DR. B.R. AMBEDKAR
(डॉ. भीमराव रामजी अम्बेदकर)
'जीवन की सफलता अछूतों का स्तर मानवता
के स्तर तक लाने में है।'
- DR.AMBEDKAR
- Introduction to Life
- Dr. Ambedkar and Dalits
- (1 (1)Strong attack on caste system and traditional legislation of Hindu society
- (2) Emphasis on improving the lives and attitudes of the untouchables themselves-
- (3) Right of untouchables to use all public places
- (4) Separate representation for Dalits
- (5) Legal measures to improve the condition of Dalits
- (6)Religious conversion-
- (4)Attitudes towards religion
- (5)Attitudes towards Gandhi and the Congress
- (6)Dr. Ambedkar's love for the country
- (7)Karl Marx and Attitudes towards Marxism
- (8)Dr. Ambedkar was a liberal
- (9)Evaluation & Delivery
DR.AMBEDKAR
डॉ. अम्बेदकर
अगाध ज्ञान के भण्डार,
घोर अध्यवसायी, अद्भुत प्रतिभा, सराहनीय निष्ठा और न्यायशीलता तथा स्पष्टवादिता के धनी डॉ. भीमराव
अम्बेदकर ने अपने आपको दलितों के प्रति समर्पित कर दिया था। अस्पृश्य समझी जाने
वाली महार जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें अपने जीवन में पग-पग पर भारी अपमान
और घोर यन्त्रणा की स्थितियों का सामना करना पड़ा था। इन अपमानों और सामाजिक
यातनाओं को झेलते हुए वे जीवन में निरन्तर आगे बढ़े और उन्होंने निश्चय किया कि
भारत के अस्पृश्य वर्ग के लिए अमानवीय जीवन की इस स्थिति को समाप्त कर उन्हें
मानवता के स्तर पर लाना है। इस महामानव ने भारत के दलित वर्ग के प्रति निष्ठा और
समर्पण की जिस स्थिति को अपनाया था, उसके आधार पर उसे भारत
का लिंकन और मार्टिन लूथर कहा गया और यहां तक कि उन्हें 'बोधिसत्व'
की उपाधि से विभूषित किया गया।
Introduction to Life
जीवन परिचय
भीमराव का जन्म 14
अप्रेल, 1891 ई. को इन्दौर के पास महू छावनी
में हुआ। जन्म के समय उनका नाम भीम सकपाल था। महार जाति, जिसमें
डॉ. अम्बेदकर का जन्म हुआ, महाराष्ट्र में अछूत समझी जाती
थी। भीमराव के पिता रामजी सकपाल कबीर के अनुयायी थे और इस कारण उनके मस्तिष्क में
जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं था ।
भीमराव ने हाई स्कूल तक का अध्ययन सतारा में
किया और सन् 1907 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की।
भीमराव अच्छे विद्यार्थी थे। भीमराव की शिक्षा के प्रति उनके पिता पूरी तरह
समर्पित थे तथा अध्यापक उनके परिश्रम से बहुत प्रसन्न थे। इसके बाद उन्होंने बम्बई
के एलफिन्स्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़ द्वारा प्रदान
की गई छात्रवृत्ति से उन्हें कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने में मदद मिली और 'गायकवाड़ छात्रवृत्ति' पर ही भीमराव को 1913 ई. में अमरीका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। वे भारत के
पहले अछूत और महार थे, जो पढ़ने के लिए विदेश गए थे।
विश्व-विख्यात अर्थशास्त्री प्रो. सेल्गमैन अम्बेदकर के अध्यापक हुए और 1915
में उन्होंने अर्थशास्त्र विषय में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1917
में उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय से ही पी-एच. डी. की उपाधि
प्राप्त की। 1916 में पी-एच. डी. का शोध प्रबन्ध प्रस्तुत
करने के बाद ही वे लन्दन आ गए और यहां उन्होंने विधि के अध्ययन के लिए 'दी ग्रेज इन' और अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए विश्व
की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था 'लन्दन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स एण्ड
पॉलिटीकल साइंस' में प्रवेश लिया। भीमराव में पढ़ने की ऐसी
लगन थी कि वे दोपहर का खाना बिना खाए हुए पुस्तकालय में पढ़ते रहते थे, लेकिन बड़ौदा रियासत के साथ हुए अनुबन्ध के आधार पर उन्हें अध्ययन बीच में
छोड़कर दो वर्ष के लिए बड़ौदा राज्य के 'मिलिट्री सचिव'
पद पर कार्य करना पड़ा। सन् 1920 में वे पुनः
अध्ययन हेतु लन्दन चले गए और सन् 1921 में उन्होंने 'मास्टर ऑफ साइंस' की उपाधि प्राप्त की। अपने शोध
प्रबन्ध 'The Problem of the Rupee' पर उन्होंने लन्दन
विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके साथ ही उन्होंने 'बार एट लॉ' की उपाधि भी प्राप्त की।
इंग्लैण्ड से लौटकर उन्होंने निश्चय किया कि
वे अपनी आजीविका के लिए वकालत करेंगे और शेष समय अछूतों व गरीबों की सेवा में
लगाएंगे। सन् 1923 में उन्होंने वकालत प्रारम्भ की तथा
साथ ही अछूतों
के उद्धार के लिए संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। 1923
से ही अम्बेदकर ने बम्बई से एक पाक्षिक समाचार-पत्र 'बहिष्कृत भारत' का प्रकाशन प्रारम्भ किया। अम्बेदकर
ने दलित वर्गों को संगठित करने की आवश्यकता अनुभव की, जिससे
वे सवर्णों द्वारा किए जा रहे सामाजिक अन्याय का प्रभावशाली ढंग से विरोध कर सकें।
इस उद्देश्य से उन्होंने 20 जुलाई, 1924 को 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की
स्थापना की। इस सभा की गतिविधियों को गति देने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र के
विभिन्न भागों का दौरा किया तथा दलित वर्गों में इस सन्देश का प्रसार किया कि उनका
उत्थान शिक्षा, संगठन और स्वयं उनके द्वारा सक्रिय एवं
प्रभावी संगठन के माध्यम से ही सम्भव है। अप्रेल, 1925 में
अम्बेदकर ने बम्बई प्रेसीडेन्सी में नेपानी नामक स्थान पर 'प्रान्तीय
दलित वर्ग सम्मेलन' की अध्यक्षता की।
डॉ. अम्बेदकर ने दलित वर्गों को संगठित
संघर्ष की प्रेरणा भी दी। संगठित संघर्ष का यह प्रारम्भ 'महद सत्याग्रह' से हुआ। इस सत्याग्रह ने दलितों में
