के समय तक इस पद पर रहे। लगभग 17 वर्षों के अपने
कार्यकाल में उन्होंने स्वतन्त्र भारत को एक सबल आर्थिक और राजनीतिक स्वरूप प्रदान
किया। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को जमाने का श्रेय उन्हीं को
जाता है।
नेहरू की रचनाएं
(WORKS OF NEHRU)
जवाहरलाल नेहरू न केवल राजनीतिज्ञ एवं
स्वाधीनता सेनानी ही थे अपितु एक दार्शनिक विचारक एवं विद्वान भी थे। उनकी प्रमुख
रचनाएं इस प्रकार हैं : विश्व इतिहास की झलक (Glimpses of World
History, 1934); आत्मकथा (An Autobiography, 1936); भारत की खोज (The Discovery of India, 1947); आदि
नेहरू के चिन्तन के दार्शनिक आधार
(PHILOSOPHICAL BASES OF NEHRU'S THOUGHT)
नेहरू का चिन्तन उनके पिता मोतीलाल
नेहरू, महात्मा गांधी, ऐनी
बीसेण्ट, ब्रुक्स, रसेल, कार्ल मार्क्स, आइन्सटीन, आदि
से प्रभावित था। मोतीलाल पश्चिमी ढंग से रहते थे और वह धर्मानुवर्ती नहीं थे तथा
जहां तक धार्मिक कट्टरता का सम्बन्ध है, वे उसके विरोधी थे।
नेहरू के चिन्तन और व्यवहार को प्रभावित करने में सबसे अधिक निर्णायक भूमिका
महात्मा गांधी की रही। गांधी से उन्होंने सत्याग्रह, अहिंसा,
शान्ति और नैतिकता से परिपूर्ण राजनीति का पाठ पढ़ा। श्रीमती एनी
बीसेण्ट के प्रभाव से ही उनकी रुचि थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रति बढ़ी। वे बर्नार्ड
शॉ और वैब्स के फेबियनिज्म और बर्ट्रेण्ड रसेल तथा जॉन मेनार्ड कीन्स की बौद्धिक
जागरूकता से भी प्रभावित हुए थे। कार्ल मार्क्स के भौतिकवादी विचारों का प्रभाव उन
पर पड़ा, लेकिन वे पूर्ण भौतिकवादी कभी नहीं बन सके।
नेहरू पर बुद्ध और ईसा के विचारों का
भी प्रभाव पड़ा। उन्होंने बुद्ध और ईसा के समान ही मानव आदर्शों और नैतिकता की
शक्ति में विश्वास प्रकट किया। उन पर गीता का भारी प्रभाव था,
गीता के कर्म के सन्देश को उन्होंने अपने जीवन में उतारा था।
जवाहरलाल कट्टर अथवा उग्र नास्तिक अथवा
भौतिकवादी नहीं थे, किन्तु वे
अध्यात्मवादी भी नहीं थे। उन्होंने तत्वशास्त्र और ज्ञानशास्त्र की सूक्ष्म तथा
जटिल समस्याओं पर विवाद में उलझने से इंकार कर दिया।
नेहरू का मानस –
जवाहरलाल नेहरू का व्यक्तित्व वास्तव में अत्यन्त दुर्बोध्य था। अनेक व्यक्तियों,
विचारों एवं भावधाराओं ने उन्हें जीवन में छुआ था। स्वभाव से भावुक
एवं निष्ठावान होते की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण था। एक-दूसरे से
विपरीत विचारधाराओं के प्रभाव एवं सम्मिश्रण के कारण ही उनका व्यक्तित्व ऐसा उलझा
हुआ प्रतीत होता है कि वह भारतीयों एवं पाश्चात्य विद्वानों के लिए एक पहेली बन
गया था।
वास्तव में,
श्री नेहरू का व्यक्तित्व अपने में पूर्णतः नवीन था। वे एक ऐसे
राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राजनीतिक
सिद्धान्तों की अपेक्षा उनके व्यावहारिक स्वरूप को संवारने में लगा दिया। साथ ही,
सैद्धान्तिक पक्ष भी उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुआ। अपने असीमित
अध्ययन एवं दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण निश्चय ही वे वर्तमान समस्याओं को उनकी
सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के आधार पर तोलते थे। एक राजनीतिज्ञ होते हुए भी, वे मैकियाविलियन टाइप की राजनीति से दूर थे। धर्म के प्रति अधिक आस्था न
भी निजी एवं सार्वजनिक जीवन में वे नैतिक मूल्यों को स्वीकार करते थे। गांधीजी के
प्रति श्रद्धा रखते हुए तथा उनके (गांधीजी) 'आदर्श की
प्राप्ति हेतु श्रेष्ठ साधन ही उपयुक्त है' के सिद्धान्त को
स्वीकार करते हुए भी वे गांधीजी के जीवन के प्रति आध्यात्मिक एवं धार्मिक
दृष्टिकोण के सिद्धान्तों के प्रति सदैव उदासीन रहे। इसी प्रकार, मार्क्स के समाजवाद के प्रति आकृष्ट होकर भी, उन्होंने
मार्क्स के समग्र दर्शन को कभी भी अंगीकार नहीं किया। स्वभाव से वे हिंसा में
विश्वास नहीं करते थे, अतः मार्क्सवाद उन्हें त्रुटिपूर्ण
दिखायी दिया। सभी समस्याओं को उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास
किया। इस प्रकार उनका व्यक्तित्व अनेक विरोधी तत्वों एवं विचारधाराओं का सम्मिश्रण
था। इस विरोधाभास के रहते हुए भी, यदि हम उनकी प्रमुख
भावनाओं एवं आशाओं को दृष्टि में रखकर उनके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करें,
तो उनकी जीवन एवं देश के प्रति आशाओं, भावनाओं
एवं क्रिया-कलापों का चित्र हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है।
जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक एवं आर्थिक विचार
(POLITICAL AND ECONOMIC IDEAS OF NEHRU)
(1 नेहरू और समाजवाद
(Nehru and
Socialism) —
नवम्बर 1927 में नेहरू ने सोवियत संघ
की संक्षिप्त यात्रा की। उस यात्रा के दौरान उन्होंने स्वयं आंखों से उस देश की उन
महान उपलब्धियों को देखा जो उसने शिक्षा, स्त्री उद्धार तथा
किसानों की दशा के सुधार के क्षेत्र में प्राप्त की थीं। रूस से लौटने के बाद
उन्होंने समाजवाद के विचारों को लोकप्रिय बनाने का कार्य आरम्भ कर दिया। 1936
में कांग्रेस के लखनऊ में हुए अधिवेशन में उन्होंने कहा—“मैं इस नतीजे पर पहुंच गया हूं कि दुनिया की समस्याओं और भारत की समस्याओं
का समाधान समाजवाद में ही निहित है और जब मैं इस शब्द 'समाजवाद'
को इस्तेमाल करता हूं, तो किसी अस्पष्ट,
मानवीयतावादी अर्थ में नहीं बल्कि एक वैज्ञानिक, आर्थिक क्षेत्र में।” किन्तु समाजवाद एक आर्थिक
सिद्धान्त से भी बढ़कर कुछ है : "यह जीवन का एक दर्शन
है और इस रूप में यह मुझे भी भाता है। भारत की जनता की कंगाली, जबर्दस्त बेरोजगारी, दयनीयता और गुलामी को दूर करने
का मैं समाजवाद के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं देख पाता हूं। इसका मतलब है कि
हमें अपने राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में बहुत बड़े क्रान्तिकारी परिवर्तन करने
होंगे, जमीनों और उद्योग-धन्धों का शिकंजा जमाये बैठे निहित
स्वार्थी को और साथ ही, सामन्ती तथा निरंकुशतावादी भारतीय
रजवाड़ों की व्यवस्था को भी खत्म करना होगा। इसका मतलब है कि—सिवाय एक सीमित अर्थ
