अधिकार और कर्तव्य
(RIGHTS AND DUTIES)
अधिकार और कर्तव्य
"स्वभावतः सब मनुष्य समान रूप से
उन्मुक्त तथा स्वाधीन हैं और उनके कुछ जन्मजात अधिकार हैं जिन्हें मनुष्य स्वयं
अपने जीवन अथवा अपनी सन्तानों से पृथक् नहीं कर सकते; यथा
जीवन और स्वतन्त्रता के अधिकारों का उपभोग, सम्पत्ति के
अर्जन और सुखी जीवन के साधन के अधिकार।
—थॉमस जेफरसन
अधिकार हमारे सामाजिक जीवन की अनिवार्य
आवश्यकताएँ हैं जिनके बिना न तो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न
ही समाज के लिए उपयोगी कार्य कर सकता है। वस्तुतः अधिकारों के बिना मानव जीवन के
अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस कारण वर्तमान समय में प्रत्येक राज्य
के द्वारा अधिकाधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये जाते हैं और लास्की के शब्दों में
कहा जा सकता है कि " एक राज्य अपने
नागरिकों को जिस प्रकार के अधिकार प्रदान करता है उन्हीं के आधार पर राज्य को
अच्छा या बुरा कहा जा सकता है। "2
अधिकार का अर्थ और परिभाषा
Meaning and definition of authority
प्रकृति के द्वारा मनुष्य को विभिन्न प्रकार
की शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं, लेकिन इन शक्तियों का
स्वयं अपने और समाज के हित में उचित रूप से प्रयोग करने के लिए कुछ बाहरी सुविधाओं
की आवश्यकता होती है। राज्य का सर्वोत्तम लक्ष्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण
विकास है, इस प्रकार राज्य के द्वारा व्यक्ति को ये सुविधाएँ
प्रदान की जाती हैं और राज्य के द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली इन बाहरी
सुविधाओं का नाम ही अधिकार है।
अधिकार का अभिप्राय राज्य द्वारा व्यक्ति को
दी गयी कुछ कार्य करने की स्वतन्त्रता या सकारात्मक सुविधा प्रदान करना है जिससे
व्यक्ति अपनी शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक शक्तियों
का पूर्ण विकास कर सके। प्रमुख विद्वानों द्वारा अधिकार की निम्नलिखित शब्दों में
परिभाषाएँ की गयी हैं :
लास्की के अनुसार,
“अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके अभाव में
सामान्यतया कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता है।'
वाइल्ड के अनुसार,
“अधिकार कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वाधीनता की उचित माँग है।
हालैण्ड के शब्दों मे,
“व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के कार्यों को, स्वयं अपनी शक्ति से नहीं वरन समाज के बल पर प्रभावित करने की क्षमता को
अधिकार कहते हैं।
बोसांके के अनुसार,
“अधिकार वह माँग है जिसे समाज स्वीकार करता और राज्य लागू करता
भारतीय विद्वान श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, “अधिकार
समुदाय के कानून द्वारा स्वीकृत वह व्यवस्था, नियम या रीति
है जो नागरिक के सर्वोच्च नैतिक कल्याण में सहायक हो।'
अधिकार के आवश्यक लक्षण
essential features of authority
लास्की, वाइल्ड और
श्रीनिवास शास्त्री ने अधिकार की जो परिभाषाएँ दी हैं, उन
परिभाषाओं और अधिकार की सामान्य धारणा के आधार पर अधिकार के निम्नलिखित आवश्यक
लक्षण कहे जा सकते हैं :
(1) सामाजिक स्वरूप – अधिकार का सर्वप्रथम
लक्षण यह है कि अधिकार के लिए सामाजिक स्वीकृति आवश्यक है, सामाजिक
स्वीकृति के अभाव में व्यक्ति जिन शक्तियों का उपभोग करता है वे उसके अधिकार न
होकर प्राकृतिक शक्तियाँ हैं। अधिकार तो राज्य द्वारा नागरिकों को प्रदान की गयी
स्वतन्त्रता और सुविधा में का नाम है और इस स्वतन्त्रता एवं सुविधा की आवश्यकता
तथा उपभोग समाज में ही सम्भव है। शून्य व्यक्ति के कोई अधिकार नहीं हो सकते,
रॉबिन्सन क्रूसो जैसे व्यक्ति को निर्जन टापू में कोई अधिकार
प्राप्त नहीं थे। इसके अतिरिक्त, राज्य के द्वारा व्यक्ति को
जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उसकी सिद्धि समाज में ही सम्भव है। इस दृष्टि से भी अधिकार समाजगत ही होते
हैं।
(2) कल्याणकारी स्वरूप—अधिकारों का
सम्बन्ध आवश्यक रूप से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है। इस कारण अधिकार
के रूप में केवल वे ही स्वतन्त्रताएँ और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जो व्यक्तित्व
के विकास हेतु आवश्यक या सहायक हों। व्यक्ति को कभी भी वे अधिकार नहीं दिये जा
सकते जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक हों। इसी कारण मद्यपान, जुआ खेलना या आत्महत्या अधिकार के अन्तर्गत नहीं आता है।
(3) लोकहित में प्रयोग–व्यक्ति को अधिकार
उसके स्वयं के व्यक्तित्व के विकास और सम्पूर्ण समाज के सामूहिक हित के लिए प्रदान
किये जाते हैं। अतः यह आवश्यक होता है कि अधिकारों का प्रयोग इस प्रकार किया जाय
कि व्यक्ति की स्वयं की उन्नति के साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की भी उन्नति हो । यदि
कोई व्यक्ति अधिकार का इस प्रकार से उपयोग करता है कि अन्य व्यक्तियों या सम्पूर्ण
समाज के हित साधन में बाधा पहुँचती है तो व्यक्ति के अधिकारों को सीमित किया जा
सकता है।
(4) राज्य का संरक्षण—अधिकार का एक आवश्यक
लक्षण यह भी है कि उसकी रक्षा का दायित्व राज्य अपने ऊपर लेता है और इस सम्बन्ध
में राज्य आवश्यक व्यवस्था भी करता है। उदाहरणार्थ, व्यक्ति
को रोजगार प्राप्त होना चाहिए, यह बात व्यक्तित्व के विकास
के लिए आवश्यक है और समाज भी इसे स्वीकार करता है, लेकिन
राज्य जब तक आवश्यक संरक्षण की व्यवस्था न करे, उस समय तक
पारिभाषिक अर्थ में इसे अधिकार नहीं कहा जा सकता है।
(5) सार्वभौमिकता या सर्वव्यापकता-अधिकार
का एक अन्य लक्षण यह भी है कि अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से
प्रदान किये जाते हैं और इस सम्बन्ध में जाति, धर्म, लिंग और वर्ण के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है।
अधिकार के उपर्युक्त लक्षणों
(the above symptoms of authority) -- के आधार पर सामान्य शब्दों में अधिकार को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि “अधिकार समाज के सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास हेतु आवश्यक वे सामान्य सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जिन्हें समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करने की व्यवस्था करता है। "
अधिकारों का वर्गीकरण
(classification of rights)—साधारणतया अधिकार दो प्रकार के होते हैं— (1) नैतिक अधिकार और (2) कानूनी अधिकार।
(1) नैतिक
अधिकार
(Moral
Rights) – नैतिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जिनका
सम्बन्ध मानव के नैतिक आचरण से होता है। अनेक विचारकों के द्वारा इन्हें अधिकार के
रूप में ही स्वीकार नहीं किया जाता है, क्योंकि वे अधिकार
राज्य द्वारा रक्षित नहीं होते हैं। इन्हें धर्मशास्त्र, जनमत
या आत्मिक चेतना द्वारा स्वीकृत किया जाता है और राज्य के कानूनों से इनका कोई