आत्मविश्वास के भाव को जाग्रत किया। इसके बाद अम्बेदकर ने दलितों में चेतना जाग्रत
करने और उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए पूना-पारवती सत्याग्रह, कल्याण मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह, आदि आन्दोलनों को
प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान किया। सन् 1930 में उन्होंने 'अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ' (All India Depressed Class
Association) का अध्यक्ष पद धारण किया। अपने अध्यक्षीय भाषण में 8
अगस्त, 1930 को उन्होंने हिन्दुओं की जातिगत
व्यवस्था द्वारा उनकी नष्ट की गई शक्ति की कड़ी निन्दा की। इस अवसर पर उन्होंने
भारत के लिए स्वशासन की जोरदार वकालत की; किन्तु साथ ही
स्पष्ट किया कि स्वराज्य की कोई योजना तभी सार्थक और सफल हो सकती है जबकि उसमें
दलितों के समान अधिकारों को मान्यता दी जाए और उनके प्रति शताब्दियों से चले आ रहे
सामाजिक अन्याय का प्रतिकार किया जाय। उन्होंने सन् 1930 और 1931
में लन्दन में आयोजित प्रथम और द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में दलितों
के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। सम्मेलन में और उसके बाद भी डॉ. अम्बेदकर ने इस
बात पर बल दिया कि 'दलितों को विधान परिषदों में हिन्दू समाज
से पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना चाहिए।'
डॉ. अम्बेदकर प्रबल देशभक्त और भारत के
राष्ट्रीय एकीकरण के समर्थक थे, लेकिन सार्वजनिक जीवन
में महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ उनके मतभेद बने रहे। मतभेद का एक आधार तो
दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व का प्रश्न था। इसके साथ ही डॉ. अम्बेदकर का यह
दृष्टिकोण था कि “उन व्यक्तियों तथा संस्थाओं को अछूतों की
बात कहने का हक नहीं है जो अछूत नहीं हैं।" कुछ अवसरों
पर तो डॉ. अम्बेदकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के प्रति भारी कटुता की स्थिति
को अपना लिया। डॉ. अम्बेदकर कहते थे कि “कांग्रेस ने
अछूतोद्धार के कार्य में ईमानदारी का परिचय नहीं दिया है।"
डॉ. अम्बेदकर ने अपने साथियों की सलाह से
अगस्त,
1936 ई. में 'इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी'
की स्थापना की। इस राजनीतिक संस्था ने दलित वर्ग, मजदूर व किसानों की अनेक समस्याओं को लेकर कार्य आरम्भ किया। बम्बई प्रदेश
में इस पार्टी ने सन् 1937 का चुनाव लड़ा। इसने अनुसूचित
जातियों के लिए सुरक्षित 15 में से 13 स्थान
जीते और 2 सामान्य स्थानों पर भी विजय प्राप्त की। बम्बई
विधानसभा के सदस्य के रूप में डॉ. अम्बेदकर और उनकी इस पार्टी ने किरायेदारी कानून,
एण्टी स्ट्राइक बिल और खोटी बिल, आदि की खुलकर
आलोचना की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मजदूरों को 'सत्याग्रह
का अधिकार' होना ही चाहिए।
7 अगस्त, 1942 को
उन्हें गवर्नर जनरल की परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। अब दलितों की अखिल भारतीय
राजनीतिक संस्था स्थापित करने की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। अतः पुरानी 'इण्डिपेण्डेण्ट लेबर पार्टी' को 'अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ" (All India Scheduled Caste
Federation) में बदल दिया गया।
कांग्रेस के साथ डॉ. अम्बेदकर के तीव्र
मतभेद थे,
लेकिन कांग्रेस नेता, विशेषतया नेहरू और पटेल
भी डॉ. अम्बेदकर की प्रतिभा के कायल थे। अतः कांग्रेस ने सहयोग देकर उन्हें
संविधान सभा का सदस्य निर्वाचित कराया। संविधान सभा में उन्हें 'संविधान प्रारूप समिति' के अध्यक्ष का अत्यधिक महत्वपूर्ण
दायित्व सौंपा गया और उन्होंने पूरी योग्यता के साथ इस दायित्व को निभाया। 'दलितों को सामाजिक जीवन में समानता की स्थिति प्राप्त हो' इस बात के लिए संवैधानिक व्यवस्था डॉ. अम्बेदकर के प्रयत्नों का ही परिणाम
है। भारतीय संविधान पर डॉ. अम्बेदकर के व्यक्तित्व की छाप अंकित है और संविधान
निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही उन्हें 'आधुनिक
युग का मनु' कहा जाता है।
1 अम्बेदकर के अनुयायियों ने उनकी मृत्यु
के बाद 1957 में इस फेडरेशन को 'भारतीय
रिपब्लिकन पार्टी' में बदल दिया।
राजनीति विज्ञान
3 अगस्त, 1949 को
डॉ. अम्बेदकर को भारत सरकार का कानून मन्त्री बना दिया गया। कानून मन्त्री के रूप
में उनका सबसे अधिक प्रमुख कार्य 'हिन्दू कोड बिल' था। इस कानून का उद्देश्य था, 'हिन्दूओं के सामाजिक
जीवन में सुधार।' तलाक की व्यवस्था और स्त्रियों के लिए
सम्पत्ति में हिस्सा इस कानून की कुछ प्रमुख बातें थीं। नेहरू और डॉ. अम्बेदकर के
बीच कुछ प्रश्नों पर मतभेद थे और अन्त में 27 सितम्बर,
1951 को डॉ. अम्बेदकर ने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया।
डॉ. अम्बेदकर निरन्तर यह अनुभव कर रहे थे कि
हिन्दू धर्म में दलितों को सम्मानजनक स्थिति प्राप्त नहीं है। वस्तुतः हिन्दू धर्म
उनके स्वाभिमान के साथ मेल नहीं खा रहा था। इन परिस्थितियों में 1955
में उन्होंने 'भारतीय बुद्ध महासभा' की स्थापना की तथा भारत में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया।
इसके बाद 14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने
नागपुर में हुई एक ऐतिहासिक सभा में 5 लाख व्यक्तियों के साथ
बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 6 दिसम्बर, 1956 को प्रातः काल की बेला में उनका देहावसान हो गया। निर्भयता, स्पष्टवादिता और अक्खड़पन उनके स्वभाव का अंग थे, जो
सदैव उनके साथ बने रहे।
डॉ. अम्बेदकर पर प्रभाव-जिन पुस्तकों ने डॉ.
