(GANDHISM)
गांधीवाद
गांधीवाद
गांधीवाद के
प्रेरणा श्रोत कई हैं, जैसे कि हिंदू धर्म,
जैन धर्म, क्रिश्चियन धर्म, तोलस्टॉय, रस्किन,
थोरो आदि। गांधीवाद महात्मा गांधी के आदर्शों, विश्वासों और दर्शन से उदभूत विचारों का संग्रह है, जो स्वतंत्रता संग्राम, समाज
सुधार, शांति और समानता के लिए प्रेरित करते हैं।
गांधीवाद के प्रमुख सिद्धांत सत्य, अहिंसा, सर्वोदय, स्वराज, स्वच्छता और सहिष्णुता हैं।गांधीवाद की आलोचना भी की गई है, कुछ लोगों ने इसे प्रतिकूल, प्रत्यक्ष, प्रतिरोधी और प्रतिस्पर्धी समाज के साथ मेल खाने में असमर्थ माना है। गांधीवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम प्रश्न यह है कि क्या गांधीवाद नाम की कोई वस्तु है ? स्वयं गांधीजी ने 1936 में सांवली सेवा संघ में प्रवचन करते हुए कहा था, “गांधीवाद नामक कोई वस्तु नहीं है। मैं अपने बाद कोई सम्प्रदाय छोड़ना नहीं चाहता। मैं किन्हीं नये सिद्धान्तों या किसी मत को चलाने का दावा नहीं करता। मैंने तो केवल अपने ढंग से आधारभूत सच्चाइयों को अपने नित्य प्रति के जीवन एवं समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न किया है। मैंने जो मत बनाये तथा निष्कर्ष निकाले हैं, वे सब अन्तिम नहीं हैं। मैं कल ही उन्हें परिवर्तित कर सकता हूं। दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। सत्य और अहिंसा उतने ही पुरातन हैं जितने कि पहाड़ । मैंने तो केवल इन दोनों को यथासम्भव विस्तृत क्षेत्र में प्रयोग का प्रयत्न किया है. गांधीवाद न कहें, इसमें कोई बाद नहीं है।'
इस प्रकार यदि वाद
से अभिप्राय किन्हीं सिद्धान्तों या मतों से है जो एक निश्चित सूत्र में पिरोये
हुए हों तो निश्चित रूप से गांधीवाद जैसी कोई वस्तु नहीं है। गांधीजी कभी भी अपने
विचारों के बारे में पूर्णता का दावा नहीं करते थे। वे तो सदा सत्य और अहिंसा के
साथ प्रयोग करते रहे और ऐसा करने में उनसे जो भी भूलें हुईं उन्होंने उन भूलों को
स्वीकार किया और उनसे सीखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा को भी 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' (My Experiments with Truth) का नाम दिया है। गांधीजी ने अन्तिम रूप से या आगामी समय
के लिए कोई मत प्रतिपादित नहीं किया और न वे यह चाहते थे कि उनके अनुयायियों के
द्वारा उनका अन्धानुकरण किया जाय। उन्होंने किसी प्रणाली का निर्माण नहीं किया और
न ही किसी वाद का संस्थापन ही किया।
तो भी गांधीजी का
एक निश्चित जीवन-दर्शन था । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जटिलताओं के समाधान के लिए
उनके कुछ विशेष सिद्धान्त एवं उनकी अपनी पद्धति थी । उनके इन सिद्धान्तों और उनकी
कार्य पद्धति को ही सामूहिक रूप से 'गांधीवाद' के
नाम से पुकारा जा सकता है। गांधीवाद की परिभाषा का प्रयत्न करते हुए डॉ. पी. एस.