सम्बन्ध नहीं होता ।
(2) कानूनी अधिकार
(Legal
Rights)—ये वे अधिकार हैं जिनकी व्यवस्था राज्य
द्वारा की जाती है और जिनका उल्लंघन कानून से दण्डनीय होता है। कानून का संरक्षण
प्राप्त होने के कारण इन अधिकारों को करने के लिए राज्य द्वारा आवश्यक कार्यवाही
की जाती है। लीकॉक ने इन अधिकारों की परिभाषा करते हुए कहा है कि
“कानूनी अधिकार वे विशेषाधिकार हैं जो एक नागरिक को अन्य नागरिकों
के विरुद्ध प्राप्त होते हैं तथा जो राज्य की सर्वोच्च शक्ति द्वारा प्रदान किये
जाते हैं और रक्षित होते हैं।"
कानूनी अधिकार के दो भेद किये जा सकते हैं
(Two distinctions can be made of legal rights)— (i) सामाजिक या नागरिक अधिकार, (ii) राजनीतिक अधिकार ।
सामाजिक या नागरिक अधिकार
(Social
or Civil Rights) – प्रमुख सामाजिक या नागरिक
अधिकार निम्नलिखित हैं :
(1) जीवन का अधिकार
right to life
जीवन के अधिकार के अन्तर्गत ही आत्मरक्षा का
अधिकार भी निहित है, इसका तात्पर्य यह है कि यदि
किसी व्यक्ति के जीवन पर आघात किया जाता है तो सम्बन्धित व्यक्ति अपनी आत्मरक्षा
के लिए आवश्यक कार्यवाही कर सकता है और आत्मरक्षा के निमित्त की गयी यह कार्यवाही
अपराध की श्रेणी में नहीं आती है।
प्रत्येक व्यक्ति समाज का एक आवश्यक अंग
होता है और व्यक्ति का जीवन स्वयं अपने साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की सम्पत्ति होती है,
इसलिए जीवन के अधिकार में यह बात भी सम्मिलित है कि कोई व्यक्ति
स्वयं अपने जीवन का भी अन्त नहीं कर सकता है। अतः आत्महत्या एक दण्डनीय अपराध है।
सैण्ट थॉमस एक्वीनास के शब्दों मे, “आत्महत्या स्वयं अपने
प्रति, समाज के प्रति और ईश्वर के प्रति एक अपराध है।
"
(2) समानता का अधिकार
(
(क) राजनीतिक समानता का अधिकार
(
(ख) सामाजिक समानता का अधिकार
(
(ग) आर्थिक समानता का अधिकार
(
विषमता के अभाव से है जिसका उपयोग आर्थिक
दबाव के रूप में किया जा सके।" लास्की के अनुसार
इसका तात्पर्य 'उद्योग में प्रजातन्त्र' से है।
(3) स्वतन्त्रता का अधिकार
(
(क) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार
(
(ख) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार
(
(ग) अन्तःकरण की स्वतन्त्रता का अधिकार
(
(घ) समुदाय निर्माण की स्वतन्त्रता का अधिकार
(
(ङ) नैतिक स्वतन्त्रता
(
अपने विवेक और आत्मा के आदेशानुसार बिना
किसी अनुचित लोभ-लालच के कार्य कर सके। नैतिक स्वतन्त्रता नींव के उस पत्थर के
समान है जिस पर जीवन का सम्पूर्ण भवन आधारित होता है और नैतिक स्वतन्त्रता के बिना
राजनीतिक एवं सामाजिक स्वतन्त्रता का कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता।
(4) सम्पत्ति का अधिकार
(
वर्तमान समय में सम्पत्ति के अधिकार को
अनियन्त्रित रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि सम्पत्ति का
अधिकार जहाँ एक ओर दया, दान, उदारता,
स्नेह, कार्यक्षमता, आदि
मानवीय गुणों की ओर प्रेरित करता है, वहाँ यह विषमता,
भेदभाव, वैमनस्य और शोषण के दुर्गुणों का भी
कारण बन जाता है। अतः जनकल्याण की दृष्टि से सम्पत्ति के अधिकार को सीमित किया जा
सकता है। इस सम्बन्ध में लास्की ने लिखा है कि "सम्पति
का अधिकार तभी तक है जब तक कि मेरी सेवा की दृष्टि से उसका कुछ महत्व से हुआ हो।
मेरा है—उस वस्तु पर मेरा स्वामित्व नहीं हो सकता, जिसका
उत्पादन प्रत्यक्षतः किसी अन्य के श्रम किसी वस्तु का स्वामित्व न्यायपूर्ण नहीं
हो सकता, यदि उसके परिणामस्वरूप मुझे अन्य व्यक्तियों के
जीवन पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।" एक अन्य स्थान पर
लास्की ही लिखते हैं कि “धनवान तथा निर्धन में विभाजित समाज
रेत की नींव पर टिका होता है। सम्पत्ति अकर्मण्यता को घोषित करती है। सम्पत्तिवान
लोग रचनात्मक कार्यों में अपना समय नहीं लगाते। इसके अतिरिक्त सम्पत्ति राजनीति
में अवांछनीय रूप से धन का रौब पैदा करती है, जो कि अन्त में
समस्त प्रशासन को दूषित कर देता है।" यह एक तथ्य है कि
सम्पत्ति का अधिकार सामाजिक आवश्यकताओं से मर्यादित होता है।
(5) रोजगार का अधिकार
(
नैतिक रूप में वर्तमान समय के सभी राज्य इस
अधिकार के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, किन्तु
भारत जैसे अनेक राज्यों में आर्थिक साधनों के अभाव के कारण राज्य कानूनी रूप में
नागरिकों को अब तक इस प्रकार का अधिकार प्रदान नहीं कर सका है।
(6) शिक्षा का अधिकार
(
(7) परिवार का अधिकार
(
राजनीतिक अधिकार
(Political Rights)—राजनीतिक
अधिकारों का तात्पर्य उन अधिकारों से है जो व्यक्ति के राजनीतिक जीवन के विकास के
लिए आवश्यक होते हैं और जिनके माध्यम से व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
शासन प्रबन्ध में भाग लेते हैं। साधारणतया एक प्रजातन्त्रात्मक राज्य के द्वारा
अपने नागरिकों को निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं :
(1) मत देने का अधिकार
(
(2) निर्वाचित होने का अधिकार
(right to be elected) —प्रजातन्त्र में शासक और शासित का कोई भेद नहीं होता और योग्यता सम्बन्धी कुछ प्रतिबन्धों के साथ सभी नागरिकों को जनता के प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार होता है। इसी अधिकार के माध्यम से व्यक्ति देश की उन्नति में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है।
(3) सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार
(
(4) आवेदन-पत्र और सम्मति देने का अधिकार
(
राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
(Right to revolt
against the State) – साधारणतया यह प्रश्न किया
जाता है कि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार है अथवा नहीं? यदि व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त हो तो किस सीमा तक और किन परिस्थितियों
में इस अधिकार का उपयोग किया जा सकता है।
राज्य के प्रति भक्ति और राज्य की आज्ञाओं
का पालन व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य होता है और इसलिए व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध
विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता,
लेकिन व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य
ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि शासन के अस्तित्व का उद्देश्य जन-इच्छा को
कार्यरूप में परिणत करते हुए सामान्य कल्याण होता है और यदि शासन सामान्य कल्याण
की साधना में असफल हो जाता है या शासन जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता,
तो उस शासन को अस्तित्व में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं
रह जाता है। नागरिकों को इस प्रकार की सरकार को पदच्युत करने का अधिकार होता है और
यदि संवैधानिक मार्ग से इच्छित परिवर्तन न किया जा सके तो व्यक्ति को अधिकार है कि