में-निजी सम्पत्ति को समाप्त करना होगा और मुनाफे खड़े करने की मौजूदा व्यवस्था की
जगह, सहकारी सेवा के उच्चतर आदर्श को स्थापित करना होगा,
इसका मतलब है कि अन्ततः हमें अपनी आदतों और इच्छाओं में परिवर्तन
करना होगा। इसका मतलब है, एक नयी सभ्यता को कायम करना,
जो मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था से मूलतः भिन्न होगी ।"
"
इस प्रकार जवाहरलाल नेहरू के लिए
समाजवाद केवल आर्थिक प्रणाली नहीं थी वह एक जीवन दर्शन था। समाजवाद न केवल भारत से
कंगाली, बेरोजगारी, निरक्षरता, बीमारी और गन्दगी मिटाने के लिए ही जरूरी
था, वरन् मानव व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए भी जरूरी
था। सुभाषचन्द्र बोस को 1939 में लिखे एक पत्र में नेहरू ने
कहा था : “मैं समझता हूं कि स्वभाव और प्रशिक्षण से मैं एक
व्यक्तिवादी और 1 जवाहरलाल नेहरू, इण्डिया
एण्ड दि वर्ल्ड
बौद्धिक रूप से एक समाजवादी हूं
(I am intellectually a
socialist.)—फिर
इस सबका कुछ भी मतलब क्यों न हो। मैं आशा करता हूं कि समाजवाद मानव व्यक्तित्व को
कुचलता या नष्ट नहीं करता मैं तो दरअसल उसकी ओर इसलिए आकर्षित हूं कि वह अगणित
मनुष्यों को आर्थिक और सांस्कृतिक दासता के बन्धनों से मुक्त करेगा।”"
स्वाधीनता के पश्चात् नेहरू ने अपनी
पूरी शक्ति से समाजवादी आधार पर भारत के निर्माण का कार्य आरम्भ किया। अपने
समाजवादी विचारों को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने नियोजन का सहारा लिया। उनके
अनुसार नियोजन का उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना था। अवाड़ी और नागपुर
में कांग्रेस महासमिति के अधिवेशनों में जो प्रस्ताव पेश हुए वे नेहरू द्वारा
प्रेरित थे। वहीं कांग्रेस महासमिति ने यह निर्णय लिया कि
“नियोजन समाजवादी समाज की स्थापना के उद्देश्य से होना चाहिए,
जहां उत्पादन के प्रमुख साधन सामाजिक स्वामित्व एवं नियन्त्रण के
अन्तर्गत होंगे और जहां राष्ट्रीय सम्पदा का समान वितरण होगा।” भूमि सुधार सम्बन्धी नागपुर प्रस्ताव में भूमि की अधिकतम सीमा के निर्धारण
और संयुक्त सहकारिताओं पर बल दिया गया। इस प्रकार कांग्रेस श्री नेहरू के गतिशील
नेतृत्व में भारत को लोकतन्त्रीय समाजवादी समाज बनाने की दिशा में बढ़ चली।
यहां श्री नेहरू के आर्थिक विचारों के
सम्बन्ध में, जो समाजवादी विचारधारा से
ओत-प्रोत थे, स्पष्ट कर देना आवश्यक है। वे अर्थशास्त्र की
उदारवादी श्रेणी में विश्वास नहीं करते थे, यद्यपि
स्वतन्त्रता सम्बन्धी उनके विचार पर्याप्त मात्रा में उदारवादी थे। न तो वे रिकार्डो
की भांति आर्थिक क्षेत्र में अहस्तक्षेप की नीति के समर्थक थे और न ही वे
अर्थशास्त्र की फिजिओक्रेटिक पद्धति में विश्वास करते थे। उनके विचार बहुत कुछ
जर्मन समाजवादी वैगनर, श्मोलर तथा कीन्स से मिलते-जुलते थे।
उद्योगों को राजकीय सहायता के समर्थन के साथ-साथ वे आर्थिक विकास में व्यक्तिगत
अथवा दलित क्षेत्र के महत्व को भी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे।
श्री नेहरू का सम्पूर्ण आर्थिक दर्शन
समाजवादी विचारधारा पर आधारित था और उनका समाजवाद केवल आर्थिक संगठन का साधन मात्र
न होकर एक जीवन का दर्शन था। वे मैक्स एडलर की भांति समाजवादी थे। श्री नेहरू की
दृष्टि में समाजवाद का अर्थ पूर्ण राष्ट्रीयकरण नहीं था। अपनी आर्थिक योजना में वे
ग्रामीण उद्योग-धन्धों तथा खादी को भी स्थान देते थे। यहां उनके ऊपर गांधीजी का
प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। वास्तव में, श्री
नेहरू ने आर्थिक क्षेत्र में पश्चिमी ढंग की समाजवादी अर्थव्यवस्था तथा गांधीवादी
अर्थव्यवस्था का समन्वय करने का प्रयास किया। 1945 में
राष्ट्रीय नियोजन समिति के समक्ष अपने विचार व्यक्त करते हुए कुटीर उद्योगों तथा
रोजगार की समस्या पर बल दिया था।
उन्होंने अपनी समाजवादी अवधारणा पर
चलते हुए नेहरू ने मिश्रित आर्थिक व्यवस्था (Mixed Economy) को प्रश्रय दिया जिसमें निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र समानान्तर रूप
में कार्य करेंगे। उनका उद्देश्य एक ऐसे आर्थिक ढांचे का निर्माण करना था जो बिना
व्यक्तिगत एकाधिकार तथा पूंजी के केन्द्रीकरण के अधिकतम उत्पादन प्रदान कर सके और
शहरी एवं ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में उपयुक्त सन्तुलन पैदा कर सके। नेहरू ने जीवन,
समाज और सरकार के सम्बन्ध में समाजवाद तथा लोकतान्त्रिक साधनों के
माध्यम से समाजवादी समाज की स्थापना में निष्ठा प्रकट की। 1958 में 'समाजवाद' पर विचार प्रकट
करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा – “मैं उस उग्र
प्रकार का समाजवाद नहीं चाहता जिसमें राज्य सर्वशक्तिसम्पन्न होता है।"
अपने समाजवाद की स्थापना के लिए नेहरू बल प्रयोग या हिंसात्मक
साधनों के विरुद्ध थे। हमारे सामने प्रश्न यह है कि शान्तिपूर्ण तथा न्यायोचित
उपायों से गणतन्त्र और समाजवाद को एक साथ कैसे संयुक्त किया जाय। भारत के सामने
यही समस्या उपस्थित है। हम इस उद्देश्य को बलपूर्वक अथवा दबाव से पूरा नहीं कर
सकते। हमें लोगों की सद्भावना तथा सहयोग प्राप्त करना है।"
यह बात स्पष्ट है कि नेहरू समाजवाद में
विश्वास करते हुए भी जनतन्त्रीय पद्धति का ही समर्थन करते थे। भावनात्मक स्तर पर
तो नेहरू का झुकाव लोकतन्त्र की ओर था। समाजवाद के प्रति उनका आकर्षण बौद्धिक था—
मार्क्स द्वारा की गयी इतिहास की आर्थिक विवेचना में विश्वास के कारण। अतः समाजवाद
को ग्रहण कर लेने पर भी उन्होंने लोकतन्त्र को कभी नहीं छोड़ा।
नेहरू और लोकतन्त्र
(Nehru and Democracy)—नेहरू का चिन्तन और उनके कार्यकलाप इस
बात के प्रतीक हैं कि वे महान लोकतान्त्रिक थे। नेहरू ने लोकतन्त्र को केवल
राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा अपितु आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र को भी
लोकतन्त्र की परिधि में लिया। उनका कहना था कि नागरिकों को केवल राजनीतिक
स्वतन्त्रता देना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें अवसरों की
समानता दी जानी चाहिए। सामाजिक अस्पृश्यताओं और घोर आर्थिक असमानताओं से पूर्ण
समाज कभी लोकतान्त्रिक नहीं हो सकता।
महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के कारण नेहरू साध्य की ही
सात्विकता में विश्वास नहीं करते थे, वरन् साथ-साथ साधन की
पवित्रता पर भी बल देते थे। साधन के रूप में उन्होंने लोकतन्त्र का ही प्रयोग
किया। उन्हें सत्तावाद तथा हिंसा से घृणा थी। वे चाहते थे कि भारत पश्चिम के उन्नत
औद्योगिक राष्ट्रों के समकक्ष स्थान प्राप्त कर ले, किन्तु
इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अधिनायकतन्त्रीय यन्त्रीकृत हिंसा के
मार्ग का परित्याग कर दिया था। नेहरू ने अपने अगणित भाषणों तथा अविराम यात्राओं के
द्वारा जनता से सम्पर्क स्थापित करने की प्रणाली विकसित कर ली थी। इससे नेता का
जनता के साथ स्थापित होता है। यह बात लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए बड़ी लाभकारी
सिद्ध होती है। नेहरू ने जनता को निरन्तर अनुशासन तथा भाईचारे की प्रेरणा दी।
इसमें उनका उद्देश्य उस सामुदायिक भावना को दृढ़ करना था जिसे मैकाइवर ने
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधार बताया है।
नेहरू अपने विरोधियों के विचारों के प्रति सहनशीलता और सम्मान की भावना रखते
थे। उनकी दृष्टि में हठवादिता और रूढ़िवादिता की प्रवृत्ति लोकतन्त्र के लिए घातक
थी। लोकतान्त्रिक भावना की मांग है कि हम अपनी समस्याओं का निराकरण आपसी
विचार-विमर्श, तर्क-वितर्क और शान्तिपूर्ण उपायों से करें। नेहरू संसदीय
सरकार को अधिक अच्छा इसलिए समझते थे कि यह समस्याओं को हल करने का एक शान्तिपूर्ण
उपाय है। उन्हीं के शब्दों में, “इस प्रकार की सरकार में
वाद-विवाद, विचार-विमर्श और निर्णय करने की और उस निर्णय को
तब भी स्वीकार करने की पद्धति अपनायी जाती है, जब कि कुछ लोग
असहमत होते हैं। फिर भी संसदीय सरकार में अल्पसंख्यकों का बहुत महत्वपूर्ण भाग
रहता है। यह स्वाभाविक है कि बहुसंख्यकों को केवल इस कारण कि वे बहुसंख्यक हैं,
अपने मार्ग पर चलने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए, किन्तु अल्पसंख्यकों की उपेक्षा करने वाला बहुसंख्यक दल अपना काम संसदीय
गणतन्त्र की सही भावना से नहीं कर रहा होता।” नेहरू हर काम
को लोकतान्त्रिक ढंग से करने के आदी थे। वे समुचित वैज्ञानिक साधनों द्वारा अपनी
मांगें मनवाने और निर्णयों में परिवर्तन कराने के पक्ष में थे, लेकिन प्रत्यक्ष कार्यवाही जैसी कोई भी आन्दोलनात्मक तकनीक उनकी दृष्टि
में अलोकतान्त्रिक थी। सर्वाधिकारवाद और हिंसात्मक साधनों के प्रति उनका विरोध
इतना उग्र था कि उन्होंने एक ऐसे समय मुसोलिनी और हिटलर से मिलने तक से इन्कार कर
दिया जब विश्व के बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ इन तानाशाहों से मिलने में अपना गौरव
समझते थे।
यद्यपि भारतीय संविधान के 19वें अनुच्छेद के संशोधन
की तथा निवारक नजरबन्दी अधिनियम की पर्याप्त आलोचना हुई है, किन्तु
नेहरू ने उसे परिस्थितियों की आवश्यकता के नाम पर उचित ठहराया। उन्होंने कहा कि,
राजनीतिक तथा नागरिक स्वतन्त्रता की व्याख्या भी राष्ट्रीय तथा
अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों तथा संकटों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए।
नेहरू का दृढ़ विश्वास था कि लोकतन्त्र की बुराइयां ऐसी नहीं हैं कि उन्हें
दूर नहीं किया जा सकता। यदि उत्कृष्ट नैतिक चरित्र का पालन किया जाय तो लोकतन्त्र
के सफल संचालन में कोई सन्देह नहीं।
नेहरू ने संसदीय लोकतन्त्र की सफलता के लिए वयस्क मताधिकार के महत्व को
स्वीकार किया। नेहरू अनुसार वर्तमान युग की सबसे बड़ी समस्या है केन्द्रीकरण तथा
राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की समस्या को सुलझाना। उनके अनुसार इस समस्या का समाधान
संसदीय लोकतन्त्र में ही निहित है। नेहरू ने समाजवाद से प्रेरणा प्राप्त कर
लोकतन्त्र को समाजवादी लोकतन्त्र के रूप में परिष्कृत करने का सुझाव दिया। नेहरू
ने लोकतन्त्र के विकास के लिए सैद्धान्तिक समाजवाद को अपनाने का आग्रह किया।
नेहरू तथा मार्क्सवाद
(Nehru and Marxism) —–नेहरू मार्क्सवाद के प्रशंसक थे। वे मार्क्स के सामाजिक तथा आर्थिक दर्शन
को अत्यधिक वैज्ञानिक एवं विवेकयुक्त मानते हुए भी मार्क्सवाद से पूर्णतया
सहमत नहीं थे। नेहरू के अनुसार मार्क्सवादी विश्लेषण में ऐतिहासिक शक्तियों के
महत्व को आर्थिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का अभिप्राय तार्किक था, किन्तु मार्क्स का यह विश्लेषण भविष्य में आने वाले अन्य
प्रभावों को आत्मसात् नहीं कर सकता था। अपनी पुस्तक 'भारत की खोज' में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सम्बन्ध
में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते उन्होंने कहा, “मार्क्स
तथा लेनिन के अध्ययन ने मेरे मन पर शक्तिशाली प्रभाव डाला और मुझे इतिहास तथा
सामाजिक घटनाओं को एक नयी दृष्टि से देखने में सहायता दी. सामाजिक विकास के
सम्बन्ध में मार्क्स का सामान्य विश्लेषण असाधारण तौर पर सही जान पड़ता है,
फिर भी बाद में अनेक ऐसी घटनाएं घटी हैं जो निकट भविष्य को ध्यान
में रखते हुए उसके दृष्टिकोण से मेल नहीं खातीं।”
नेहरू तथा साम्यवाद
(Nehru and
Communism) —
नेहरू का विश्वास था कि सोवियत संघ के आविर्भाव के साथ मानवता के इतिहास में एक
नये युग का सूत्रपात हुआ है, किन्तु
सोवियत समाज के नकारात्मक पहलुओं की उन्होंने आलोचना भी की। “कभी-कभी वहां की कुछ बातें और घटनाएं मुझे पसन्द नहीं आयीं या मेरी समझ
में नहीं आयीं”, उन्होंने लिखा, “और
मुझे ऐसा लगा कि उन सब बातों का ताल्लुक या तो उस वक्त के लिए जरूरी अवसरवाद या
सत्ता की राजनीति से था।”" एक दूसरी जगह उन्होंने लिखा,
“समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर मुझे काफी अर्से से आकर्षण था और रूस
ने मुझे प्रभावित किया। सोवियत रूस की बहुत-सी बातें मुझे पसन्द नहीं हैं—हर
विरोधी विचार का निर्ममता से दमन, पूरे पैमाने पर एकमार्गीकरण,
विभिन्न नीतियों को चलाने में बेजरूरत हिंसा।”” किन्तु इन सब बातों के बावजूद उन्हें इस बात में सन्देह नहीं था कि सोवियत
बुझाया क्रान्ति के साथ मानव समाज ने एक जबरदस्त छलांग लगायी है और एक ऐसी मशाल