अम्बेदकर को प्रभावित किया, वे थीं : रामायण और महाभारत
तथा डॉ. अम्बेदकर के तीन आदर्श थे : गौतम बुद्ध, कबीर और
ज्योतिबा फुले। कबीर का प्रभाव था कि वे धार्मिक स्वभाव के तथा निष्पक्ष और
निर्भीक थे। महात्मा फुले के प्रभाव से वे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध हुए। उनके
प्रभाव के कारण उन्होंने अछूतों को संगठित होने, शिक्षित
होने तथा अत्याचारी के विरुद्ध संघर्ष करने की शिक्षा दी थी। गौतम बुद्ध से
उन्होंने आध्यात्मिकता तथा छुआछूत विरोध की शिक्षा प्राप्त की । इसी शिक्षा के
प्रभाव से उन्होंने धर्म परिवर्तन किया तथा अपने अनुयायियों को इस बात के लिए
प्रेरित किया। इन महापुरुषों के अतिरिक्त वे अपने अमरीकी अध्यापक जॉन दिवे (John
Devey) से भी प्रभावित थे। वे वूकर टी. वाशिंगटन के जीवन से भी
अत्यधिक प्रभावित थे, जिसने नीग्रो लोगों को शिक्षा दी थी और
उनके लिए समानता के अधिकार की बात पर जोर दिया था।
रचनाएं—डॉ. अम्बेदकर घोर अध्यवसायी,
प्रतिभाशाली और प्रकाण्ड पण्डित थे। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं ये हैं
:
1. The Untouchables, Who are They ?
2. Who are the Shudra ?
3. What Congress and Gandhi have done to the
Untouchables.
4. Pakistan or Partition to India.
5. States and Minorities.
6. Thought on Linguistic States.
7. Emancipation of the Untouchables.
8. Annihilation of Caste.
9. Speeches and Writings of Ambedkar.
10. Thus Spoke Ambedkar.
Dr. Ambedkar and Dalits
डॉ. अम्बेदकर और
दलितोद्धार
(दलितोद्धार की दिशा में
विचार और कार्य)
लेकिन
डॉ. अम्बेदकर महान् पुस्तक प्रेमी थे और
अध्ययन-अध्यापन उनके लिए सबसे प्रिय कार्य था, दलितोद्धार
की भावना उन्हें सार्वजनिक जीवन और राजनीति में ले आई। उनके समस्त सार्वजनिक जीवन
का सर्वप्रमुख और सम्भवतया एकमात्र लक्ष्य था, दलितोद्धार।
डॉ. अम्बेदकर ने अपने जीवन के प्रथम 35 वर्षों में पग-पग पर
घोर अपमान, अमानवीय व्यवहार और भारी यन्त्रणा की स्थितियों
को भोगा था। एक बार उन्होंने एक पत्रकार से कहा था, "मेरे
दुःख-दर्द और मेहनत को तुम नहीं जानते, जब सुनोगे, रो पड़ोगे।” यन्त्रणा की इन स्थितियों से गुजरते हुए
ही उन्होंने 'दलितोद्धार' का संकल्प
धारण कर लिया था।
जिन दिनों डॉ. अम्बेदकर अपनी शिक्षा पूरी कर
चुके थे,
उन दिनों अछूतों में जाग्रति आ रही थी। वे समानता की स्थिति को
प्राप्त करने के लिए सवर्णों से लड़ाई प्रारम्भ कर चुके थे। तीस वर्ष से भी अधिक
समय तक इस अहिंसक लड़ाई का नेतृत्व डॉ. अम्बेदकर ने किया। डॉ. अम्बेदकर द्वारा
लड़ी गई इस लड़ाई में उच्च हिन्दू जातियों के प्रति गहरी विरोध भावना निहित है। इस
विरोध भावना के कारण ही उन्होंने घोषणा की,
“उन व्यक्तियों तथा संस्थाओं को अछूतों की
बात कहने का हक नहीं है, जो स्वयं अछूत नहीं हैं।"
डॉ. अम्बेदकर ने एक ओर हिन्दुओं की यातनाएं भोगीं तथा हिन्दू
धर्मग्रन्थों को पढ़कर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिन्दुओं की नियति शूद्रों को
उठाने की नहीं है। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ब्रिटिश शासन शूद्रों के उत्थान
के प्रति उदासीन है। इस पृष्ठभूमि में उन्होंने समझ लिया कि अछूत सभी प्रकार से
कमजोर हैं और वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक
पहलू पर सवर्णों का मुकाबला नहीं कर सकते। अतः वे अछूतों के उत्थान के लिए
अहिंसात्मक संघर्ष में जुट गए और जीवन पर्यन्त इसी कार्य में लगे रहे।
दलितोद्धार की दिशा में डॉ. अम्बेदकर के
विचारों और कार्यों का एक संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
(1 (1)Strong attack on caste system and traditional legislation of Hindu society
जाति-प्रथा और हिन्दू समाज के परम्परागत विधान पर कठोर
प्रहार– बौद्ध धर्म,
सिख धर्म, कबीर पन्थी, ब्रह्म
समाज, आर्य समाज, स्वामी विवेकानन्द और
महात्मा गांधी-इन सबने अपने-अपने तरीके से दलितोद्धार के प्रयत्न किए हैं, लेकिन इनमें से किसी ने जाति-प्रथा और हिन्दू समाज के परम्परागत विधान पर
वैसा कठोर प्रहार नहीं किया, जैसा प्रहार डॉ. अम्बेदकर ने
किया। डॉ. अम्बेदकर से पूर्व के अधिकांश दलितोद्धारक तो वर्ण-व्यवस्था या
जाति-व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं, वे तो केवल उच्च
जातियों के जातीय अहंकार और विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना का विरोध
करते हैं; जिन व्यक्तियों और सम्प्रदायों द्वारा
जाति-व्यवस्था का विरोध किया गया है, उनका विरोध भी एक नरम
विरोध मात्र है, उस विरोध में कोई आक्रोश नहीं है। डॉ.
