नैतिकता और कानून...
(LAW AND MORALITY)
प्राचीन समय में कानून को नैतिकता से पृथक नहीं माना जाता था। प्राचीन भारत में 'धर्म'(RELIGION IN ANCIENT INDIA) शब्द कानून से अभिन्न माना जाता था। प्लेटो के कथनानुसार, "सर्वश्रेष्ठ राज्य वह है जो व्यक्ति के सदाचार और धर्मपरायणता और नैतिकता दोनों के लिए प्रयुक्त होता था और यूनानी विचारधारा में भी कानून और नैतिकता को एक-दूसरे के अधिकाधिक समरूप हो। अरस्तू का कथन है कि राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के जीवन को नैतिक बनाने के लिए हैं, परन्तु कालान्तर में जब राज्य ने एक स्पष्ट राजनीतिक संगठन का स्वरूप प्राप्त कर लिया, तो कानून ने सत्ता के आदेश का रूप धारण किया और इसका स्वरूप बहुत कुछ सीमा तक नैतिकता से भिन्न हो गया।।
कानून और नैतिकता में भेद- कानून और नैतिकता में
महत्वपूर्ण एवं आधारभूत भेद निम्नलिखित है :
(1)
नैतिकता का क्षेत्र कानून की अपेक्षा बहुत अधिक विस्तृत है।
नैतिकता का सम्बन्ध मनुष्य के बाहरी तथा आन्तरिक - सम्पूर्ण जीवन के साथ होता है, परन्तु कानून का सम्बन्ध व्यक्ति के केवल बाहरी आचरण के साथ
होता है। यह सत्य है कि कानून कभी-कभी
व्यक्ति के आन्तरिक भावों का भी अध्ययन करता परन्तु ऐसा केवल पृष्ठभूमि के रूप में
और बाहरी आचरण के उद्देश्य निश्चित करने के लिए ही किया जाता है।
(२) कानून राज्य की शक्त शक्ति द्वारा मनवाये जाते हैं, परन्तु नैतिक नियमों के पीछे इस प्रकार की कोई शक्ति नहीं
होती। उनका पालन तो व्यक्ति अपने अन्तःकरण की प्रेरणा से ही करता है। यदि कोई
कानून को न माने, तो उसे राज्य द्वारा अवश्य ही दण्डित
किया जाएगा, परन्तु यदि कोई नियमों का पालन न करे, तो उसे इस प्रकार का कोई दण्ड नहीं दिया जा सकता। अधिक से
अधिक समाज के द्वारा उसे घृणित दृष्टि से देखा जा सकता है।
(3) कानून और नैतिकता में यह भी
भेद है कि कानून निश्चित और सर्वव्यापी होते हैं अर्थात् सभी
नागरिकों पर एक जैसे लागू होते हैं, परन्तु नैतिक नियम अस्पष्ट
और अनिश्चित होते हैं और नैतिकता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होता है
क्योंकि ये तो प्रत्येक व्यक्ति के अपने मन अथवा अन्तरात्मा के आदेश हैं। मैकाइवर
के शब्दों में, “सब व्यक्तियों के लिए केवल एक ही
कानून का होना आवश्यक है. किन्तु नैतिक नियम प्रत्येक
व्यक्ति के अपने आचरण तथा स्वभाव की अभिव्यक्ति होने के कारण प्रत्येक के लिए
भिन्न हैं।'
(4) सभी अनैतिक बातें गैर-कानूनी नहीं होती और सभी गैर-कानूनी बातें भी आवश्यक रूप से
अनैतिक नहीं मानी जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, दूसरों के अमंगल की कामना
करना अनैतिक है, परन्तु गैर-कानूनी नहीं। इसी प्रकार झूठ बोलना नैतिक नहीं है, किन्तु जिस झूठ का प्रयोग दूसरों को धोखा देने के लिए नहीं
किया जाता है, गैर-कानूनी नहीं होता। इसके विपरीत, एक
बड़े नगर की व्यस्त सड़कों पर दाहिनी ओर गाड़ी चलाना एक सामाजिक अपराध और कानून
द्वारा निषिद्ध है, परन्तु इस प्रकार का कार्य गैर-कानूनी होते हुए भी अनैतिक नहीं है। राज्य के इस
प्रकार के कानून नैतिकता की अपेक्षा व्यावहारिक सुविधा पर आधारित होते हैं।
घनिष्ठ