वह शक्ति के आधार पर वांछित परिवर्तन करने का प्रयत्न करे।
लास्की ने कहा है कि
“नागरिकता व्यक्ति के विवेकपूर्ण निर्णय का जनकल्याण में प्रयोग है।"
ऐसी परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाय कि
विद्यमान शासन-व्यवस्था सर्वसामान्य के हित में कार्य नहीं कर सकती तो राज्य के
प्रति विद्रोह व्यक्ति का एक नैतिक अधिकार ही नहीं, वरन् एक
नैतिक कर्तव्य भी हो जाता है और जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा है कि “व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है।"
अतः अन्तरात्मा की पुकार पर सरकार का विरोध किया जा सकता है।
इस बात का अवश्य ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि
विद्रोह का अधिकार 'राज्य की अन्तिम औषधि है न
कि प्रतिदिन का भोजन।' इसलिए दूसरे सभी सम्बन्धित पहलुओं पर
विचार किये जाने के बाद ही इस
अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। इस सम्बन्ध
में टी. एच. ग्रीन ने अपनी पुस्तक 'राजनीतिक
दायित्व के सिद्धान्त' (Principles of Political Obligations) में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे पर्याप्त
महत्वपूर्ण है। ग्रीन, महात्मा गांधी, आदि
विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि
निम्नलिखित बातों के पूरा होने पर ही विद्रोह के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है
:
(1) स्थिति को सुधारने और वांछित परिवर्तन
लाने के लिए विद्रोह के पूर्व सभी प्रकार के संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया जाना
चाहिए और संवैधानिक साधनों की असफलता के बाद ही विद्रोह के सम्बन्ध में सोचा जाना
चाहिए।
(2) विद्रोह की भावना वैयक्तिक न होकर
सामाजिक होनी चाहिए। सरकार द्वारा किये जाने वाले अन्याय साधारण प्रकृति के न होकर
गम्भीर प्रकृति के होने चाहिए और विद्रोह करने वाली जनता विद्रोह के उद्देश्य से
पूर्व-परिचित होनी चाहिए।
(3) विद्रोह किसी वर्ग विशेष के हित की
प्रेरणा से नहीं वरन् सार्वजनिक हित की प्रेरणा से किया जाना चाहिए।
(4) विद्रोह करने वाले व्यक्ति चरित्रवान,
संयमी और विवेकशील होने चाहिए। उनका विवेक पक्ष भावना पक्ष से सबल
होना चाहिए और उन्हें विद्रोह के भिन्न-भिन्न रूपों का ज्ञान होना चाहिए।
(5) अनेक बार विद्रोह के परिणाम विद्रोह
के पूर्व की स्थिति से भयंकर होते हैं। अतः विद्रोह करने से पूर्व विद्रोह से होने
वाली लाभ-हानि पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर लिया जाना चाहिए। यदि विद्रोह का परिणाम
तत्कालीन स्थिति से सन्तोषजनक प्रतीत होता हो, तभी विद्रोह
किया जाना चाहिए।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यद्यपि
व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार प्राप्त होता है,
लेकिन इस प्रकार के अधिकार का प्रयोग सभी प्रकार की बातों पर
सोचने-विचारने के बाद विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।
अधिकार विषयक सिद्धान्त-व्यक्ति के ये
अधिकार कैसे अस्तित्व में आये और वर्तमान समय में इन अधिकारों का क्या रूप होना
चाहिए,
इस सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया
है और इन्हें ही 'अधिकार विषयक सिद्धान्त' कहा जाता है। अधिकार विषयक सिद्धान्त में निम्नलिखित हैं :
प्रमुख
(1) अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त (Natural
Theory of Rights)
(2) अधिकारों का वैधानिक सिद्धान्त (Legal
Theory of Rights)
(3) अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त (Historical
Theory of Rights)
(4) अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धान्त (Social
Welfare Theory of Rights) (5) अधिकारों का आदर्शवादी या
व्यक्तिवादी सिद्धान्त ( Idealistic Theory of Rights) अधिकारों
का प्राकृतिक सिद्धान्त
अधिकारों के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त सबसे
अधिक प्राचीन है और इसका प्रचलन यूनानियों के समय से है। इस सिद्धान्त के अनुसार
मानवीय अधिकार पूर्णतया प्राकृतिक और जन्मसिद्ध हैं। इस सिद्धान्त के मतानुसार
जैसा कि आशीर्वादम ने कहा है, “अधिकार उसी प्रकार
मनुष्य की प्रकृति के अंग होते हैं जिस प्रकार उसकी चमड़ी का रंग। इनकी विस्तृत
व्याख्या करने या औचित्य बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। वे तो स्वयंसिद्ध हैं।""
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार जन्मजात,
निरपेक्ष और स्वयंसिद्ध हैं। वे व्यक्ति को प्रकृति की देन हैं और
समाज तथा राज्य द्वारा व्यक्ति के अधिकारों पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं
लगाया जाना चाहिए।
हॉब्स, लॉक,
रूसो, मिल्टन, वाल्टेयर,
टॉमस पेन, हर्बर्ट स्पेन्सर, ब्लेकस्टोन, आदि विद्वानों ने इस सिद्धान्त का पोषण
किया है। सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादक इस सिद्धान्त के सबसे बड़े समर्थक
रहे हैं। उनका अनुमान है कि प्रारम्भ से ही
व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकार थे और संविदा करते समय वह अपने इन अधिकारों में
से कुछ को अपने से उच्च सत्ता को केवल इसलिए सौंप देता है कि उसके शेष अधिकारों की
रक्षा हो सके। स्पेन्सर का विचार है कि समान स्वाधीनता का अधिकार सभी व्यक्तियों
का मौलिक अधिकार है। लॉक के शब्दों में, "सभी
मनुष्य स्वतन्त्र और विवेकी पैदा होते हैं और समाज में आने के पूर्व ही व्यक्ति को
ये अधिकार प्राप्त होते हैं। "
सिद्धान्त का प्रभाव - इस सिद्धान्त ने
फ्रांस और अमरीका की क्रान्ति के प्रेरक सिद्धान्त के रूप में कार्य किया था और
इसके आधार पर ही स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व
की घोषणा की गयी थी। इस सिद्धान्त के आधार पर ही वर्तमान समय में भोजन, वस्त्र, निवास और आजीविका को व्यक्ति के प्राकृतिक
अधिकार कहा जाता है।
और महत्व आलोचना-अधिकारों के इस प्राकृतिक
सिद्धान्त ने उस समय व्यक्ति के जीवन का मूल्य स्थापित किया,
जबकि मानव का महत्व पशुओं से अधिक नहीं समझा जाता था, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में इस सिद्धान्त का अधिक महत्व नहीं है और
निम्नलिखित आधारों पर इस सिद्धान्त की आलोचना की जा सकती है :
(1) प्राकृतिक शब्द अस्पष्ट और भ्रामक
(natural words vague and confusing) – प्राकृतिक सिद्धान्त में जिस प्राकृतिक शब्द का प्रयोग किया गया है, वह पूर्णतया अनिश्चित और अनेकार्थक है। प्रो. रिची (Ritchie ) के अनुसार, “प्राकृतिक शब्द के कई अर्थ हैं, जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, सृष्टि का वह भाग जहाँ मनुष्य नहीं है, आदर्श या पूर्ण लक्ष्य, अपूर्व, साधारण या औसत । "
उपर्युक्त सिद्धान्त में प्राकृतिक शब्द का
प्रयोग किस अर्थ में किया गया है, इस सम्बन्ध में
निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः इस सिद्धान्त के किसी भी
प्रतिपादन ने प्राकृतिक शब्द को स्पष्ट नहीं किया है। प्राकृतिक शब्द का अर्थ
अनिश्चित होने के कारण यह सिद्धान्त भी नितान्त अनिश्चित एवं भ्रमपूर्ण हो जाता
है।
(2) प्रतिपादक प्राकृतिक अधिकारों की सूची पर एकमत नहीं
(The exponents did not agree on the list of natural rights)—प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त थे अथवा वर्तमान समय में इस धारणा के अनुसार नागरिकों को कौन-से अधिकार प्राप्त होने चाहिए, इस सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं और इस एकमतता के अभाव में प्राकृतिक अधिकारों की कोई सूची नहीं बनाई जा सकती। इस सिद्धान्त के कुछ समर्थक व्यक्तिगत सम्पत्ति को प्राकृतिक मानते हैं तो अन्य पूर्ण आर्थिक समानता को प्राकृतिक समझते हैं। कुछ विद्वान स्त्री-पुरुष की समानता का समर्थन करते हैं तो कुछ इसका विरोध। लास्की ने इसी बात को लक्ष्य करते हुए लिखा है कि “अधिकारों की कोई स्थायी या अपरिवर्तित सूची निर्मित नहीं की जा सकती।'
(3) अधिकारों की निरपेक्षता स्वीकार नहीं
(Absolutism of rights not accepted)—इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिकार व्यक्ति को प्रकृति की देन होने के कारण निरपेक्ष हैं और अधिकारों पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण नहीं लगाया जा सकता, लेकिन व्यवहार में स्वतन्त्रता और समानता के अधिकारों का प्रयोग प्रतिबन्धों की विद्यमानता में ही किया जा सकता है। प्रतिबन्ध के अभाव में स्वतन्त्रता उच्छृंखलता में परिणत हो जाती है और समानता एक कल्पना मात्र बनकर रह जाती है। इस प्रकार के निरपेक्ष अधिकार आवश्यक रूप से सम्पूर्ण समाज के हित के विरुद्ध होंगे।
(4) प्राकृतिक अधिकारों में पारस्परिक विरोध
(conflict between natural rights) -प्राकृतिक अधिकारों में विरोधाभास का दोष भी पाया जाता है। अधिकारों की निरपेक्षता को स्वीकार कर लेने पर स्वतन्त्रता और समानता के अधिकार परस्पर विरोधी हो जाते हैं और इनमें से किसी का भी उपयोग नहीं किया जा सकता है।
(5) राज्य कृत्रिम संस्था नहीं
(state is not an artificial institution)—इस सिद्धान्त के अनुसार, राज्य एक कृत्रिम संस्था है, जिसने शक्ति के आधार पर नागरिकों को अधिकारों से वंचित कर दिया है, किन्तु वास्तविकता इसके नितान्त विपरीत है। राज्य एक शाश्वत संस्था है जिसने अपने कानूनों द्वारा मानवीय अधिकारों का अपहरण नहीं, वरन् रक्षा की है। वास्तव में, राज्य एक प्राकृतिक समुदाय है और कानूनों के बिना अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
(6) सामाजिक मान्यता के अभाव में अधिकार की कल्पना सम्भव नहीं
(Imagining rights is not possible in the absence of social recognition)—इस सिद्धान्त में समाज से अलग रहकर अधिकारों की कल्पना की गयी है, लेकिन ऐसा सम्भव नहीं है। समाज से अलग रहकर हमारे पास शक्तियाँ हो सकती हैं, अधिकार नहीं, क्योंकि बिना सामाजिक मान्यता के अधिकार का अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता। जैसा कि गिलक्राइस्ट (Gilchrist) ने कहा है कि “अधिकारों की उत्पत्ति इसी तथ्य से हुई है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।"" वस्तुतः अधिकार तो व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला वह दावा है, जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।
महत्त्व
(importance)—इस प्रकार अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का जिस रूप में प्रतिपादन किया गया है, उस रूप में वह सर्वथा अमान्य है। फिर भी इस रूप में प्राकृतिक सिद्धान्त को स्वीकार किया जा सकता है कि प्राकृतिक अधिकारों का तात्पर्य उन अधिकारों के उपयोग से है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं और जिनसे मनुष्यों को वंचित नहीं किया जा सकता है। वर्तमान समय के अमरीका, भारत, आदि देशों के संविधानों में मौलिक अधिकारों की जो व्यवस्था की गयी है, वह अधिकारों की इसी धारणा पर आधारित है। प्राकृतिक सिद्धान्त और मौलिक अधिकारों की धारणा में अन्तर केवल यही है कि मौलिक अधिकारों की धारणा में स्पष्ट रूप से यह समझ लिया गया है कि राज्य मानव अधिकारों का हनन नहीं, वरन् रक्षा करता है। अतः लॉर्ड के शब्दों में कहा जा सकता है कि “यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि प्राकृतिक अधिकार वे शर्तें हैं जो मानवीय संस्था द्वारा प्रदान की गयी हों अथवा नहीं, परन्तु जो व्यक्तित्व के विकास हेतु अत्यावश्यक हैं।”2 गिलक्राइस्ट इसी प्रकार की पुष्टि इन शब्दों में करता है: “प्राकृतिक अधिकारों को जिस उचित अर्थ में लिया जा सकता है, वह केवल यही है कि मनुष्य को नीतिशास्त्र के अनुसार सच्चा मनुष्य बनने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सब उसे अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए।"
अधिकारों का वैधानिक सिद्धान्त
(legal theory of rights)
यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के
नितान्त विपरीत है और इसके अनुसार अधिकार प्राकृतिक या स्वाभाविक नहीं वरन्
कृत्रिम हैं। अधिकार राज्य की इच्छा और कानून के परिणाम होते हैं और एक व्यक्ति के
केवल वे ही अधिकार हो सकते हैं, जिन्हें राज्य मान्यता
प्रदान करता है। हमारे अधिकारों का अस्तित्व राज्य की इच्छा और कार्यों पर निर्भर
करता है। राज्य पुराने अधिकारों को छीन सकता और नये अधिकारों को जन्म भी दे सकता
है। जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार राज्य द्वारा
ही दिये गये हैं और राज्य ही इस बात का निर्णय करता है कि हमारे द्वारा इन
अधिकारों का उपयोग किन परिस्थितियों में और किन सीमाओं के साथ किया जायेगा। इस
सिद्धान्त के अनुसार राज्य अधिकारों के सम्बन्ध में तीन प्रकार के कार्य करता है—
(1) अधिकारों की परिभाषा करना, (2) उनकी
सीमाएँ निर्धारित करना और (3) उनके उपभोग के आश्वासन की
व्यवस्था करना।
वैधानिक सिद्धान्त अधिकारों की निरपेक्षता
को भी स्वीकार नहीं करता और इस बात का प्रतिपादन करता है कि सामाजिक हित में
व्यक्ति के अधिकारों को प्रतिबन्धित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए।
वैधानिक सिद्धान्त का समर्थन बेन्थम,
ऑस्टिन, हॉब्स, हालैण्ड,
आदि विद्वानों द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों के
अनुसार अधिकारों का मापदण्ड नैतिक आधार न होकर वास्तविकता होने के कारण, इस सिद्धान्त को वास्तविक कहा जा सकता है।
आलोचना-अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त की भी
निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है।
(1) राज्य
के आदेश कानूनों का निर्माण नहीं करते-राज्य
अथवा शासन के आदेश से ही कानूनों का निर्माण नहीं हो जाता है,
वस्तुतः राज्य अधिकारों को जन्म नहीं देता, उन्हें