जलाई है जिसे नहीं जा सकता और एक ऐसी नयी सभ्यता की नींव डाली है, जिसकी ओर समस्त संसार बढ़ सकता है।' और भी, “मैं उस नयी व्यवस्था और नयी सभ्यता के महान् और मोहक विकास को हमारे इस
अन्धकारपूर्ण युग के लिए अत्यन्त ही आशापूर्ण समझता हूं। भविष्य यदि हमें आशाप्रद
दिखायी देता है, तो तक सोवियत संघ और उसने जो कुछ किया है
उसके कारण।'बहुत हद
नेहरू और राष्ट्रवाद
(Nehru and
Nationalism) —
नेहरू एक महान् राष्ट्रवादी थे, किन्तु
उन्होंने राष्ट्रवाद का कोई नया सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया था। उनका
राष्ट्रवाद रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा प्रतिपादित समन्वयात्मक सार्वभौमवाद से
प्रभावित था। उन्हें विवेकानन्द और अरबिन्द के राष्ट्रवाद सम्बन्धी धार्मिक
दृष्टिकोण से सहानुभूति नहीं थी । धार्मिक राष्ट्रीयता की धारणा उन्हें बेहूदा
लगती थी। जब जिन्ना ने धर्म को लेकर मुस्लिम राष्ट्रीयता के लिए पैरवी की थी तो
नेहरू को यह जानकर दुःख हुआ तब उन्होंने कहा था कि, “यदि
राष्ट्रीयता का आधार धर्म है तो भारत में न केवल दो वरन् तमाम राष्ट्र मौजूद हैं।
भारत की राष्ट्रीयता न तो हिन्दू राष्ट्रीयता है न मुस्लिम, वरन्
यह विशुद्ध भारतीय है।”
नेहरू ने राष्ट्रीय आत्मनिर्णय पर
अत्यधिक बल दिया और साम्राज्यवाद का प्रबल विरोध किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय
स्वतन्त्रता के लिए संघर्षशील देश में राष्ट्रवाद एक स्वस्थ शक्ति होती है,
लेकिन देश के स्वतन्त्र हो जाने के बाद वही राष्ट्रीयता
प्रतिक्रियावादी और विकीर्ण भी बन सकती है। अतः ऐसी संकीर्ण राष्ट्रीयता से सदैव
बचना चाहिए। नेहरू ने राष्ट्रवाद में मानवता का समावेश किया। उन्होंने कहा कि
राष्ट्रवाद के नाम पर धर्म, जाति और संस्कृति का सहारा नहीं
लेना चाहिए। नेहरू ने एक सच्चे राष्ट्रवादी के रूप में हर देश की आजादी को समर्थन
दिया। उन्होंने मिस्र, मोरक्को, इण्डोनेशिया,
अल्जीरिया, कांगो, आदि
देशों की आजादी के वास्ते हुए राष्ट्रीय आन्दोलनों का समर्थन किया। अरब राष्ट्रवाद
के अभ्युदय के समय उन्होंने कहा, “एक पराधीन देश के लिए
शान्ति का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि शान्ति तो स्वतन्त्रता के बाद ही स्थापित हो
सकती है इसलिए साम्राज्यों को मिटना ही चाहिए उनका जमाना बीत चुका है।"
नेहरू ने राष्ट्रवाद के उदार स्वरूप को ग्रहण किया और ऐसे
राष्ट्रवाद को ठुकरा दिया जो अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति में बाधक हो तथा अपने स्वरूप
में आक्रामक हो। उनके अनुसार उग्र राष्ट्रवाद से नस्लवाद, राष्ट्रों
के प्रति घृणा, साम्राज्यवाद, युद्धवाद,
आदि बुराइयों का जन्म होता है।
एक दूसरे मजहब में मिला लिया जाता है,
तो इससे उनका न तो ऐतिहासिक गठन और न उसकी नस्ली विशेषताएं बदलती
हैं; न ही किसी बड़ी हद तक उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बदलती
है। सांस्कृतिक श्रेणियां राष्ट्रीय होती हैं, धार्मिक नहीं
और आधुनिक परिस्थितियां तो एक अन्तर्राष्ट्रीय श्रेणी के निर्माण में सहायता कर
रही हैं। उन्होंने घोषणा की, “मैं न केवल इस बात को मानता
हूं कि एक एकात्मक भारतीय राष्ट्र का होना सम्भव है बल्कि बुनियादी तौर से और
सांस्कृतिक रूप से कितने ही ऊपरी भेदभावों के बावजूद यह राष्ट्र मौजूद है।"
जवाहरलाल नेहरू ने ऐतिहासिक दृष्टि से
सम्प्रदायवाद की वृत्ति के कारणों का विश्लेषण करने और उसमें अन्तर्निहित आर्थिक
ध्येयों को खोज निकालने की कोशिश की।' उन्होंने
देखा कि दोनों तरफ के साम्प्रदायिक राजनीतिज्ञों में नौकरियों और धारा सभाओं में
सीटों के प्रतिशत को लेकर झगड़ों के पीछे, एक अन्य
महत्वपूर्ण प्रश्न था जो ठीक-ठीक साम्प्रदायिक तो नहीं था, किन्तु
साम्प्रदायिक मसले को प्रभावित अवश्य कर रहा था। कुछ प्रान्तों में, समग्र रूप से धनी वर्ग हिन्दू थे और मुसलमान गरीब वर्गों में थे, अतः दोनों में टकराव अक्सर आर्थिक मामलों को लेकर होता था, किन्तु इस टकराव पर साम्प्रदायिक रंग चढ़ा दिया जाता था। इस परिस्थिति की
नेहरू ने इस प्रकार व्याख्या की, “समूचे तौर पर हिन्दुओं की
आर्थिक स्थिति बेहतर रही है। अंग्रेजी शिक्षा जल्दी प्राप्त कर लेने के कारण वे
अधिकांश सरकारी नौकरियों पर जम गये। वे ज्यादा मालदार भी थे। गांव का साहूकार या
महाजन बनिया होता है जो छोटे जमींदारों और किसानों का शोषण करता है और धीरे-धीरे
उन्हें भिखारी बना देता है। जबकि जमीन को वह खुद अपनी मुट्ठी में कर लेता है।
बनिया हिन्दू और मुसलमान, किसानों और जमींदारों का समान रूप
से शोषण करता है, किन्तु उसके द्वारा मुसलमानों के शोषण ने
साम्प्रदायिक रूप धारण कर लिया, खास कर उन प्रान्तों में
जहां खेती करने वाले मुख्यतः मुसलमान थे। मशीन से तैयार माल के चलन में सम्भवतः
मुसलमानों को ज्यादा गहरा धक्का लगा क्योंकि ज्यादातर कारीगर मुसलमान थे। इन
तथ्यों के फलस्वरूप भारत के इन दो प्रमुख समुदायों के बीच कटुता और भी बढ़ गयी और
मुस्लिम राष्ट्रवाद मजबूत हुआ क्योंकि मुसलमान अपने समुदाय की ओर ज्यादा और मुल्क
की ओर कम देखने लगे.....। उनके साम्प्रदायिक स्तर पर ही उन्हें पराजित करने के लिए
हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मैदान में आये। ये संगठन दिखावा तो ऐसा करते थे जैसे वे
ही सच्चे राष्ट्रवादी हों, किन्तु ये उतने ही संकीर्णतावादी
और तंगदिल थे जितने कि दूसरे ।'
किन्तु एक साम्प्रदायिकता ने दूसरी को
खत्म नहीं किया दोनों ने एक-दूसरे को बलिष्ठ ही बनाया। हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने
मुसलमानों के सम्प्रदायवाद को बढ़ाया और हिन्दुओं के प्रति उन्हें और भी अधिक
अविश्वासी बना दिया। नेहरू ने बार-बार कहा कि सम्प्रदायवाद राजनीतिक और सामाजिक
प्रतिक्रियावादियों के हाथ का हथियार है जिसके जरिये वे साम्राज्यवाद विरोधी
संघर्ष में रुकावटें डालते हैं और उच्चतर वर्गों की सुख-सुविधाओं को संरक्षित
बनाये रखते हैं। नेहरू का विश्वास था कि इन लोगों को पराजित करने के लिए