अम्बेदकर ने इस बात पर बल दिया कि चार वर्णों पर आधारित सामाजिक ढांचे की हिन्दू
योजना ने ही जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता को जन्म दिया है, जो
कि असमानता का एक अमानवीय और चरम रूप है। अतः अस्पृश्यों की समस्याएं किसी
छोटे-मोटे उपचार से हल नहीं हो सकतीं, उनके लिए तो
क्रान्तिकारी सामाजिक हल की आवश्यकता है और वह क्रान्तिकारी सामाजिक हल
जाति-व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप में अस्वीकार करना ही हो सकता है।
डॉ. अम्बेदकर के अनुसार प्रारम्भ में
जाति-प्रथा नहीं थी। समाज के कुछ स्वार्थी लोगों ने जो ऊंचे स्तर के थे,
कमजोर लोगों से उनकी इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती काम कराना प्रारम्भ
कर दिया। इन कमजोर लोगों को शिक्षा प्राप्त करने, व्यापार
करने, धन इकट्ठा करने और हथियार रखने से वंचित कर दिया जिससे
वे विरोध न कर सकें और अपनी दासता दूर न कर सकें। इस प्रकार जातिवाद को अपनाकर
शूद्रों को अपंग कर दिया गया। डॉ. अम्बेदकर के अनुसार, जातिवाद
से कार्यक्षमता नहीं बढ़ती, क्योंकि मनुष्य को इच्छानुसार
काम नहीं मिलता। उन्होंने कहा, “जाति-प्रथा को नष्ट करने का
एक ही मार्ग है-"अन्तर्जातीय विवाह, न कि सहभोज । खून का मिलना ही अपनेपन की भावना ला सकता है।" वे जाति-प्रथा को हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी खराबी मानते थे।
हिन्दुओं की परम्परागत व्यवस्था 'मनुस्मृति' के आधार पर चलती है। अतः डॉ. अम्बेदकर 'मनुस्मृति' को अन्याय की जड़ मानते थे। डॉ. अम्बेदकर
के नेतृत्व में अनेक बार 'मनुस्मृति' को
जलाने का जो कार्य किया गया, उसके औचित्य को समझ पाना कठिन
है, लेकिन तथ्य है कि उनका यह कार्य हिन्दुओं की परम्परागत
व्यवस्था के विरुद्ध गहरे आक्रोश का परिचायक है। अम्बेदकर का मत था कि मनुस्मृति
अन्याय व दमन पर आधारित हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक थी। डॉ. अम्बेदकर कहा
करते थे कि 'मनुस्मृति' ने अछूतों का
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक
शोषण करके उन्हें दासता दी है। डॉ. अम्बेदकर जाति-व्यवस्था के मूल पर प्रहार करना
चाहते थे। अतः उन्होंने सुझाव दिया कि मन्दिरों में पुजारी पद पर किसी एक जाति का
एकाधिकार नहीं होना चाहिए, वरन् पुजारी पद को प्रजातान्त्रिक
बनाया जाना चाहिए। वस्तुतः वे जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट करना चाहते थे।
(2) Emphasis on improving the lives and attitudes of the untouchables themselves-
स्वयं अछूतों के जीवन और
प्रवृत्तियों में सुधार पर बल– डॉ. अम्बेदकर जानते थे कि
अछूतों की वर्तमान स्थिति के लिए स्वयं अछूत वर्ग भी उत्तरदायी है। अतः उन्होंने
इस बात पर बल दिया कि अछूतों द्वारा अपनी बुरी आदतों और हीनता की भावना का त्याग
कर आत्मसम्मानपूर्ण जीवन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। उन्होंने अपने पत्रों में लेख
लिखकर और अपने भाषणों में इस बात पर बल दिया कि अछूतों को मांगना छोड़ देना चाहिए,
झूठ बोलना बन्द कर देना चाहिए, मुर्दा जानवर
खाना छोड़ देना चाहिए तथा इन सबके अतिरिक्त हीनता की भावना का त्याग कर श्रेष्ठ
जीवन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। अछूतों में सुझाव स्वतन्त्रता, समानता और स्वाभिमान से जीवन बिताने की इच्छा होनी चाहिए और इसके लिए उनके
थे : (1) अछूत संगठित हों, (2) शिक्षित
हों और (3) अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करें। उन्होंने
अछूतों को
सरकारी नौकरियों में जाने,
जंगल तथा खेती की भूमि प्राप्त करने की शिक्षा दी। उन्होंने उपसंहार
में कहा, “यदि महार अपने बच्चों को स्वयं के मुकाबले में
अच्छी दिशा में देखने की इच्छा नहीं रखते तो, एक मनुष्य व एक
जानवर में कोई अन्तर नहीं होगा।"
डॉ. अम्बेदकर जानते थे कि दलितों की स्थिति
में सुधार के लिए दलित स्त्रियां अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। 20
मार्च, 1927 को महद में आई हुई स्त्रियों को
सम्बोधित करते हुए डॉ. अम्बेदकर ने कहा, “कभी मत सोचो कि तुम
अछूत हो। साफ-सुथरे रही। जिस तरह के पकड़े सवर्ण स्त्रियां पहनती हैं, तुम भी पहनी। यह देखो कि वे साफ हैं।” उन्होंने कहा,
"यदि तुम्हारे पति और लड़के शराब पीते हैं तो उन्हें खाना मत
दो। अपने बच्चों को स्कूल भेजो। शिक्षा जितनी जरूरी पुरुषों भेजो। शिक्षा जितनी
जरूरी पुरुषों के लिए है उतनी ही स्त्रियों के लिए भी आवश्यक है। यदि तुम
लिखना-पढ़ना जान जाओ, तो बहुत उन्नति होगी, जैसी तुम होओगी, वैसे ही तुम्हारे हुए हों ।"
बच्चे बनेंगे। अच्छे कार्यों की ओर अपना जीवन मोड़ दो। तुम्हारे
बच्चे इस संसार में चमकते डॉ. अम्बेदकर के इन प्रयत्नों का प्रभाव भी पड़ा। अछूतों
की एक बड़ी संख्या ने मुर्दा मांस खाना छोड़ दिया, मुर्दा
जानवरों की खाल उतारना छोड़ दिया तथा खाना मांगना छोड़ दिया।
(3) Right of untouchables to use all public places
अछूतों को सभी सार्वजनिक
स्थानों के प्रयोग का अधिकार—डॉ.