मान्यता प्रदान करता है और रक्षा करता है। उदाहरण के लिए, राज्य
का कोई भी कानून चोरी, घूसखोरी और कालाबाजारी को व्यक्ति का
अधिकार नहीं बना सकता है। इस सम्बन्ध में नॉर्मन वाइल्ड ने उचित ही कहा है,
“कानून हमारे अधिकारों को
मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है,
परन्तु वह उन्हें जन्म नहीं दे सकता। अधिकारों को कानून का स्वरूप
दिया जाय या न दिया जाय, उनका अपना अलग अस्तित्व है। कोई भी
अधिकार केवल इसलिए अधिकार नहीं होता है कि उसे कानूनी मान्यता प्राप्त है वरन
कानूनी मान्यता इसलिए प्रदान की जाती है कि नैतिक दृष्टि से यह व्यक्ति का अधिकार
होता है। लास्की ने कहा है कि "अधिकारों का वैधानिक
सिद्धान्त केवल यह बता सकता है कि वास्तव में राज्य का स्वरूप कैसा है, लेकिन उससे यह पता नहीं चलता कि राज्य ने जिन अधिकारों की मान्यता दी है,
वे वास्तव में मान्यता योग्य हैं भी या नहीं।"
(2) राज्य निरंकुश व
स्वेच्छाचारी हो जायगा-यदि हम यह मान लें कि
राज्य ही अधिकारों का एकमात्र जन्मदाता है तो इसके परिणामस्वरूप राज्य निरंकुश व
स्वेच्छाचारी हो जायगा और शासक अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए व्यक्ति के अधिकारों
का अन्त कर देंगे। आशीर्वादम ने इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि
"यह कहना कि एकमात्र राज्य ही अधिकारों की सृष्टि करता है
राज्य को निरंकुश बना देता है।" राज्य को हम ऊँचा स्थान
देने को तैयार हैं, लेकिन उसे इतना ऊँचा स्थान नहीं दिया जा
सकता। यदि सभी अधिकार राज्य द्वारा प्रदान किये जाने लगें, तो
राज्य एक 'विशालकाय दैत्य' (Leviathan) के रूप में प्रकट होने लगेगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति राज्य के हाथ
कठपुतली मात्र बन जायगा। वह हर बार हर प्रकार की सुविधा के लिए राज्य का मुँह
ताकेगा और उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जायेगी। वस्तुतः राज्य की शक्ति
और कार्यों की भी कुछ निश्चित सीमाएं हैं; जैसे—राज्य इतिहास,
परम्परा, रीति-रिवाज व नैतिकता की मर्यादाओं
के अन्तर्गत रहते हुए ही कार्य करता है और इन्हीं मर्यादाओं में रहते हुए अधिकारों
से सम्बन्धित कानूनों का निर्माण करता है। राज्य न तो निरंकुश होता है और न ही
होना चाहिए। लास्की के शब्दों में, अधिकारों की प्रतिष्ठा
लिखित विधान की अपेक्षा अभ्यास और परम्परा पर अधिक निर्भर करती है।"
(3) कानून अधिकारों का उचित
आधार नहीं–कानून अधिकारों का उचित आधार ही नहीं हो
सकते,
क्योंकि कानून में नित्य प्रति संशोधन (परिवर्तन) होते रहते हैं।
अधिकारों को उनका यथोचित महत्व और सम्मान प्रदान करने की दृष्टि से औचित्य की
भावना को ही अधिकार के आधार रूप में स्वीकार किया जा सकता है। लॉर्ड ने ठीक ही कहा
है कि “किसी भी प्रकार की नैतिक व्यवस्था अधिकारों की
आवश्यकता की पूर्व-कल्पना है। इसके अभाव में प्रभाव, प्रयत्न,
दावे या शक्तियां हो सकती हैं, परन्तु इनको
अधिकार नहीं कहा जा सकता। अधिकार का आधार तो औचित्य की भावना ही होती है।
(4) वैधानिक अधिकारों के
सम्बन्ध में भी स्वीकार नहीं—उपर्युक्त आलोचनाओं
से बचने के लिए वैधानिक सिद्धान्त के कुछ प्रतिपादक यह कहते हैं कि राज्य केवल
वैधानिक कानूनों का निर्माण करता है, परन्तु इस
बात को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। व्यवहार में देखा जाता है कि समाज द्वारा
मान्यता प्राप्त अधिकारों को ही राज्य द्वारा स्वीकृत किया जाता है। इसके अतिरिक्त
जैसा कि प्रो. हॉकिंग्स (Hockings) ने कहा है, “विधि का किसी समय जो स्वरूप है और जो होना चाहिए उन दोनों के बीच सदैव ही
अन्तर रहता है।" ऐसी स्थिति में वैधानिक सिद्धान्त यह
तो बता सकता है कि एक विशेष परिस्थिति में नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त
हैं, लेकिन यह नहीं बतला सकता कि नागरिकों को कौन-से अधिकार
प्राप्त होने चाहिए।
महत्व —
यद्यपि इस सिद्धान्त की इस प्रकार से आलोचनाएँ की जाती हैं,
लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस सिद्धान्त में सत्य
का अंश है। समाज की ओर से जिन स्वतन्त्रताओं और सुविधाओं को मान्यता प्रदान कर दी
गयी है या व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए जो स्वत्व या दावे अनिवार्य हैं, उन्हें उस समय तक अधिकार नहीं कहा जा सकता, जब तक कि
उन्हें राज्य के द्वारा मान्यता न प्रदान कर दी जाय। वस्तुतः अधिकारों अधिकारों के
वैधानिक और नैतिक दो पक्ष होते हैं और अधिकारों के वैधानिक पक्ष पर बल देकर इसके
द्वारा आंशिक सत्य का प्रतिपादन किया गया है।
अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त
(historical theory of rights)
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार इतिहास के
परिणाम होते हैं। वर्षों से जिन रीति-रिवाजों का हम पालन कर रहे होते हैं वे ही
रीति-रिवाज अधिकार के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार
अधिकार का निर्माण न तो राज्य द्वारा किया जाता है और न ही ये प्राकृतिक होते हैं,
बल्कि धीरे-धीरे जिन रीति-रिवाजों के हम अभ्यस्त हो जाते हैं और
समाज जिन्हें स्वीकार कर लेता है, वे ही अधिकार बन जाते हैं।
इस सिद्धान्त के समर्थक प्रो. रिची ने लिखा है कि “जिन
अधिकारों के सम्बन्ध में लोग सोचते हैं कि वे उन्हें मिलने ही चाहिए, वे ही अधिकार होते हैं, जिनके वे अभ्यस्त होते हैं
या जिनके सम्बन्ध में सही या गलत उनकी यह धारणा होती है कि वे उन्हें कभी प्राप्त
थे।”" अप्रत्यक्ष रूप से अधिकारों के ऐतिहासिक
सिद्धान्त का समर्थन करते हुए ही बर्क कहते हैं कि “इंगलैण्ड
की गौरवपूर्ण क्रान्ति का आधार अंग्रेजों के रीति-रिवाजों पर आधारित अधिकार ही थे।"
आलोचना-वर्तमान
समय में इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि अधिकार ऐतिहासिक
रीति-रिवाजों के परिणाम हैं। निम्नलिखित आधारों पर इस सिद्धान्त की आलोचना की जाती
है
(1) सभी अधिकार रीति-रिवाज के
परिणाम नहीं—हमारे कुछ अधिकार रीति-रिवाज पर आधारित
हो सकते हैं, किन्तु सभी अधिकारों को रीति-रिवाजों का
परिणाम नहीं कहा जा सकता। सती-प्रथा या बहुपत्नीत्व का निषेध, शारदा कानून और हरिजनों का मन्दिर प्रवेश भारत के रीति-रिवाजों के विपरीत
हैं, फिर भी समझदार लोकमत ने बिना किसी हिचकिचाहट के इन
विधेयकों का समर्थन किया है।
(2) सभी रीति-रिवाज समाज हित
में नहीं होते—अधिकार आवश्यक रूप से मानव
कल्याण और समाज हित में होते हैं, किन्तु मानव जाति के
इतिहास में विभिन्न समयों पर प्रचलित सभी रीति-रिवाज समाज हित में नहीं होते थे।
उदाहरणार्थ, भूतकाल में दास-प्रथा, बाल-हत्या,
सती-प्रथा, बहुपत्नीत्व एवं बाल-विवाह की
प्रथाएँ विद्यमान रही हैं, किन्तु ये प्रथाएँ समाज हित के
विरुद्ध होने के कारण इन्हें अधिकार रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। प्रो.