रमाया लिखते हैं, “गांधीवाद नीतियों, सिद्धान्तों,
नियमों, आदेशों और निषेधों,
आदि का सिद्धान्त ही नहीं, वरन् जीवन का एक रास्ता है। इनके द्वारा जीवन की
समस्याओं के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण
का प्रतिपादन या
पुरातन दृष्टिकोण की पुनर्व्याख्या करते हुए आधुनिक समस्याओं के लिए पुरातन हल
प्रस्तुत किये गये हैं।"
"व्यक्ति की दो अन्तरात्माएं नहीं हो सकतीं — एक व्यक्तिगत एवं सामाजिक और दूसरी राजनीतिक । मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों में एक ही नैतिक संहिता का पालन किया जाना चाहिए....................हमें सत्य और अहिंसा को केवल व्यक्तिगत व्यवहार के ही नहीं, वरन् संघों, समुदायों और राष्ट्रों के व्यवहार के सिद्धान्त बनाना है।"" -महात्मा गांधी
गांधीवाद के प्रेरणा स्त्रोत
(Sources of inspiration for
Gandhism)
गांधीवादी प्रेरणा
स्रोत का मतलब होता है उन व्यक्तियों या उन विचारों का स्रोत जो महात्मा गांधी के
विचार, आदर्श और कार्यों से प्रेरित होकर उनकी दिशा
में चलने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। गांधीवादी प्रेरणा स्रोत में महात्मा गांधी
के सत्यग्रह, अहिंसा, सामर्थ्य, साहित्यिक योगदान,
गरीबी मुक्ति, स्वदेशी आंदोलन,
ग्राम स्वराज आदि के आदर्श
और मूल्यों का अनुसरण किया जाता है। इससे लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए
प्रेरित होने का अवसर मिलता है। गांधीवादी प्रेरणा स्रोत लोगों को सच्चाई, न्याय,
और सद्गुणों की
महत्वपूर्णता के प्रति जागरूक करते हैं और उन्हें समाज में सकारात्मक परिवर्तन
लाने के लिए प्रेरित करते हैं।
गांधीवादी
विचारधारा के प्रधान प्रेरणा स्रोतों को मूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता
है-पूर्वी और पश्चिमी। पूर्वी स्रोतों में सर्वप्रथम उन पर अपनी माता के व्यक्तिगत
जीवन की पवित्रता और पिता की सादगी एवं सदाचार का अमिट प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी
माता से वैष्णव हिन्दू धर्म के संस्कार प्राप्त किये। उनके जीवन और विचार पर अन्य
प्रभावों में जैन और बौद्ध धर्म,
गीता और उपनिषद्, भारत के विभिन्न साधु-सन्तों के उपदेश एवं प्रमुख रूप से
जैन साधक श्री रामचन्द्रजी के सम्पर्क का उल्लेख किया जा सकता है। गांधीजी ने अपनी
विचारधारा के मूल आधार सत्य और अहिंसा को जैन और बौद्ध दर्शन से ग्रहण किया था और
गांधीजी ने अपने प्रथम चरित्र लेखक एक मिशनरी डोक को बताया था कि अहिंसक प्रतिकार
की कल्पना मुझे सर्वप्रथम श्याम भटटू द्वारा रचित गुजराती कविता से सूझी थी, जिसका सारांश इस प्रकार था – “यदि कोई तुम्हें पानी पिलाये और तुमने भी बदले में उसे
पानी पिलाया, तो उसका कोई महत्व नहीं है। अपकार के बदले
उपकार करने में ही खूबी है।"
भगवद्गीता ने अहिंसा और
कर्म में गांधीजी के विश्वास को दृढ़ करने का कार्य किया।
गांधीजी की
विचारधारा के पश्चिमी स्रोतों में बाइबल विशेषतया उसके अध्याय 'पर्वत प्रवचन'