हिन्दू-मुस्लिम एकता अनिवार्य है और इस मामले में हिन्दुओं के कन्धों पर विशेष
जिम्मेदारी थी क्योंकि वे बहुसंख्यक समुदाय थे और आर्थिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से,
मुसलमानों से समग्र रूप से काफी बढ़े हुए थे।
नेहरू का मत था कि हिन्दुओं,
मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों
तथा भारत के अन्य ऐसे ही समूहों के सैद्धान्तिक एकरूपीकरण से ही सच्ची राष्ट्रीयता
की वृद्धि हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं था कि भारत के सांस्कृतिक ढांचे में जो
विविधता है वह खत्म कर दी जायेगी। इसका अर्थ तो यह था कि एक समान राष्ट्रीय
दृष्टिकोण का विकास होगा। “मैं नहीं सोचता," उन्होंने कहा, “कि हिन्दू-मुस्लिम एकता या दूसरी कोई
एकता मन्त्र की तरह 'एकता' शब्द को
जपने से आ जायेगी। एकता आयेगी इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है, लेकिन यह नीचे से आयेगी, ऊपर से नहीं क्योंकि ऊपर जो
लोग हैं उनमें से बहुतों की दिलचस्पी ब्रिटिश आधिपत्य को कायम रखने में है और उसके
जरिये वे अपने विशेषाधिकारों को बनाये रखने की आशा लगाये हैं.....।” स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी नेहरू ने सम्प्रदायवाद का विरोध किया। सन 1955
में उन्होंने कहा “लेकिन हमें यह नहीं भूलना
है कि सम्प्रदायवादियों का सोचने-समझने का तरीका बहुत खतरनाक है। अगर हम इस 1
के. दामोदरन्, भारतीय चिन्तन परम्परा,
किस्म के सम्प्रदायवाद को कायम रहने
देते हैं, फिर यह चाहे हिन्दू या
मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई सम्प्रदायवाद हो, तो भारत वह नहीं रहेगा, जो आज है। भारत के
टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।"
नेहरू और धर्मनिरपेक्षतावाद
(Nehru
and Secularism) - नेहरू ने धर्म तथा राजनीति के साम्प्रदायिकता के
रूप में गठबन्धन को देश के लिए घातक बताया। उन्होंने दैविक राज्य की मान्यता के
विपरीत धर्मनिरपेक्ष को समर्थन प्रदान किया। वे भारत राष्ट्र की बहुधर्मिता के
विचार से प्रभावित थे और चाहते थे कि भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
समस्त सम्प्रदायों को समान रूप से प्राप्त हो। धर्म प्रधान राज्य के रूप में भारत
एक प्रमुख धर्म को मान्यता देकर शेष धर्मों के प्रति अन्याय नहीं कर सकता था।
नेहरू के अनुसार धार्मिक राज्य का विचार सदियों पहले त्यागा जा चुका है। अतः भारत
को संकीर्णता की परिधि से निकलकर सभी धर्मों के साथ समता का व्यवहार करना है ताकि
एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित हो सके। धर्मनिरपेक्षता पर विचार व्यक्त करते हुए
अपने एक भाषण में उन्होंने कहा- “भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य
है, इसका अर्थ धर्महीनता नहीं, अर्थ
सभी धर्मों के प्रति समान आदर-भाव तथा सभी व्यक्तियों के लिए समान अवसर है—चाहे
कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो।"इसका
नेहरू की धर्मनिरपेक्षता से यह अर्थ निकालना भ्रामक होगा कि वे अधार्मिक थे अथवा
धर्म और ईश्वर से उन्हें घृणा थी। वस्तुतः नेहरू की प्रवृत्ति सत्य को ग्रहण करने
की, संकीर्णता और अन्धविश्वास से मुक्त रहने की थी। धर्म के
वैज्ञानिक और स्वस्थ दृष्टिकोण से उन्हें कोई चिढ़ न थी । उनके जीवन दर्शन में
अन्धविश्वास, कट्टरता, कर्मकाण्ड और
संस्कारवाद को स्थान न था। धर्म को वे सामाजिक हितों का महान साधक मानते थे। धर्म
से उनका आशय था निष्ठापूर्वक सत्य की खोज करना, सत्य के लिए
सब कुछ बलिदान करने को उद्यत मनुष्य रहना। इस अर्थ में, नेहरू
ने कहा था, उन्हें धार्मिक कहलाने में कोई आपत्ति नहीं थी।
वे मानते थे कि की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उन्नति को
उसकी आध्यात्मिक उन्नति से भी अनिवार्यतः सम्बद्ध किया जाना चाहिए। 1960 में उन्होंने कहा था : “मैं किसी धर्म या मताग्रह से
बंधा नहीं हूं, परन्तु कोई इसे धर्म कहे या नहीं, मैं मनुष्यों की अन्तर्जात आध्यात्मिकता में विश्वास करता हूं। मैं
व्यक्ति की अन्तर्जात गरिमा में विश्वास करता हूं ।"
नेहरू और लोककल्याणकारी राज्य
(Nehru and the Welfare State)-नेहरू आर्थिक स्तर पर भारत
को लोककल्याणकारी राज्य बनाने हेतु जीवन-पर्यन्त प्रयत्नशील थे। समाजवादी ढंग का
कल्याणकारी राज्य वर्षों से, निश्चय ही
1927 से नेहरू का भारत के लिए आदर्श रहा। भारत को
जनकल्याणकारी रूप देने में नेहरू ने सामुदायिक योजना को पर्याप्त महत्व दिया। भारत
के लिए नेहरू जिस कल्याणकारी राज्य को चाहते थे उसमें गरीबी और पिछड़ेपन का कोई
स्थान न था ।
नेहरू का मानवतावाद
(Nehru's humanism) - नेहरू एक राजनीतिज्ञ थे,
लेकिन आदर्शवाद में उनकी गहन आस्था जीवन भर बनी रही। पीड़ित और
शोषित लोगों के प्रति उनके हृदय में अगाध प्रेम और सहानुभूति थी। नेहरू
जीवन-पर्यन्त मानव जीवन के उच्चतर मानदण्डों के लिए संघर्षरत रहे। उनका मानव
अस्तित्व और उसकी सत्ता में गहन विश्वास था। मानवतावाद में अटूट विश्वास के कारण
ही वे लोकतान्त्रिक समाजवादी बने रहे और साम्यवाद के हिंसक तथा अनैतिक साधनों के
प्रति उन्हें कभी कोई आकर्षण नहीं रहा। 1960 में उन्होंने
कहा था, “मैं किसी धर्म अथवा मताग्रह से बंधा नहीं हूं,
परन्तु इसे कोई धर्म कहे या नहीं, मैं
मनुष्यों की अन्तर्जात आध्यात्मिकता में विश्वास करता हूं। मैं व्यक्ति की
अन्तर्जात गरिमा में विश्वास करता हूं। मैं समझता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को समान
अवसर दिये जाने चाहिए। मैं ऐसे समानतापूर्ण समाज के आदर्श में विश्वास करता हूं
जिसमें मनुष्य और मनुष्य के बीच बहुत अन्तर न हो-भले ही इस आदर्श को प्राप्त करना
कठिन हो।"
जीवन के प्रति नेहरू का दृष्टिकोण एक
किस्म का नैतिक दृष्टिकोण था। देश की राजनीतिक समस्याओं के लिए उन्होंने यथाशक्ति
नैतिक सिद्धान्तों का उपयोग करने की कोशिश की। डा. राधाकृष्णन के शब्दों में,
"एक मानव के रूप में उनके चिन्तन में सुकुमारता, भावना की अद्वितीय कोमलता और महान् एवं उदार प्रवृत्तियों का अद्भुत
सम्मिश्रण था।"
नेहरू और सामाजिक परिवर्तन-सामाजिक