हॉकिंग्स ठीक ही कहते हैं कि "यह कहना कि रीति-रिवाज
हमेशा ठीक ही होते हैं उतना ही मूर्खतापूर्ण है जितना यह कहना कि विधि किसी भी चीज
को उचित बना सकती है।"
(3) सुधार की सम्भावना का
अन्त-यदि इस सिद्धान्त के आधार पर प्रथाओं के
विकसित रूप को ही अधिकार मान लिया जाय तो सुधारों की सम्भावना का अन्त हो जाता है।
प्रो. हॉकिंग्स के विचार में, “ऐतिहासिक यदि सिद्धान्त
या तो कतई पथप्रदर्शन नहीं करता, यदि करता है तो गलत करता
है। यह असहाय सिद्धान्त है, व्याख्या के विभिन्न स्वतन्त्र
स्रोतों से उसे आलोकित न किया जाय। इतिहास की निस्सन्देह अवहेलना नहीं की जा सकती,
किन्तु केवल इतिहास पर निर्भर भी नहीं रहा जा सकता है।” यदि भूतकाल में शिक्षा या विदेशी यात्रा का रिवाज नहीं था तो इसका मतलब यह
नहीं है कि हम स्पूतनिक युग में भी कूपमण्डूक ही बने रहें । महत्व—इन आलोचनाओं के
होते हुए भी इस सिद्धान्त में यह सत्य निहित है कि व्यक्ति के अनेक अधिकार
रीति-रिवाज और परम्पराओं पर आधारित हैं।
अधिकारों का समाज कल्याण सिद्धान्त
(social welfare theory of rights)
इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार समाज की देन
हैं। अधिकारों का अस्तित्व समाज कल्याण पर आधारित होता है और व्यक्ति केवल उन्हीं
अधिकारों का उपयोग कर सकता है जो समाज हित में हों। इस सिद्धान्त के अनुसार कानून,
रीति-रिवाज और अधिकार सभी को समाज कल्याण के सामने झुकना चाहिए और
इन सबका उद्देश्य समाज कल्याण ही होना चाहिए।
बेंथम और मिल जैसे उपयोगितावादियों और
रास्की पाउण्ड (Roscoe Pound) एवं प्रो. चेफर
(Chafer), आदि विद्वानों द्वारा इस सिद्धान्त का समर्थन किया
गया है और लास्की ने भी उपयोगिता को ही अधिकार
की कसौटी माना है। बेंथम के अनुसार,
“अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख" का
सिद्धान्त ही निर्धारित करता है कि व्यक्ति को कौन से अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
प्रो. चेफी का कहना है कि "अधिकारों का निश्चय हितों के
सन्तुलन से होता है।" इसी प्रकार प्रो. लास्की कहते हैं
कि “लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे कोई अधिकार नहीं हो सकते,
क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार देना है जिसमें
मेरा कल्याण घनिष्ठ व अविच्छिन्न रूप में जुड़ा हुआ है।
आलोचना-यद्यपि अधिकारों की विवेचना के
सम्बन्ध में यह सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा औचित्यपूर्ण व सन्तोषजनक
प्रतीत होता है, किन्तु यह भी दोषमुक्त नहीं है और
निम्नलिखित आधारों पर इस सिद्धान्त की आलोचना की जाती है :
(1) लोक-कल्याण की अस्पष्टता-लोकहित
अधिकारों की अच्छी कसौटी कही जा सकती है, लेकिन
लोकहित या लोक-कल्याण की व्याख्या नितान्त कठिन है। लोक-कल्याण का अर्थ सामान्यतया
अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख, बहुमत का स्वार्थ, लोकसम्मति या शासन की दृष्टि में जो सार्वजनिक हित हो, आदि बातों से लिया जाता है। यदि इनमें से किसी एक को लोकहित या लोक-कल्याण
मान भी लें, तो भी अधिक कार्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि ये शब्द नितान्त अस्पष्ट और अनिश्चित हैं। अधिक-से-अधिक कोई माप
नहीं हो सकता और सम्पूर्ण समाज की कोई चेतना हो ही नहीं सकती है।
(2) व्यक्तिगत कल्याण और लोक-कल्याण
में संघर्ष—इसके अतिरिक्त सामाजिक कल्याण और
व्यक्तिगत कल्याण में भी संघर्ष हो सकता है और ऐसी स्थिति में क्या किया जाय,
यह एक समस्या हो जाती है। समाज
कल्याण सिद्धान्त का विचार यह है कि समाज
कल्याण के लिए व्यक्तिगत हित का बलिदान कर दिया जाना चाहिए,
लेकिन इसे वर्तमान समय में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका
तात्पर्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा है। प्रश्न यह है कि क्या एक
निर्दोष व्यक्ति का समाज के बड़े अंश की प्रसन्नता के लिए बलिदान किया जा सकता है?
इस सिद्धान्त को अपनाने से अल्पसंख्यकों के हितों को हानि पहुँचने
की भी आशंका रहती है। व्यक्ति को जनमत की दया पर नहीं छोड़ा जा सकता। केवल लोक
आवश्यकता ही किसी बात को नैतिक अथवा अनैतिक नहीं बना सकती। नॉर्मन वाइल्ड का भी
कहना है कि “यदि समाज की कृपा से अधिकारों की कृति होती है,
तो व्यक्ति के पास उपचार का कोई साधन नहीं होगा और वह निराशाजनक रूप
से समाज की निरंकुश इच्छा के अधीन रहेगा।”
महत्व—उपर्युक्त
आलोचनाओं के बावजूद इस दृष्टि से यह सिद्धान्त सत्य है कि अधिकार का अस्तित्व समाज
के हित के लिए होता है और उसका उपयोग समाज हित में ही किया जाना चाहिए।
आदर्शवादी या व्यक्तित्ववादी सिद्धान्त
(idealistic or individualistic theory)
इस सिद्धान्त के अनुसार समाज के अन्तर्गत
रहते हुए व्यक्ति के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना
होता है और अधिकार वे बाहरी परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्तित्व के विकास के लिए
आवश्यक होती हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए ये परिस्थितियाँ अनिवार्य
होने के कारण स्वाभाविक रूप से इन परिस्थितियों की प्राप्ति का अधिकार हो जाता है।
इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिकारों के अस्तित्व का
उद्देश्य एक आदर्श व्यक्तित्व के विकास की प्राप्ति माना गया है। अतः इसे
आदर्शवादी सिद्धान्त कहा जाता है और क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों का
अस्तित्व व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर आश्रित कर दिया गया है, इसलिए इसे व्यक्तित्ववादी सिद्धान्त भी कहा जाता है।
क्रास (Krause), हेनरीची
(Henrichi), ग्रीन, लास्की, आदि विद्वानों द्वारा अधिकारों की जो परिभाषाएँ की गयी हैं, वे अधिकारों के आदर्शवादी सिद्धान्त पर ही आश्रित हैं। क्रास आश्रित हैं।
क्रास के अनुसार, “अधिकार विवेकपूर्ण जीवन के विकास के लिए
आवश्यक बाहरी परिस्थितियाँ हैं" और हेनरीची कहते हैं कि
"मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए जो भौतिक परिस्थितियाँ
आवश्यक हैं, उनकी रक्षा के लिए जो कुछ जरूरी है वही अधिकार
है।" ग्रीन के अनुसार, “अधिकार वह
शक्ति है जो कि किसी मनुष्य के लिए नैतिक जीवन के रूप में उनके व्यवसाय और कर्तव्य
को पूरा करने के लिए आवश्यक है। "
यह सिद्धान्त प्राकृतिक धारणा की इस मान्यता
के सर्वथा प्रतिकूल है कि व्यक्ति कुछ प्राकृतिक अधिकारों के साथ जन्म लेता है। इस
सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति कुछ अधिकार नहीं वरन् प्राकृतिक शक्तियाँ लेकर जन्म
लेता है। प्राकृतिक शक्तियों के इस विकास का ही दूसरा नाम व्यक्तित्व का विकास है
और व्यक्तित्व के विकास हेतु उचित वातावरण प्रदान करने का कार्य समाज एवं राज्य
द्वारा किया जाता है। व्यक्तित्व के विकास हेतु व्यक्ति का जीवित रहना आवश्यक है।
अतः व्यक्ति का अधिकार है कि वह जीवित रहे। व्यक्तित्व के विकास हेतु शारीरिक
उन्नति आवश्यक होने के कारण उत्तम व स्वास्थ्यकर भोजन की प्राप्ति उसका अधिकार हो
जाता है और व्यक्तित्व के विकास में सहायक होने के कारण ही विवाह द्वारा परिवार का
निर्माण,
योग्यतानुसार कार्य व पारिश्रमिक की प्राप्ति और शिक्षा व्यक्ति के