(Sermon on the Mount), तथा टालस्टॉय, रस्किन और थोरो की रचनाएं हैं। गांधीजी ने 'पर्वत प्रवचन'
वाले भाग में इस बात को
ग्रहण किया कि “अत्याचारी का प्रतिकार मत करो, वरन् जो तुम्हारे सीधे गाल पर चांटा मारे उसके सामने
बायां गाल भी कर दो, अपने शत्रु से प्रेम करो। " गांधीजी ने 1896
में नेपाल जाते हुए रास्ते
में अपने मित्र पोलक द्वारा दी गयी जॉन रस्किन की पुस्तक 'Unto this Last' को पढ़ा और वे इससे इतने प्रभावित हुए कि
उन्होंने 'सर्वोदय' के
नाम से इसका गुजराती में अनुवाद किया। इस पुस्तक से उन्होंने तीन बातें सीखीं- (1) एक व्यक्ति का हित सभी व्यक्तियों के हित में निहित है।
(2) एक वकील के कार्य का भी उतना ही महत्व है
जितना कि नाई के कार्य का,
क्योंकि सभी व्यक्तियों को
अपने कार्य से आजीविका प्राप्त करने का समान अधिकार है। (3) शारीरिक श्रम करने वाले किसान या कारीगर का जीवन ही
वास्तविक जीवन है। गांधीजी ने रस्किन से प्रभावित होकर बुद्धि की अपेक्षा चरित्र
पर अधिक बल दिया, आत्मिक बल को सर्वोच्च स्थान दिया, जीवन के राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में धर्म को
महत्ता दी और पूंजीपतियों से यह अपेक्षा तथा आशा रखी कि वे मजदूरों के संरक्षक
बनें और उनसे पितृ-तुल्य व्यवहार करें।
गांधीजी पर अमरीकन
अराजकतावादी लेखक हेनरी डेविड थोरो का भी प्रभाव पड़ा। थोरो का सिद्धान्त था कि
भलाई को बढ़ाने वाले सभी लोगों तथा संस्थाओं के साथ सहयोग एवं बुराई को
प्रोत्साहित करने वालों के साथ असहयोग किया जाना चाहिए। थोरो मनुष्य की स्वाभाविक
भलाई और राज्यहीन समाज के आदर्श में विश्वास रखता था और दास प्रथा के प्रश्न पर
उसने अमरीकन सरकार के साथ निष्क्रिय और सक्रिय प्रतिकार के मत का समर्थन किया था।
उसका विचार था कि दास-प्रथा जैसे नैतिक प्रश्न पर राज्य की आज्ञा भंग कर कर-विषयक
कानून तोड़ा जाना चाहिए और इस सम्बन्ध में अहिंसा का पालन आवश्यक नहीं है। गांधीजी
ने थोरो की विचारधारा को संशोधित करते हुए इस बात पर बल दिया कि सरकार के अनैतिक
कानूनों का विरोध तो अवश्य किया जाना चाहिए,
लेकिन ऐसा करते हुए हमारा
व्यवहार अहिंसक ही होना चाहिए । थोरो की पुस्तक 'On the Duty of Civil Disobedience' ने उन पर पर्याप्त प्रभाव डाला।
गांधीजी पर रूसी
लेखक टालस्टॉय की रचनाओं 'संक्षिप्त सुसमाचार' (Gospel in Brief), 'क्या करें' (What to do) तथा
'स्वर्ग तुम्हारे भीतर है' (The Kingdom of God is within You) ने भी उन पर प्रभाव डाला। इनमें से अन्तिम
पुस्तक का उन पर विशेष और स्थायी प्रभाव पड़ा। इस पुस्तक के अध्ययन से पूर्व
गांधीजी के मन में अहिंसा के सम्बन्ध में अनेक सन्देह थे। इस पुस्तक ने उन सभी
सन्देहों का निराकरण कर दिया।
उपर्युक्त विचारकों
तथा उनकी रचनाओं के अतिरिक्त गांधीजी पर कार्लायल की 'वीर पूजा'
(Hero Worship) तथा हजरत मुहम्मद
और उसके उत्तराधिकारियों के जीवन-चरित्र का भी प्रभाव पड़ा।
गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा)
[The basic premise of
Gandhian philosophy is Dharma (Truth and Non-Violence).]