अम्बेदकर ने इस बात पर बल दिया कि मन्दिर, कुएं और
तालाब, आदि मनुष्य मात्र के लिए सुलभ होने चाहिए। अछूतों को
इनका उपयोग न करने देना अनुचित है। उन्होंने अपने साथियों से सामाजिक कुएं व
तालाबों का उपयोग जवरदस्ती करने का आग्रह किया। आवश्यक हो जाने पर उन्होंने इसके
लिए सत्याग्रह भी किया। पहला सत्याग्रह 1927 ई. में 'महद तालाब सत्याग्रह' के रूप में किया और पर्याप्त
संघर्ष के बाद उन्हें इसमें सफलता मिली। इसी प्रकार रामगढ़ के 'गंगा सागर तालाव' का पानी पीने के लिए डॉ. अम्बेदकर
एक सौ साथियों को लेकर वहां गए और उन्होंने तालाब का पानी पिया। दूसरा सत्याग्रह 1930
ई. में 'कालाराम मन्दिर प्रवेश के लिए किया
गया। इसमें संघर्ष की अनेक स्थितियां आईं और 'गोलमेज सभा'
में भी डॉ. अम्बेदकर ने इस मामले को उठाया। अन्त में, अक्टूबर, 1935 में सत्याग्रह बन्द किया गया। डॉ.
अम्बेदकर ने हिन्दुओं के व्यवहार में परिवर्तन लाने पर बल दिया और कहा कि “यह सत्याग्रह हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन करने के लिए है।” 'मन्दिर प्रवेश' से सम्बन्धित विधेयक पर बोलते हुए
उन्होंने 'केन्द्रीय सभा' में कहा था,
"धर्म जो अपने को मानने वालों के बीच में पक्षपात करता है,
धर्म नहीं है। किसी भी गलत बात को धर्म के अन्तर्गत नहीं लाया जा
सकता। धर्म व दासता का कोई साथ नहीं है।” उन्होंने 'महार वतन' कानून का विरोध भी किया, जो महाराष्ट्र के महारों के लिए 'बन्धुआ मजदूरी और
दासता' की व्यवस्था करता था। डॉ. अम्बेदकर ने 'समता सैनिक दल' की स्थापना की।
(4) Separate representation for Dalits
दलितों के लिए पृथक्
प्रतिनिधित्व- डॉ. अम्बेदकर ने सदैव इस बात पर बल
दिया कि ब्रिटिश शासन द्वारा प्रारम्भ किए गए साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के
अन्तर्गत जिस प्रकार मुसलमानों, ईसाइयों और पंजाब में
सिखों को पृथक् प्रतिनिधित्व की स्थिति प्राप्त है उसी प्रकार दलितों को भी ऐसा ही
पृथक् प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए, जिसमें दलितों के
प्रतिनिधि केवल दलितों द्वारा ही चुने जाएं। पहले और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में
उन्होंने दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व पर ही सबसे अधिक बल दिया था और महात्मा
गांधी के साथ उनका विरोध सबसे अधिक प्रमुख रूप से इसी बात पर था। महात्मा गांधी का
कहना था कि 'दलित वर्ग' हिन्दू समाज का
एक अविभाज्य अंग है और ऐसी किसी भी स्थिति को स्वीकार नहीं किया जा सकता, जिससे हिन्दू समाज का विघटन हो। डॉ. अम्बेदकर दलितों के लिए पृथक्
प्रतिनिधित्व के आधार पर उन्हें एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप देना चाहते थे और
उन्होंने सन् 1932 के 'पूना समझौते'
पर हस्ताक्षर परिस्थितियों के दबाव के कारण ही किए थे।
(5) Legal measures to improve the condition of Dalits
दलितों की स्थिति में
सुधार के कानूनी उपाय—डॉ. अम्बेदकर का विचार था
कि 'मनुस्मृति' के आधार पर भारत के अछूतों पर जो कानूनी
पावन्दियां लगी हुई हैं, वे कानून से ही दूर की जा सकती हैं।
पुरानी स्मृतियां उस समय का कानून थीं, जिसे समाज और राज्य
के द्वारा लागू किया गया; अब उनके प्रभाव को राज्य के कानून
द्वारा ही दूर किया जाना चाहिए। प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था को अपनाने के नाते भारत
के सभी
नागरिकों को कानून की दृष्टि से समानता का
अधिकार तो स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता ही; अनुच्छेद 15
और 16 में सामाजिक समानता की व्यवस्था और
अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को कानून की दृष्टि में अपराध
घोषित करने की जो व्यवस्था की गई है और संविधान में ही अनुसूचित जातियों तथा जन
जातियों के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की गई है, उसमें डॉ.