सम्बन्ध—परन्तु कानून और नैतिकता में
इतना अन्तर होते हुए भी इन दोनों का सम्बन्ध सदैव से बहुत घनिष्ट रहा है। आधुनिक
काल का राजनीतिक दर्शन भी इस बात को अस्वीकार नहीं करता कि मनुष्य स्वभावतः एक
नैतिक प्राणी है और वह केवल राज्य के भीतर रहकर ही अपने व्यक्तित्व का विकास कर
सकता है, क्योंकि राज्य उसके नैतिक जीवन की
सर्वोच्च स्थिति है। कानून और नैतिकता का सम्बन्ध अनेक रूपों से स्पष्ट किया जा
सकता है :
सर्वप्रथम, कानून समाज में प्रचलित नैतिक विचारों की
ही देन होते हैं और कानून का एक महत्वपूर्ण स्रोत नैतिकता होती है। वस्तुतः जब
नैतिक विचार स्थायी और प्रचलित हो जाते हैं, तो वे कानून का रूप ग्रहण कर लेते हैं। नागरिकों के द्वारा केवल उन्हीं कानूनों
का अच्छे प्रकार से पालन किया जा सकता है जो उनके नैतिक विचारों के अनुकूल हो।
कानून प्रायः नैतिकता के प्रतिबिम्ब होते हैं और इस सम्बन्ध में गैटल का कथन है कि “जो कानून लोगों की नैतिक धारणा के अनुकूल
नहीं होते,
उन्हें
लागू करना असम्भव हो जाता है प्रचलित नैतिक स्तरों को नहीं छूते, लोग उनकी उपेक्षा करने लगते हैं।" इसी प्रकार विल्सन ने लिखा है कि "कानून देश की नैतिक प्रगति के दर्पण होते
हैं।” यद्यपि बाल विवाह को सम्पूर्ण भारत में और
मद्य निषेध को भारत के एक बड़े भाग में कानून निषिद्ध घोषित कर दिया गया है, किन्तु फिर भी ये बुराइयां विद्यमान हैं
क्योंकि भारतीय समाज की नैतिक धारणा बाल विवाह और मद्यपान के पूर्णतया विरुद्ध
नहीं है।
द्वतीय
;, कानून के द्वारा भी नैतिक
स्तर और विचारो को परिमार्जित करने का कार्य किया जाता है |उदाहरण के लिए, सती प्रथा निषेध कानून ने इस सम्बन्ध में नैतिक मान्यता को
परिमार्जित किया है और बाल ः, कानून के द्वारा भी नैतिक
स्तर और विचारों को परिमार्जित करने का कार्य किया जाता है। विवाह के सम्बन्ध में
नैतिक मान्यता को प्रभावित किया जा रहा है।
तृतीयतः, व्यवहार में, कानून और नैतिकता एक-दूसरे के सहायक के रूप में कार्य
करते हैं।
नैतिकता के द्वारा व्यक्ति के विचार और आचरण को सुधार कर कानून के पालन हेतु
आवश्यक मनोभावना उत्पन्न की जाती है तो दूसरी ओर कानून नैतिक व्यवहार के लिए
आवश्यक परिस्थितियां पैदा करता है। जैसा कि बार्कर का कथन है, "कानून नैतिकता की रक्षा के
लिए उसके चारों ओर एक चहारदीवारी है।”
नैतिकता
और कानून में इतना सद्रिश है
कि कई बार अवैध और अनैतिक की विभाजन रेखा को पहचानना कठिन हो जाता है। जो बात आज
अनैतिक है, कल अवैध हो सकती है या जो आज अवैध है
कल अनैतिक भी हो सकती है। कानून और नैतिकता परस्पर घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं
और आइवर ब्राउन (Ivor Brown) के शब्दों में कहा जा सकता है कि “राजनीतिक सिद्धान्तों के अभाव में
नैतिक सिद्धान्तवाद अपूर्ण रह जाता है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह
समाज से विलग नहीं रह सकता, नैतिक सिद्धान्तों के अभाव
में राजनीतिक सिद्धान्त, निरर्थक रह जाते हैं क्योंकि
उनका अध्ययन और उनके परिणाम मूलतः हमारे नैतिक मूल्यों की व्यवस्था पर, हमारी सही और गलत की धारणाओं पर निर्भर करते हैं।”
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