अथवा
राजनीति का आध्यात्मिककरण
(SPIRITUALIZATION OF POLITICS)
राजनीतिक चिन्तन के
क्षेत्र में ऐसे अनेक विचारक हुए हैं,
जिन्होंने राजनीति और धर्म
को एक-दूसरे किया है। मैकियावेली और हॉब्स जैसे कुछ विचारकों ने तो न केवल धर्म को
राजनीति से किया, वरन् उसे राजनीति से निम्न स्थान प्रदान
किया तथा उसे राजनीति द्वारा मर्यादित भी किया। गांधीजी की विचारधारा इसके नितान्त
विपरीत है। गांधीजी के द्वारा राज्य,
शासन, समाज और आर्थिक संगठन के सम्बन्ध में जो भी विचार व्यक्त
किये गये हैं, उन सभी विचारों का मूल आधार उनका धार्मिक
दृष्टिकोण ही है।
गांधीजी मूलतः :
धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और जिस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में धर्म का
निर्वाह किया, उस आधार पर उन्हें भारतीय परम्परा का एक
महान् सन्त कहा जा सकता है। एक धार्मिक नेता होते हुए भी गांधीजी धार्मिक
रूढ़िवादिता और धर्मान्धता के समर्थक नहीं थे और धर्म के सम्बन्ध में उनका
दृष्टिकोण लौकिक और मानवतावादी था। वे प्राणिमात्र की सेवा ही वास्तविक आध्यात्मिक
जीवन का मूल तत्व मानते थे और उनका कथन था,
'मानव क्रियाओं से पृथक्
कोई धर्म नहीं है।' इसी प्रकार वे 'राजनीति'
शब्द में 'नीति’
अर्थात् 'धर्म'
और 'मानवता'
को प्राथमिकता देते थे, 'राज'
अर्थात् सत्ता को नहीं ।
धर्म के सम्बन्ध में अपने इस लौकिक दृष्टिकोण के कारण ही गांधीजी ने राजनीति में
प्रवेश कर राजनीति में नीति के महत्व का प्रतिपादन किया। स्वयं गांधीजी के शब्दों
में, “उस समय तक मैं धार्मिक जीवन व्यतीत नहीं कर
सकता था, जब तक कि मैं स्वयं को सम्पूर्ण मानवता के
साथ एकीकृत न कर लेता और मैं यह उस समय तक नहीं कर सकता था, जब तक कि राजनीति में भाग नहीं लेता।'
गांधीजी की
राजनीतिक विचारधारा का मूल आधार राजनीति के प्रति उनका आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही
है। गांधीजी धर्म और राजनीति को पृथक् करने के पक्ष में नहीं थे। स्वयं गांधीजी के
शब्दों में, “जो यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कोई
सम्बन्ध नहीं है, वे यह नहीं समझते कि धर्म का अर्थ क्या है।
धर्म से पृथक् कोई राजनीति नहीं हो सकती । धर्म से पृथक् राजनीति तो मृत्यु जाल है
क्योंकि यह आत्मा का हनन करती है।"
गांधीजी का विचार
है कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कार्यों को पूर्णतया
पृथक् भागों में विभाजित नहीं किया जा सकता और मानवीय कार्यों से पृथक् रूप में
धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। धर्म मानव के सभी कार्यों को एक ऐसा नैतिक आधार
प्रदान करता है, जिसके अभाव में मानव के सभी कार्यों का
महत्व समाप्त हो जायेगा। गांधीजी इस बात को स्वीकार करने के लिए कदापि तैयार नहीं
थे कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के मापदण्ड अलग-अलग होने चाहिए, वरन् उनका विचार तो यह था कि मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों
में एक ही नैतिक संहिता लागू की जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में उनका कहना था कि “व्यक्ति की दो अन्तरात्माएं नहीं हो सकतीं - एक
व्यक्तिगत एवं सामाजिक और दूसरी राजनीतिक । मानवीय कार्यों के सभी क्षेत्रों में
एक ही नैतिक संहिता का पालन किया जाना चाहिए।"
उन्होंने स्वयं का
सार्वजनिक जीवन सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर व्यतीत कर राजनीति में
आध्यात्मिकता को प्रकट किया।'
सत्य
(true)
गांधीवादी
विचारधारा में सर्वोच्च महत्व सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों को प्राप्त है। सत्य