अम्बेदकर का प्रभाव भी एक तत्व रहा होगा। डॉ. अम्बेदकर 1930 से
ही इस बात पर जोर देते रहे कि दलित वर्ग के सदस्यों को विकास के लिए विशेष
सुविधाएं दी जानी चाहिए। सन् 1930 में 'स्टारटे कमेटी' के एक सदस्य के रूप में भी उन्होंने
निम्न सिफारिशें की थीं : 1. दलित छात्रों के वजीफों की
संख्या बढ़ाई जाय ।
2. उनके लिए छात्रावासों की व्यवस्था की
जाय ।
3. उन्हें कारखानों, रेलों की कार्यशालाओं तथा अन्य ट्रेनिंग के लिए वजीफे दिए जायें।
4. विदेश में इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए
वजीफा दिया जाय।
5. इन सभी कार्यों की देखभाल के लिए एक
विशेष अधिकारी नियुक्त किया जाय।
(6)Religious conversion-
धर्म परिवर्तन-डॉ.
अम्बेदकर दलितों के लिए सम्मानपूर्ण जीवन चाहते थे और जब उन्होंने समझा कि दलित जब
तक हिन्दू है, तब तक उनके लिए सम्मानपूर्ण जीवन बिता
पाना सम्भव नहीं है, तब उन्होंने 'दलितों
के धर्म परिवर्तन' की बात सोची। डॉ. अम्बेदकर ने देखा कि जिन
दलितों ने ईसाई धर्म या सिख धर्म ग्रहण कर लिया है, धर्म
परिवर्तन के बाद भी उन्हें अपने नए धर्म के अनुयायियों के बीच अपमान की स्थितियां
सहन करनी पड़ रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने सोचा कि यदि दलित इस्लाम ग्रहण करते
हैं तो यह उनके राष्ट्रीयता के भाव को आघात पहुंचाने वाली स्थिति होगी। बौद्ध धर्म
में उन्होंने समानता का सन्देश पाया और सन् 1956 में 5
लाख व्यक्तियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया। इस धर्म
परिवर्तन का उद्देश्य दलित वर्ग को अपनी एक अलग पहचान और एक सम्मानपूर्ण स्थिति
प्रदान करना ही था।
डॉ. अम्बेदकर दलित समाज के लिए संघर्ष करने
वाले अद्भुत योद्धा थे। बीसवीं सदी में भारत के दलित वर्ग के लिए उन्होंने जो कुछ
किया,
उसका अन्य कोई उदाहरण नहीं है। इसी आधार पर उन्हें 'दलितों का मसीहा' कहा जाता है। डॉ. वी. पी. वर्मा ने
अम्बेदकर के व्यक्तित्व और कार्यों की तुलना अमरीका के महान् नीग्रो नेता पाल
रॉबसन से की है, जिसने अमरीका के श्वेत बहुमत के विरुद्ध
समस्त नीग्रो जाति के आक्रोश को व्यक्त किया।'
(4)Attitudes towards religion
धर्म के प्रति दृष्टिकोण
डॉ. अम्बेदकर एक धार्मिक नेता नहीं थे वे
दलितों के लिए समर्पित सामाजिक और राजनीतिक नेता थे, जिनका
लक्ष्य था-'दलितोद्धार'। लेकिन वे इस
बात को जानते थे कि धर्म का जीवन पर और विशेषतया भारतीय व्यक्तियों के जीवन पर
भारी प्रभाव है, इसलिए उन्होंने धर्म का दलितोद्धार के साधन
के रूप में उपयोग किया।
डॉ. अम्बेदकर का विचार था कि 'धर्म व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति धर्म के लिए नहीं'
और जो कोई धर्म मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की स्थिति को अपनाता है,
अपने ही अनुयायियों के एक वर्ग को दूसरे वर्ग के अधीन रहने के लिए
प्रेरित और बाध्य करता है, वह धर्म नहीं वरन् मानवता का
अपमान है। उन्होंने समझा कि हिन्दू समाज का एक वर्ग हिन्दू समाज के ही दूसरे वर्ग
के प्रति जिस प्रकार की अन्याय भावना को अपना रहा है, उसमें
हिन्दू धर्म की भी भूमिका है और इस बात ने उनके मन-मस्तिष्क में हिन्दू धर्म के
प्रति तीखी विरोध भावना को जन्म दे दिया। डॉ. अम्बेदकर का कहना था कि जब तक अछूत
हिन्दुओं के साथ बने रहेंगे, उनमें उत्तम जीवन के लिए आशा,
प्रेरणा और उत्साह नहीं हो सकता। वे मानव मात्र के प्रति समानता के
सन्देशवाहक धर्म की खोज में थे। इस दृष्टि से ईसाई धर्म, इस्लाम
और सिख धर्म भी उन्हें अपूर्ण प्रतीत हुए। उन्होंने देखा था कि विगत में दलित वर्ग
के जिन व्यक्तियों ने ईसाई धर्म, सिख धर्म या इस्लाम धर्म को
ग्रहण किया, वे अपने नए धर्म में भी समानता की स्थिति को
प्राप्त नहीं कर सके। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में वे बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए
और बौद्ध धर्म की निम्न विशेषताओं पर मुग्ध हो गए-
प्रथम, बौद्ध
धर्म नैतिकता पर आधारित है और नैतिकता ही उसका भगवान है। डॉ. अम्बेदकर कहा करते थे,
“समाज में नैतिकता की भावना सुदृढ़ रूप में विद्यमान होनी चाहिए यदि
ऐसी स्थिति नहीं है तो समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।"
द्वितीय, हिन्दू
धर्म के सामाजिक दर्शन में असमानता है, जबकि बौद्ध धर्म में
समानता ।
तृतीय, धर्म तर्क
पर आधारित होना चाहिए, जिसे हम विज्ञान भी कह सकते हैं। धर्म
के द्वारा गरीबी को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए; धर्म के
नैतिक कानूनों में स्वतन्त्रता, समानता और भाई-चारे की
स्थिति होनी चाहिए। उन्होंने अनुभव किया कि बौद्ध धर्म में ऐसी स्थिति है।
हिन्दू धर्म के प्रति आक्रोश भावना और
धर्म-परिवर्तन का विचार डॉ. अम्बेदकर ने लगभग सन् 1930 से ही अपना लिया था और सन् 1950 के भी कुछ पहले से
उनका बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव हो गया था। 29 मई,
1950 को डॉ. अम्बेदकर ने 'Young Men's Buddhist Association'
के 'कोलम्बो सम्मेलन' में
भाग लिया और दिसम्बर 1954 के प्रारम्भ में डॉ. अम्बेदकर
बौद्धों की 'तीसरी विश्व सभा' में
सम्मिलित होने के लिए रंगून पहुंचे। वहां उन्होंने कहा कि बर्मा तथा श्रीलंका के
बौद्ध लोगों को चाहिए कि वे दूसरे देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार के
लिए धन व्यय करें। अन्त में 14 अक्टूबर, 1956 को अपने पांच लाख समर्थकों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। डॉ.