अधिकार हो जाते हैं। इस प्रकार इस सिद्धान्त व्यक्ति के अन्य अधिकार इस मुख्य
अधिकार के सहायक मात्र हैं।
आदर्शवादी या व्यक्तित्ववादी सिद्धान्त अनेक
कारणों से अधिकारों की विवेचना के सम्बन्ध में सर्वाधिक सन्तोषप्रद सिद्धान्त कहा
जा सकता है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सर्वप्रथम तो इस तथ्य को स्वीकृति प्रदान की
गयी है कि व्यक्ति स्वयं में साध्य है और अन्य किसी के उत्कर्ष का साधन मात्र नहीं
है। इसके अतिरिक्त यह सिद्धान्त व्यक्तित्व को आदर्श रूप में स्वीकार करता है और
इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व को समान स्तर प्राप्त होता है।
यह सिद्धान्त इस तर्कपूर्ण बात का प्रतिपादन
करता है कि व्यक्ति को वे ही अधिकार प्राप्त होने चाहिए जो उसके व्यक्तित्व के
विकास के लिए आवश्यक हों। यह सिद्धान्त न तो व्यक्ति के गलत अधिकारों का समर्थन
करता है और न ही उसे उचित अधिकारों से वंचित करता है।
इस सिद्धान्त का एक अन्य गुण यह है कि यह
सिद्धान्त न तो प्राकृतिक सिद्धान्त की तरह अधिकारों की निरपेक्षता या असीमितता का
प्रतिपादन करता है और न ही वैधानिक सिद्धान्त या समाज कल्याण सिद्धान्त की तरह
अधिकारों की सापेक्षता का प्रतिपादन करते हुए यह कहता है कि समाज या राज्य
अधिकारों पर मनचाहे प्रतिबन्ध लगा सकता है। यह सिद्धान्त मध्यम मार्ग ग्रहण करते
हुए इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि एक व्यक्ति के अधिकारों पर केवल वे ही
प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिए, जो अन्य व्यक्तियों के
विकास हेतु आवश्यक हों।
आलोचना और प्रत्युत्तर—इन
गुणों के होते हुए भी आदर्शवादी सिद्धान्त की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह
सिद्धान्त अव्यावहारिक है। आलोचक यह कहते हैं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास
एक आन्तरिक एवं व्यक्तिगत चीज है और समाज एवं राज्य न तो ठीक प्रकार से यह जान
सकते हैं कि व्यक्ति के विकास हेतु कौन-सी परिस्थितियाँ आवश्यक हैं और न ही बाहरी
सुविधाओं के द्वारा व्यक्तित्व का विकास सम्भव बनाया जा सकता है।
किन्तु यह आलोचना इन त्रुटिपूर्ण विचारों पर
आधारित है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित रहते हुए
विकसित हो सकता है। वस्तुतः व्यक्ति का व्यक्तित्व बाहरी परिस्थितियों का परिणाम
होता है और एक बड़ी सीमा तक इसका विकास बाहरी वातावरण पर निर्भर करता है। कोई भी
विवेकशील व्यक्ति इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि राज्य शिक्षा,
स्वास्थ्य की देखभाल और रोजगार की उचित व्यवस्था करके व्यक्तित्व के
विकास में बहुत अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है। ग्रीन के शब्दों में कहा जा सकता है
कि “समाज एवं राज्य नैतिक जीवन के मार्ग की बाधाओं को बाधित
करके व्यक्ति के जीवन को नैतिक बना सकते हैं।" अतः इस
सिद्धान्त का यह प्रतिपादन कि व्यक्तित्व के विकास-रूपी आदर्श की प्राप्ति के लिए
जो कुछ आवश्यक है, वह व्यक्ति का अधिकार है, उचित ही प्रतीत होता है। व्यक्ति को कौन-से अधिकार प्राप्त होने चाहिए,
इस सम्बन्ध में आदर्शवादी सिद्धान्त एक ऐसा मापदण्ड प्रस्तुत करता
है जो अन्य सिद्धान्त नहीं बता पाते और इसलिए यह सिद्धान्त सर्वोत्तम है।
परिभाषा - कर्तव्य
की परिभाषा करते हुए कहा जाता है कि किसी विशेष कार्य को करने या न करने के
सम्बन्ध में व्यक्ति के उत्तरदायित्व को कर्तव्य कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में,
जिन कार्यों के सम्बन्ध में समाज एवं राज्य सामान्य रूप से व्यक्ति
से यह आशा करते हैं कि उसे वे कार्य करने चाहिए, वे ही
व्यक्ति के कर्तव्य कहे जा सकते हैं। कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं—नैतिक और
कानूनी ।
1. नैतिक कर्तव्य –
नैतिक कर्तव्यों का सम्बन्ध मनुष्य के अन्तःकरण, नैतिकता
तथा उचित-अनुचित की प्रवृत्ति से होता है और इनका पालन करने के लिए दण्ड की शक्ति
का प्रयोग नहीं किया जा सकता। नैतिक कर्तव्यों के उदाहरण हैं—सत्य बोलना और प्राणी
मात्र के हित की कामना, आदि। यद्यपि नैतिक दृष्टि से व्यक्ति
को सदैव ही इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, लेकिन यदि व्यक्ति
इनके विरुद्ध भी आचरण करें तो उन्हें दण्डित नहीं किया जा सकता है।
2. कानूनी कर्तव्य
-कानूनी कर्तव्य अपनी प्रकृति से ही नैतिक कर्तव्य से भिन्न होते हैं। इन्हें करना
या न करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर नहीं होता अपितु ये व्यक्ति के वे कर्तव्य
होते हैं जिनका पालन करना अनिवार्य होता है और जिनका पालन न करने पर व्यक्ति राज्य
द्वारा प्रदत्त दण्ड के भागी होते हैं। राजनीतिशास्त्र के अन्तर्गत प्रमुख रूप से
इन कानूनी कर्तव्यों का अध्ययन किया जाता है।
प्रमुख कानूनी कर्तव्य निम्न हैं :
(The main legal duties are:)
(1) राज्य के प्रति भक्ति—प्रत्येक
व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह उस राज्य के प्रति भक्ति रखे,
जिसका वह नागरिक है। व्यक्ति के विकास हेतु राज्य सभी प्रकार के
कार्य करता है और इन कार्यों के बदले में व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह
राज्य को अपना समझे, संकट के समय राज्य की रक्षा हेतु
प्रत्येक प्रकार का त्याग करने को तत्पर हो और किसी भी परिस्थिति में राज्य के
क्षेत्र या स्वाधीनता का किसी बाहरी सत्ता से सौदा न करे। आवश्यकता के समय सेना
में भर्ती होना व शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखना भी इसी के अन्तर्गत सम्मिलित
हैं।
(2) कानूनों का पालन-कानूनों
का पालन राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित रखने और राज्य में रहने वाले
नागरिकों के हित के लिए किया जाता है। अतः व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह
राज्य द्वारा निर्मित सभी कानूनों का पालन करे। कानूनों का न मानना राज्य का विरोध
करना है जो व्यक्ति और राज्य दोनों के लिए अहितकर है। यदि राज्य का कोई कानून
अनुचित है तो उसमें परिवर्तन के लिए संवैधानिक साधनों का आश्रय लिया जाना चाहिए,
लेकिन जब तक वह कानून है उसका पालन किया जाना चाहिए।
(3) कर देना-
राज्य को शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने और नागरिकों के हित में विविध प्रकार के
दूसरे कार्य करने के लिए आर्थिक शक्ति की आवश्यकता होती है और इस आर्थिक शक्ति को
प्राप्त करने के लिए राज्य विविध प्रकार के कर लगाता है। नागरिकों का कर्तव्य है
कि वे सहर्ष इस प्रकार के करों को स्वीकार करें और पूर्ण ईमानदारी के साथ इस
प्रकार के सभी करों का भुगतान करें। कर देने के सम्बन्ध में बेईमानी,
आनाकानी या छल अपराध की श्रेणी में आता है।
उपर्युक्त कर्तव्यों के अतिरिक्त ईमानदारी
के साथ मताधिकार का प्रयोग करना, सेवाभाव के साथ
सार्वजनिक पदों को ग्रहण करना, सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा
करना और राज्य कर्मचारियों को उनके कर्तव्यपालन में सहायता देना, आदि को भी व्यक्ति के राजनीतिक कर्तव्यों में सम्मिलित किया जाता है,
किन्तु इस प्रकार के कार्यों को विशुद्ध कानूनी कर्तव्य नहीं कहा जा