और अहिंसा को गांधीजी मनुष्य के अन्तर्निहित धार्मिक भाव के विकास के लिए
अपरिहार्य समझते थे। इन दोनों का एक अविभाज्य जोड़ा है। गांधीजी के लिए सत्य ईश्वर
है और जो व्यक्ति दूसरे को आघात पहुंचाता है,
वह सत्य का उल्लंघन करता
है। हिंसा असत्य है, क्योंकि वह जीवन की एकता और पवित्रता के
विरुद्ध है। इसलिए जीवन में अहिंसा का पालन करना सत्य के उपासक का सबसे बड़ा
कर्तव्य है। सत्य और अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट कहना गांधीजी की कोई मौलिक बात न थी।
उनकी देन तो यह है कि उन्होंने सत्य और अहिंसा को एक व्यापक अर्थ दिया और एक
व्यापक स्तर पर उनका प्रयोग किया।
सत्य क्या है, इसके उत्तर में गांधीजी ने कहा था, "यह एक बड़ा कठिन प्रश्न है, किन्तु स्वयं अपने लिए मैंने इसे हल कर लिया है।
तुम्हारी अन्तरात्मा जो कहती है,
वही सत्य है।” पर सत्य को ग्रहण कर उसे व्यक्त करने के लिए अन्तरात्मा
शुद्ध होनी चाहिए, क्योंकि शुद्ध अन्तरात्मा की वाणी ही सत्य
हो सकती है। अन्तरात्मा की शुद्धि के लिए साधना की आवश्यकता होती है और यह साधना
जीवन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अपनाकर की जा सकती है।
गांधीजी का विचार था कि देहधारियों के लिए पूर्ण सत्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि मानव आत्म-शुद्धि के इन साधनों को पूर्ण रूप में
नहीं अपना सकता है, फिर भी उनका मत था कि उक्त साधन द्वारा
व्यक्ति सत्य की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हो सकता है।
अहिंसा
(non-violence)
"अहिंसा" एक हिंदी शब्द है जिसका मतलब
होता है "न हिंसा" या "शांति और शांतिपूर्ण आचरण।" यह एक
महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक सिद्धांत है जो विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक
परंपराओं में प्रतिष्ठित है। अहिंसा का मूल आदर्श यह है कि हमें किसी भी प्राणी को
चोट पहुँचाने से बचना चाहिए और सभी के प्रति उदार और मित्रभाव से व्यवहार करना
चाहिए।
गांधीजी अहिंसा को
मानव का प्राकृतिक गुण मानते थे और उनका विचार था कि मनुष्य स्वभावतः अहिंसाप्रिय
है तथा वह परिस्थितियोंवश ही हिंसावान बनता है। मनुष्य की अहिंसक वृत्ति का ही
प्रमाण है कि आदिम काल का वह व्यक्ति जो परिस्थितियोंवश नरभक्षी के रूप में जीवन
व्यतीत करता था, आज का सभ्य और सुसंस्कृत प्राणी बन गया है।
इस प्रकार समस्त मानव इतिहास में हम देखते हैं कि मनुष्य की अहिंसक प्रवृत्ति का
विकास हो रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार में हिंसा का पूर्ण अनस्तित्व नहीं
है, यह संसार में विद्यमान है और कभी-कभी अपना
रौद्र रूप भी प्रकट करती है,
परन्तु मानव समाज के विकास
का इतिहास यही बताता है कि मनुष्य मूल रूप से अहिंसा प्रिय है और उसकी इस अहिंसक
वृत्ति के कारण ही मानव जाति निरन्तर बढ़ती जा रही है। इस प्रकार अहिंसा को मानव
जगत का सर्वोच्च नियम मानते हुए गांधीजी का मत था कि अहिंसा के आधार पर ही एक
सुव्यवस्थित समाज की स्थापना और मानव जीवन की भावी उन्नति सम्भव है।
गांधीजी के अनुसार
अहिंसा का अर्थ केवल हत्या न करना ही नहीं है, वरन्
अहिंसा से उनका तात्पर्य अन्य किसी प्रकार से भी अपने विरोधी को कष्ट न पहुंचाना
है। 9 मार्च,
1920 के 'यंग इण्डिया'
के अंक में गांधीजी ने
लिखा था कि “पूर्ण अहिंसा सभी प्राणियों के प्रति
दुर्भावना के अभाव का नाम है।... • इस प्रकार अहिंसा अपने क्रियात्मक रूप में सभी
जीवधारियों के प्रति सद्भावना का नाम है। यह तो विशुद्ध प्रेम है। "
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