परिवर्तन के लिए नेहरू ने गांधीजी के विचारों को स्वीकार नहीं किया। गांधीजी की
धारणा थी कि व्यक्तियों का सुधार सामाजिक विकास का प्रतीक बन सकता है,
नेहरू को समीचीन प्रतीत नहीं हुआ। नेहरू समाज की प्रगति के लिए
विज्ञान की उपलब्धियों एवं भौतिक सुविधाओं
को महत्व देते थे। नेहरू के अनुसार
ग्रामोद्योगों की स्थापना तथा पुरातनपन्थी जीवन की पुनरावृत्ति से प्रगति प्राप्त
नहीं की जा सकती। प्रगति के लिए आवश्यक है कि समाजवाद का लक्ष्य निर्धारित किया
जाय। सार्वजनिक हित में उत्पादन तथा वितरण की व्यवस्था की जाय। यदि राजनीतिक और
सामाजिक संस्थाएं ऐसे परिवर्तन का विरोध करें तो उन्हें भी बदल दिया जाय।
ट्रस्टीशिप के नाम पर पहले पूंजीपति को पनपने देना और फिर उससे सार्वजनिक हित में
सम्पत्ति के प्रयोग की कामना करना नेहरू को स्वीकार नहीं था। वे परिवर्तन की
प्रक्रिया को पूरा करने के लिए संसदात्मक लोकतन्त्र को सही मानते थे
नेहरू तथा राज्य एवं व्यक्ति
(Nehru and The State and The
Individual) —राज्य
की अनिवार्यता के बारे में नेहरू का अटूट विश्वास था। नेहरू की मान्यता थी कि
व्यक्ति और समाज के लिए राज्य का अस्तित्व अपरिहार्य है। राज्य के मूल में हिंसा
छिपी है, इस तर्क के आधार पर वे
राज्य का परित्याग करने को तैयार न थे। नेहरू इस व्यक्तिवादी विचार से सहमत नहीं
थे कि वही सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करे। नेहरू का कहना था कि राज्य का
कार्य केवल रक्षात्मक ही नहीं है वरन् व्यक्ति और समाज के पोषण का भार भी बहुत कुछ
राज्य पर है। नेहरू कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त के प्रति निष्ठावान थे, अतः राज्य को केवल पुलिस कार्यों तक ही सीमित न देखकर वे जीवन के हर
क्षेत्र में राज्य के कार्यों के स्वस्थ विस्तार के पोषक थे। राज्य के कार्यों के
विस्तार की दृष्टि से नेहरू ने भारी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया,
लेकिन वे जानते थे कि राष्ट्रीयकरण से शासन में अत्यधिक केन्द्रीकरण
की प्रवृत्ति को बल मिलेगा। नेहरू शासन के केन्द्रीकरण को इस हद तक नहीं बढ़ाना
चाहते थे कि वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए खतरा बन जाय। इस समस्या के समाधान
के लिए उन्होंने सामुदायिक विकास योजना और पंचायती राज का समर्थन किया ताकि
लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के क्षेत्र का प्रसार हो तथा व्यक्ति की स्वतन्त्रता
को संरक्षण मिले।
नेहरू तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद
(Nehru and Internationalism)
— नेहरू महान्
अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे। वे शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व तथा एक विश्व राज्य के आदर्श
में विश्वास करते थे। संयुक्त राष्ट्र संघ के आदर्शों में उनका दृढ़ विश्वास था।
भारत के लिए गुट-निरपेक्षता की विदेश
नीति उनका सबसे बड़ा योगदान है। इस नीति का आशय कि भारत विश्व राजनीति के दोनों
गुटों में से किसी में भी शामिल नहीं होगा। असंलग्नता की यह नीति सैनिक गुटों से
अपने आपको दूर रखती है, किन्तु पड़ोसी व अन्य
राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है। नेहरू के अनुसार
गुटनिरपेक्षता का अर्थ है गुटों से पृथक् रहना, शीत-युद्ध
में भाग न लेना, प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या पर
गुण-दोषों के आधार पर निर्णय लेना ।
पंचशील के पांच सिद्धान्त
(The Five Principles of Panchsheel)
पंचशील के पांच
सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नेहरू ने भारत की शान्तिप्रियता का परिचय दिया। ये
सिद्धान्त हैं— (1) एक-दूसरे की प्रादेशिक
अखण्डता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना, (2) अनाक्रमण, (3) एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में
हस्तक्षेप न करना, (4) समानता एवं पारस्परिक लाभ, तथा (5) शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व। नेहरू ने स्पष्ट
कहा था कि “यदि इन सिद्धान्तों को सभी देश मान्यता दे दें तो
आधुनिक विश्व की अनेक समस्याओं का निदान मिल जायेगा। पंचशील के सिद्धान्त आदर्श
हैं जिन्हें यथार्थ जीवन में उतारा जाना चाहिए। इनसे हमें नैतिक शक्ति मिलती है और
नैतिकता के बल पर हम अन्याय और आक्रमण का प्रतिकार कर सकते हैं।
नेहरू ने युद्ध और शान्ति के विषय में
जो विचार प्रकट किये, शान्तिपूर्ण
सहअस्तित्व और गुटनिरपेक्षता की नीति की जो वकालत की उससे हमें यह निष्कर्ष नहीं
निकालना चाहिए कि वे एक ऐसे शान्तिवादी थे जो शस्त्रों के प्रयोग को हर परिस्थिति
में ठुकराने का उपदेश देते थे। नेहरू का आदर्शवाद यद्यपि बहुत ऊंचा लेकिन एक
यथार्थवादी राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने अवसर पड़ने पर शत्रु का सम्पूर्ण शक्ति
से मुकाबला करने में विश्वास प्रकट किया। पाकिस्तानी आक्रमण अथवा चीनी आक्रमण का
मुकाबला करने में शक्ति प्रयोग में वह नहीं हिचकिचाये।
नेहरू : साधन तथा परिणाम
(Nehru: Means and Consequences) —नेहरू
ने कहा था, “मेरा यह आधारभूत विश्वास
है कि गलत साधन सही परिणामों तक नहीं पहुंचा सकते।" साधन
और परिणाम अविभाज्य रूप से सम्बद्ध हैं और एक-दूसरे को पारस्परिक ढंग से प्रभावित
करते हैं। गलत साधन सही उद्देश्यों को विकृत कर देते हैं और कभी-कभी तो उन्हें
नष्ट ही कर डालते हैं। अपने इसी विश्वास के कारण मानव जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक
मूल्यों
में उनका विश्वास बढ़ता गया। वे अहिंसा
के समर्थक बने रहे और भारतीय स्थिति के सन्दर्भ में उन्होंने वर्ग संघर्ष के
समाजशास्त्र में विश्वास करना छोड़ दिया।
जवाहरलाल नेहरू तथा मूल अधिकार
(Jawaharlal Nehru and
Fundamental Rights) -सन्
1931 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने
किसी भी भावी भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की घोषणा को आवश्यक मानने के अपने
संकल्प को एक बार पुनः दोहराया। इस संकल्प का मसौदा जवाहरलाल नेहरू ने तैयार किया
था। संकल्प में इस बात पर जोर दिया गया था कि “आम जनता के