वर्मा के शब्दों में, “उन्होंने बौद्ध धर्म में मार्क्सवाद
का एक नैतिक और सहिष्णु विकल्प खोजा और उनके अनुयायियों ने उन्हें गर्व के साथ 'बीसवीं सदी का बोधिसत्व' कहा।"
हिन्दू धर्म के प्रति विरोध भावना और बौद्ध
धर्म ग्रहण कर लेने पर डॉ. अम्बेदकर का दृष्टिकोण मूलतः धर्मनिरपेक्षवादी ही बना
रहा। डॉ. अम्बेदकर ने धर्म परिवर्तन का यह कार्य दलितों के लिए समानता की स्थिति
और एक अलग पहचान प्राप्त करने के लिए किया था, मुक्ति या
अन्य किन्हीं धार्मिक लक्ष्यों को प्राप्ति के लिए नहीं।' सन्
1956 में किए गए धर्म परिवर्तन के पीछे जो मनोभावना थी,
वह सन् 1935 में दिए गए उनके इस भाषण से
स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने कहा था, “क्योंकि
हमारे दुर्भाग्य ने हमें हिन्दू नाम दिया है, इसलिए हमें यह
व्यवहार सहन करना पड़ रहा है। यदि हम अन्य किसी धार्मिक विश्वास के साथ जुड़े हुए
होते तो कोई हमारे प्रति ऐसा व्यवहार करने का साहस नहीं करता। कोई भी ऐसा धर्म चुन
लीजिए, जो आपको व्यवहार और प्रतिष्ठा की समानता प्रदान करता
हो। मेरा दुर्भाग्य है कि मैंने अस्पृश्य के लांछन के साथ जन्म लिया। यह मेरा दोष
नहीं है; लेकिन मैं हिन्दू के रूप में नहीं मरूंगा, क्योंकि यह मेरी शक्ति में है।”2 डॉ. अम्बेदकर की
दृष्टि में धर्म एक साधनमात्र था, अपने आप में कोई लक्ष्य
नहीं। डॉ. अम्बेदकर ने एक से अधिक अवसरों पर इस बात पर बल दिया कि दलित वर्गों को
आध्यात्मिकता की अपेक्षा भौतिक पदार्थ प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्नशील होना
चाहिए। उनका लक्ष्य होना चाहिए : आर्थिक, शैक्षणिक तथा
राजनीतिक क्षेत्र में उन्नति ।
डॉ. अम्बेदकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण किए
जाने का औचित्य विवादास्पद है। वस्तुतः बौद्ध धर्म और बुद्धवादी विचारधारा आंशिक
रूप में क्रान्तिकारी और आंशिक रूप में अनुदारवादी है। बौद्ध धर्म में
जाति-व्यवस्था के उन्मूलन हेतु किन्हीं दीर्घकालीन और क्रान्तिकारी उपायों का
उल्लेख नहीं किया गया है।
एक अन्य तथ्य यह है कि डॉ. अम्बेदकर ने
बौद्ध धर्म की जिस रूप में व्याख्या की उससे बौद्ध भिक्षु सहमत नहीं थे। डॉ.