सकता है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार के कार्य न करने पर अर्थात् मताधिकार का
प्रयोग न करने या सार्वजनिक पद को स्वीकार न करने पर किसी प्रकार के दण्ड की
व्यवस्था नहीं की गयी है। साधारण रूप से यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति को प्रत्येक
रूप में राज्य के साथ सहयोग करना चाहिए और व्यक्ति द्वारा स्वयं अपने हित के
साथ-साथ समाज एवं राज्य के हित का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
अधिकार और कर्तव्य का सम्बन्ध
(RELATION BETWEEN RIGHTS AND DUTIES)
सामान्य दृष्टि से देखा जाय तो अधिकार और
कर्तव्य परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। साधारणतया अधिकार का आशय यह लिया जाता है
कि कोई विशेष व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को कोई कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता
है। इस प्रकार अधिकार प्राप्त करने से अभिप्राय लाभ उठाने से है। कर्तव्य का
अभिप्राय है दूसरों के लिए कोई कार्य करना। यह एक प्रकार से व्यक्तिगत हानि कही जा
सकती है। इस दृष्टि से देखा जाए तो अधिकार लाभ और कर्तव्य हानि प्रतीत होते हैं और
इन दोनों में एक प्रकार का विरोधाभास दिखायी देता है,
किन्तु इस प्रकार का दृष्टिकोण मिथ्या एवं भ्रमात्मक है। वस्तुतः
अधिकार और कर्तव्य एकदूसरे के पूरक हैं और एक के अभाव में दूसरे की कल्पना ही नहीं
की जा सकती है। उदाहरण के लिए, जब तक व्यक्तियों को आजीविका
प्राप्त करने, व्यापार या व्यवसाय का अधिकार नहीं होगा,
उस समय तक वे कर अदा करने के लिए आवश्यक धनराशि नहीं जुटा पाएंगे और
जब तक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे, उस समय
तक राज्य अपने नागरिकों के अधिकार की रक्षा करने की स्थिति में नहीं होगा। इसी बात
को दृष्टि में रखते हुए ग्रे (Gray) ने अधिकार को कर्तव्य का
पूरक बताया है। डॉ. बेनीप्रसाद ने ठीक ही कहा है कि “अधिकार
और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि व्यक्ति उन्हें अपने दृष्टिकोण से
देखता है तो अधिकार है और इसी को दूसरों के दृष्टिकोण से देखा जाता है तो वे कर्तव्य
हो जाते हैं। दोनों ही सामाजिक हैं और दोनों ही, वास्तव में,
समाज के सभी सदस्यों के लिए सही जीवन-यापन की परिस्थितियां हैं। यह
सोचना व्यर्थ है कि अधिकार कर्तव्य के पूर्व हैं या कर्तव्य अधिकार के। वे एकदूसरे
के पार्श्व भाग हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने अधिकारों पर ही जोर देता है,
लेकिन दूसरे व्यक्तियों के प्रति कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो
किसी के लिए भी कोई अधिकार शेष नहीं रहेगा।"
अधिकार और कर्तव्य दोनों ही सामाजिक मांगें
हैं और इन दोनों का सम्बन्ध निम्न रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है :
(1) एक व्यक्ति का अधिकार
दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य है—अधिकार एक
व्यक्तिगत प्रश्न नहीं वरन् आवश्यक रूप से एक सामाजिक प्रश्न है। सहयोग के द्वारा
ही अधिकार अस्तित्व में आते हैं और सहयोग के द्वारा ही उनका उपयोग किया जा सकता
है। वस्तुतः एक व्यक्ति का अधिकार समाज के दूसरे व्यक्तियों का कर्तव्य होता है और
व्यक्ति के अधिकार इस बात पर निर्भर करते हैं कि समाज के दूसरे व्यक्ति उसके प्रति
अपने कर्तव्य का किस सीमा तक पालन करते हैं। उदाहरण के लिए,
मैं अपने विचार और भाषण की स्वतन्त्रता के अधिकार का उसी समय उपयोग
कर सकता हूँ जबकि समाज के दूसरे लोग मेरे विचारों के प्रति सहिष्णु हो। वाइल्ड के
शब्दों में कहा जा सकता है कि “अधिकारों का महत्व केवल मात्र
कर्तव्यों के संसार में ही है।"
(2) व्यक्ति का अधिकार उसका
यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह दूसरों के समान अधिकार को स्वीकार करे-
अधिकारों का लक्षण यह है कि वे समाज के सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्राप्त
होते हैं और ऐसी स्थिति में व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि
वह दूसरे व्यक्तियों के इसी प्रकार के समान अधिकार को स्वीकार करे। यदि मुझे
सम्पत्ति का अधिकार है तो इस अधिकार के साथ ही मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं
दूसरे व्यक्तियों की सम्पत्ति को नष्ट करने का प्रयत्न न करूँ। डॉ. बेनीप्रसाद ने
ठीक ही कहा है कि "यदि प्रत्येक व्यक्ति
केवल अपने अधिकार का ही ध्यान रखे तथा दूसरों के प्रति कर्तव्यों का पालन न करे तो
शीघ्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे।"
(3) नागरिकता का अधिकार राज्य
का कर्तव्य-अधिकार व्यक्ति का वह विवेकपूर्ण दावा
है जिसे समाज स्वीकार करता और राज्य लागू करता है। अतः व्यक्ति के अधिकारों का
महत्व उसी समय तक है जब तक किराज्य इन अधिकारों को लागू करने की व्यवस्था करे। यदि
व्यक्ति के किसी अधिकार में कोई दूसरा बाधक सिद्ध होता है तो राज्य का कर्तव्य है
कि वह उसे दण्ड दे। वस्तुतः व्यक्ति के अधिकार राज्य का कर्तव्य व्यक्ति पालन की
क्षमता पर निर्भर करते हैं।
(4) व्यक्ति का अधिकार स्वयं
उसके लिए कर्तव्य है—अधिकार प्रदान करने का
उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास और सामूहिक रूप से सम्पूर्ण समाज की
उन्नति होती है। अतः व्यक्ति का अधिकार उसका यह कर्तव्य निश्चित करता है कि वह
अपने अधिकार का प्रयोग स्वयं अपने हित के साथ-साथ सामजिक हित में करे। मुझे
प्राप्त सम्पत्ति के अधिकार का तात्पर्य यह है कि मैं सम्पत्ति प्राप्त करने का
प्रयत्न इस प्रकार करूं कि सम्पूर्ण समाज या दूसरे व्यक्तियों की उन्नति में भी
कोई बाधा न पहुंचे, अर्थात् मुझे सम्पत्ति के
आधार पर दूसरे व्यक्तियों का शोषण नहीं करना चाहिए।
(5) व्यक्ति के अधिकार राज्य
के प्रति उसके कर्तव्य निर्धारित करते हैं—राज्य
के द्वारा व्यक्ति को जीवन, स्वतन्त्रता, शिक्षा और सम्पत्ति का अधिकार प्रदान किया जाता है और राज्य इस बात की
व्यवस्था करता है कि व्यक्ति व्यवहार में इन अधिकारों का उपयोग कर सके। इस प्रकार
राज्य व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा और व्यवस्था के कार्य करता है, उन कार्यों के बदले में व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह राज्य का
समर्थन और सहयोग करे, राज्य के प्रति भक्ति और निष्ठा रखे और
संकट की स्थिति में राज्य के लिए प्रत्येक प्रकार का त्याग करने को तत्पर रहे।
वस्तुतः अधिकार और कर्तव्य परस्पर
अन्योन्याश्रित हैं। अधिकार कर्तव्य का तथा कर्तव्य अधिकार का प्रतिबिम्ब मात्र
होता है। एक के अन्त से दोनों का ही अस्तित्व समाप्त हो जाता है। विश्व में बढ़ती
हुई ईर्ष्या, द्वेष, कलह,
घृणा और असन्तोष का एकमात्र कारण यह है कि व्यक्ति अपने अधिकारों का
तो उपभोग करना चाहते हैं, लेकिन कर्तव्यपालन के प्रति उदासीन
हैं। सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने का एकमात्र उपाय यह है कि
व्यक्ति पूर्ण निष्ठा के साथ कर्तव्यपालन करें। महात्मा गांधी के शब्दों में कहा
जा सकता है कि "कर्तव्य का पालन कीजिए और अधिकार स्वतः
ही आपको मिल जायेंगे।""
READ THE👉👉👉आई.पी.एस. अफसर (IPS OFFICER)