शोषण को समाप्त करने के लिए राजनीतिक स्वाधीनता में भूखों मर रहे करोड़ों लोगों की
वास्तविक आर्थिक स्वाधीनता को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए।" संकल्प में कहा गया कि स्वाधीन भारत के किसी भी संविधान को जनता के मूल
अधिकारों की गारण्टी देनी चाहिए जिनमें निम्नलिखित बातें शामिल हों : (1) संगठन बनाने की स्वाधीनता, (2) अभिव्यक्ति और समाचार
पत्र निकालने की स्वाधीनता, (3) आत्माभिव्यक्ति और स्वतन्त्र
व्यवसाय तथा धर्म अपनाने की स्वाधीनता, (4) अल्पसंख्यकों की
संस्कृति, भाषा और लिपि की सुरक्षा, (5) लिंग के किसी बन्धन के बिना सभी नागरिकों के बराबर अधिकार और दायित्व,
(6) वैयक्तिक स्वाधीनता का अधिकार और सरकार को निःशुल्क प्राथमिक
शिक्षा की भी व्यवस्था करनी चाहिए, कर्मचारियों को जीवन
निर्वाह मजदूरी तथा कार्य की स्वस्थ शर्तें और वृद्धावस्था, बीमारी,
बेरोजगारी के प्रति संरक्षण, बच्चों के नियोजन
के प्रति संरक्षण, महिला कर्मचारियों का संरक्षण, किसानों को राहत, मादक द्रव्यों तथा औषधियों,
आदि के निषेध की भी व्यवस्था होनी चाहिए। संकल्प में निर्देश दिया
गया कि राज्य को प्रमुख उद्योगों तथा अपने खनिज संसाधनों पर भी नियन्त्रण की
व्यवस्था करनी चाहिए।
ऐसा प्रतीत होता है कि 1931
के संकल्प द्वारा उन मूल अधिकारों की रूप-रेखा प्रदान की गयी जिनका
बाद के संविधान में समावेश किया गया। संविधान सभा ने केवल इतना प्रमुख भेद किया कि
उसने 1931 के करांची संकल्प में उल्लिखित अधिकारों को न्याय
तथा गैर-न्याय अधिकारों में विभक्त कर दिया । जीवन-निर्वाह मजदूरी, निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, श्रमिकों के संरक्षण,
आदि को एक साक्ष्य रखकर इनकी व्यवस्था नीति निदेशक तत्वों के रूप
में की गयी थी और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, धर्म की
स्वतन्त्रता, समानता का अधिकार तथा सम्पत्ति के अधिकार को
मूल अधिकार कहा गया। दोनों ही समान रूप से अलंघ्य थे क्योंकि नीति निदेशक तत्व
यद्यपि न्याय नहीं है फिर भी वे देश के 'अभिशासन के मूल हैं
।'
नेहरू ने अपने बचपन में सुना था कि
रेलगाड़ियों, रेल डिब्बों और सार्वजनिक
पार्कों में यूरोपीय लोगों के लिए बेंच आरक्षित होते हैं। उन्होंने बहुत कम उम्र
में ही इसका विरोध किया था। नेहरू कहा करते कि जाति व्यवस्था प्रगति के मार्ग में
बाधक है, जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक ढांचा व्यक्ति को
अपनी अधिकतम क्षमता के अनुसार भूमिका अदा करने से रोकता है। इसीलिए इसमें आश्चर्य
नहीं है कि संविधान में आरोपित दर्जे के आधार पर भेदभाव को दूर करने और अस्पृश्यता
को अवैध करार देने को अवैध करार देने की व्यापक रूप से व्यवस्था है।
संविधान एक बात में अद्वितीय है,
कानूनों का समान संरक्षण देने की गारण्टी देते समय यह राज्य के समाज
को निर्बल वर्गों के हितों का संरक्षण करने का निर्देश देता है। समाज के कुछ वर्ग
इसलिए पिछड़े रह गये हैं कि उन्हें जाति पर आधारित अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था
का शिकार बनना पड़ा। संविधान सभा में बोलते हुए 3 अप्रैल,
1948 को नेहरूजी ने इस बात पर जोर दिया था कि यह आवश्यक है कि
“उन सभी लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठाने की बात हमेशा सोची जाय जिनको
विगत काल में अवसर नहीं दिये गये।" नेहरूजी को इस बात
पर विश्वास नहीं था कि यह उद्देश्य विधानमण्डलों में उनके लिए स्थान आरक्षित रखकर
प्राप्त किया जा सकता है। बेहतर तरीका यह था कि “आर्थिक अथवा
शिक्षा के क्षेत्र में इनका जल्दी से जल्दी उत्थान किया जाए और वे तब आत्म-निर्भर
हो जायेंगे। "
ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीयों की अनेक
शिकायतों में से एक शिकायत यह थी कि उन्हें नागरिक स्वाधीनता से वंचित किया गया
था। संकटकाल में गांधी और नेहरू ने लोकतन्त्रीय प्रक्रिया में अपनी आस्था को न
छोड़ा। नेहरू फासिस्टवाद से घृणा करते थे। यह सर्वविदित है कि उन्होंने मुसोलिनी
और बाद में हिटलर के आमन्त्रणों को स्वीकार नहीं किया।'
युद्ध में उनकी सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के प्रति थी।
लोकतन्त्रीय समाज की एक अनिवार्य
विशेषता यह है है कि किसी व्यक्ति के साथ कानून व्यवहार किया जाना चाहिए,
उसे मनमाने ढंग से कभी भी गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी
नेहरू ने 2 अगस्त, 1952 को निवारक
निरोध विधेयक पर बोलते हुए कहा कि हिंसा और साम्प्रदायिक अशान्ति सहन नहीं की जा
सकती।' उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वे व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता को बहुत अधिक चाहते हैं और इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहते हैं,
परन्तु यदि राज्य की सुरक्षा को खतरा हो तो कुछ व्यक्तियों की
स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाना ही होगा।" यह एक विधि
विडम्बना थी कि नेहरू को प्रधानमन्त्री के रूप में निवारक नजरबन्दी का प्रयोग करना
पड़ा था।
संविधान के अनुच्छेद 19(1)
में 7 प्रकार की स्वतन्त्रताओं की गारण्टी दी
गयी है। मूल अधिकारों में और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सबसे अधिक मूलभूत अधिकार
है, इसके बिना लोकतन्त्र नहीं चल सकता, किन्तु यह बात महत्वपूर्ण है कि नेहरू ने साम्यवादी दल अथवा किसी अन्य राजनीतिक
संगठन पर प्रतिबन्ध तुलना में लगाने से इन्कार कर दिया था। फिर भी उनका विचार था
कि राष्ट्र के हित को व्यक्ति के हित की प्रधानता दी जानी चाहिए। लोकतान्त्रिक
समाज में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के विचार को सामाजिक स्वतन्त्रता के साथ सन्तुलित
करना होता है और व्यक्ति के सम्बन्धों को सामाजिक समूह के साथ सन्तुलित करना होता
है। नेहरू ने प्रायः इस बात पर बल दिया कि आर्थिक स्वाधीनता के बिना राजनीतिक
स्वतन्त्रता बेकार है। सम्पत्ति के अधिकार के प्रति उनके दृष्टिकोण का पता पहले के
प्रयासों के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं से लगाया जा सकता है। उन्होंने सदैव इस बात
को महसूस किया कि “प्राइवेट सम्पत्ति की प्रथा से कुछ
व्यक्तियों को समाज के ऊपर खतरनाक शक्ति मिल जाती है और इसलिए यह समाज के लिए बहुत
ही हानिप्रद है। जब नेहरू ने जिसके अध्यक्ष उनके पिता थे, अवध
के ताल्लुकदारों के स्वार्थों की रक्षा के लिए एक प्रावधान को शामिल करने की
सिफारिश की तो जवाहरलाल को धक्का लगा था। उन्होंने यह स्वीकार किया कि “समूचा संविधान (नेहरू प्रतिवेदन) सम्पत्ति की भावना पर आधारित है।”
जब उच्चतम न्यायालय ने बेला बनर्जी के
मामले में यह निर्णय दिया कि 'मुआवजे'
का अर्थ सम्पत्ति के मूल्य के ठीक समान मूल्य होता है और ऐसी समानता
का मूल्यांकन करने लिए मानदण्ड बाजार मूल्य होता है। ऐसी स्थिति में नेहरू ने
संविधान संशोधन विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए कहा कि कितना मुआवजा दिया जाये इस
बारे में संसद का निर्णय अन्तिम होना चाहिए। वे इस बात से सहमत थे कि मुआवजा
न्यायसंगत तथा उचित होना चाहिए, परन्तु सदैव बाजार मूल्य के
समान मुआवजा देना न तो वांछनीय है और न ही सम्भव। सन् 1955 में
नेहरू ने संविधान में संशोधन कराया जिससे मुआवजे के मामले में अन्तिम निर्णय का
अधिकार विधान मण्डल को प्राप्त हो गया ।
जब संविधान सभा में सम्पत्ति के अधिकार
पर चर्चा की गयी थी, उस समय सदस्य भूमि
सुधार कानून को लम्बी मुकदमेबाजी से बचाने के बारे में चिन्तित थे, कांग्रेस दल इस कार्यक्रम के बारे में प्रतिबद्ध था और नेहरू ने
सहानुभूतिपूर्वक यह कहा था कि कांग्रेस अपने वचन को पूरा करेगी तथा कोई भी
न्यायालय अथवा न्यायपालिका इस कार्यक्रम के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती है।
संविधान को समाजवादी मोड़ देने के लिए चौथा संशोधन और सत्रहवां संशोधन नेहरू के
जीवन काल में उठाये गये प्रमुख कदम थे।
वस्तुतः नेहरू व्यक्ति के हितों तथा
समुदाय के हितों के बीच सन्तुलन बनाये रखने के लिए उत्सुक एक ओर वे सम्पत्ति के
जब्त किये जाने के विरुद्ध थे, दूसरी ओर
उन्होंने यह ध्यान रखा कि सामाजिक आर्थिक-परिवर्तन, जो वह
लाना चाहते थे, के मार्ग में किसी व्यक्ति का सम्पत्ति
अधिकार बाधा न बने । लोकतन्त्र में आस्था रखने वाले व्यक्ति के रूप में उन्होंने
निजी सम्पत्ति के प्रति सम्मान प्रकट किया, लेकिन उन्होंने
सामाजिक न्याय के हित में निजी सम्पत्ति पर रोक लगाने के लिए हिचकिचाहट नहीं
दिखायी।
नेहरू तथा गांधी : तुलनात्मक विवेचन (Nehru
and Gandhi : Comparison) नेहरू के विचारों पर गांधीजी के
व्यक्तित्व एवं चिन्तन का स्पष्ट प्रभाव अंकित रहा। नेहरू की गांधी से सर्वप्रथम
भेंट 1916 में लखनऊ कांग्रेस में हुई और 1920 में वे गांधीजी के प्रभाव में आ गये। गांधीजी के
प्रति असाधारण श्रद्धा रखते हुए भी
नेहरू तथा गांधी के व्यक्तित्व अलग-अलग थे। इसी कारण से जब गांधी द्वारा असहयोग
आन्दोलन समाप्त कर दिया गया तो नेहरू को अच्छा नहीं लगा।
राजनीति यद्यपि राजनीतिक प्रश्नों पर
दोनों के विचारों में साम्य था तथापि सामाजिक और आर्थिक सिद्धान्तों के सम्बन्ध
में मतभेद बना रहा। गांधीजी धर्म का राजनीति में प्रवेश चाहते थे जबकि नेहरू
धर्मनिरपेक्ष के समर्थक थे। गांधीजी राज्यविहीन समाज की अवधारणा के समर्थक थे जबकि
नेहरू राज्य के कार्यों में वृद्धि के समर्थक थे और राज्य द्वारा ही सामाजिक
परिवर्तन के पक्षधर थे। गांधीजी ने विभाजन को कभी भी स्वीकार नहीं किया जबकि नेहरू
के समक्ष इसके अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं था। गांधीजी कुटीर उद्योगों के समर्थक
थे तो नेहरूजी भारत का औद्योगीकरण चाहते थे। 5 अक्टूबर,
1945 को गांधीजी ने स्वयं नेहरू को लिखे पत्र में इस तथ्य को
स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा, “पहली बात जो मैं लिखना
चाहता हूं वह है हमारे दृष्टिकोण का अन्तर। यदि यह अन्तर है तो मुझे लगता है कि यह
अन्तर हमें जनता के समक्ष रखना चाहिए।” संक्षेप में, नेहरू ने यद्यपि गांधीजी के आदर्शों पर भारत को यथासम्भव चलाने का प्रयास
किया, किन्तु व्यावहारिक राजनीति की आवश्यकता ने उन्हें
पृथक् मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया ।
जवाहरलाल नेहरू : मूल्यांकन
(Jawaharlal Nehru: An Estimate)
नेहरू का सम्पूर्ण राजनीतिक दर्शन
मानवतावाद की सबल पृष्ठभूमि पर आधारित था। वे समन्वयवादी थे तथा उन्होंने गांधी और
मार्क्स तथा भारतीय सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता के श्रेष्ठ सिद्धान्तों एवं मूल्यों
को मिलाकर नवीन भारत का निर्माण करने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय आन्दोलन को
अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि प्रदान की। नेहरू नीति के आधार स्तम्भ थे— राष्ट्रीय
स्वतन्त्रता, प्रजातन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, योजनाबद्ध विकास और समाजवाद,
विश्व-शान्ति एवं गुट निरपेक्षता । नेहरू का गांधी से चाहे जो भी
मतभेद रहा हो, मगर नेहरू ने जो नीतियां क्रियान्वित की वे
गांधी के स्वतन्त्रता, अहिंसा, शान्ति,
सर्वधर्म समभाव और निर्धनता उन्मूलन के विचारों पर ही आधारित थीं।
विचारधारात्मक दृष्टि से नेहरू के सिद्धान्त और व्यवहार में जो भी कमजोरियां रही हों, उन्होंने नयी पीढ़ी के मस्तिष्क को एक प्रगतिशील वैज्ञानिक दिशा प्रदान की। एम. चलपति राव के शब्दों में, “जब हम नेहरू युग पर दृष्टि डालते हैं तो किसी विशेष निर्णय या नीति के बारे में मत- भिन्नता हो सकती है, लेकिन मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि विवेकवाद, सामाजिक रूढ़िवाद तथा सभी प्रकार के धार्मिक सामाजिक या राजनीतिक मोहवाद जैसी धारणाओं के प्रति उनकी अस्वीकृति, व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा गरिमा के प्रति सम्मान, लोकतान्त्रिक प्रणाली में दृढ़ विश्वास, सैनिक शक्ति तथा हिंसा के प्रति विरक्ति, उनका इस बात पर बल देना कि अच्छे साध्य से बुरे साधन का औचित्य सिद्ध नहीं होता और परमाणु युग में विश्व सहयोग के अभाव में विश्ववाद अवश्यम्भावी है, इन बातों पर कोई भी व्यक्ति उंगली नहीं उठा सकता।”
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