अम्बेदकर की पुस्तक 'भगवान बुद्ध और उनका धर्म'
जब प्रकाश में आई, तो बौद्ध भिक्षुओं ने ही
उसकी आलोचना की और उसे 'खतरनाक पुस्तक' बतलाया। भिक्षुओं ने उनकी इस पुस्तक को घृणा तथा उग्रता की पोषक बताया।
डॉ. अम्बेदकर तथा उनके समर्थकों द्वारा किए गए धर्म परिवर्तन की आलोचना करते हुए
यह भी कहा गया कि बौद्ध धर्म को राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनाया गया है,
आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं।
(5)Attitudes towards Gandhi and the Congress
गांधी और कांग्रेस के
प्रति दृष्टिकोण
डॉ. अम्बेदकर दलितोद्धार के लिए समर्पित थे
और उनके सार्वजनिक जीवन में प्रवेश के पूर्व से ही महात्मा गांधी दलितोद्धार की
दिशा में कार्य कर रहे थे। इस नाते वांछित स्थिति यह थी कि डॉ. अम्बेदकर
दलितोद्धार की दिशा में गांधीजी के साथ
सहयोग करते, उनके कार्य को आगे बढ़ाते। लेकिन
व्यवहार में गांधी और अम्बेदकर के बीच न केवल दूरियां, वरन्
कुछ सीमा तक कटुता की स्थिति विद्यमान रही। वस्तुतः सवर्णो द्वारा प्रारम्भ किए गए
किसी दलितोद्धार आन्दोलन पर डॉ. अम्बेदकर को विश्वास नहीं था और अम्बेदकर की
दृष्टि में गांधी के प्रयत्न भी इसी श्रेणी में थे। दलितोद्धार के प्रसंग में
गांधी और अम्बेदकर के बीच मूल मतभेद भी थे :
प्रथमतः, गांधी
हिन्दू समाज में विद्यमान ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करना और दलितों की स्थिति
सुधार करना चाहते थे, लेकिन वे वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखना
चाहते थे। इसके साथ ही उनका यह भी विचार था कि वर्ण-व्यवस्था का आधार जन्म ही होना
चाहिए, कर्म नहीं। गांधी का कहना था कि वर्ण व्यवस्था एक
वैज्ञानिक व्यवस्था है और वंशानुक्रम नियम एक शाश्वत् नियम है। मनुष्यों के द्वारा
अपना पैतृक कार्य छोड़ देने पर भारी अव्यवस्था फैल जाएगी। अम्बेदकर वर्ण-व्यवस्था
को दलितों की अमानवीय स्थिति का मूल कारण मानते हैं और उनका विचार है कि जब तक
वर्ण-व्यवस्था (जाति-व्यवस्था) का अन्त नहीं होता, तब तक
दलितों की स्थिति में सुधार सम्भव नहीं है।
द्वितीयतः, गांधीजी
हिन्दू समाज के आंगिक ढांचे को भंग नहीं करना चाहते और इस कारण उनके द्वारा
अस्पृश्यों के लिए अन्य हिन्दुओं से पृथक् प्रतिनिधित्व का सदैव और पूरी शक्ति के
साथ विरोध किया गया। सन् 1932 के ‘मैकडॉनल्ड
पंचाट' में जब अस्पृश्यों को सवर्ण हिन्दुओं से पृथक्
प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया, तो उन्होंने आमरण अनशन का
मार्ग अपनाकर 'पूना समझौते' के रूप में
'मैकडॉनल्ड पंचाट' को संशोधित करवाया।
डॉ. अम्बेदकर अपने सार्वजनिक जीवन के लगभग प्रारम्भ से ही अस्पृश्यों के लिए सवर्ण
हिन्दुओं से पृथक् प्रतिनिधित्व की स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहे
और उन्होंने 'पूना समझौते' पर
परिस्थितियों के दबाव के कारण ही हस्ताक्षर किए थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में
गांधी और अम्बेदकर के बीच मतभेद का सबसे प्रमुख मुद्दा अम्बेदकर द्वारा की गई
अस्पृश्यों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की मांग ही थी। अम्बेदकर ने इस सम्मेलन में
कहा था, “यदि मुसलमान व सिखों के पृथक् प्रतिनिधित्व से
राष्ट्र विभाजित नहीं होता, तो दलितों के पृथक् प्रतिनिधित्व
से राष्ट्र किस प्रकार विभाजित हो जाएगा।'
सन् 1956 में जब
अम्बेदकर और उनके अनुयायियों ने धर्म-परिवर्तन किया, तब
गांधी जीवित नहीं थे; लेकिन यह तथ्य है कि गांधी की दृष्टि
में इस प्रकार के धर्म-परिवर्तन का न तो कोई औचित्य था और न ही कोई आवश्यकता ।
अम्बेदकर ने न केवल गांधी और गांधीवादी
विचारधारा, वरन् तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख राष्ट्रीय
संगठन ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का
भी विरोध किया। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दलितोद्धार का कार्य किया,
लेकिन कांग्रेस का सर्वप्रमुख लक्ष्य देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता
था । अम्बेदकर देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के पक्षधर थे, लेकिन
उनकी दृष्टि में दलितों की नागरिक, सामाजिक तथा आर्थिक
स्वतन्त्रता और समानता का कार्य देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता की तुलना में भी अधिक
महत्वपूर्ण था। उन्होंने कांग्रेस को सदैव ही ऐसा मध्यमवर्गीय संगठन कहा, जिससे दलितों के हित में किसी सारभूत कार्य की आशा नहीं की जानी चाहिए।
डॉ. अम्बेदकर के ही शब्दों में, “कांग्रेस शोषक व शोषितों की
जमात है। यह जमात राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए ठीक हो सकती है,
लेकिन समाज का नवीनीकरण करने के लिए तनिक भी ठीक नहीं है।
"2 एक अन्य प्रसंग में उन्होंने कहा, “कांग्रेस
मध्यमवर्गीय हिन्दुओं का एक संगठन है जिसकी आर्थिक सहायता पूंजीपति हिन्दू करता
है। इनका कार्य भारत को स्वतन्त्र कराना नहीं, वरन्
अंग्रेजों से शासन की बागडोर अपने हाथ में लेना है।"
(6)Dr. Ambedkar's love for the country
डॉ. अम्बेदकर का देश-प्रेम
(राजनीतिक स्वतन्त्रता और
राष्ट्रीय एकीकरण पर उनका दृष्टिकोण)
डॉ. अम्बेदकर ने अपने सार्वजनिक जीवन में
महात्मा गांधी और कांग्रेस का विरोध किया था अवसरों पर उनके इस विरोध में कटुता भी
थी,
लेकिन इस आधार पर उनके देश-प्रेम और राजनीतिक
स्वतन्त्रता के प्रति उनकी निष्ठा पर सन्देह
करने का कोई औचित्य नहीं है। डॉ. अम्बेदकर प्रारम्भ से ही देश की राजनीतिक
स्वतन्त्रता के समर्थक थे और उनका यह मूल मनोभाव सदैव बना रहा।
सन् 1916 में
डॉ. अम्बेदकर ने एम. ए. अर्थशास्त्र की परीक्षा के लिए जो शोध प्रबन्ध कोलम्बिया
विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था, वह आठ वर्ष पश्चात् 'The
Evolution of Provincial Finance in the British India' शीर्षक से प्रकाशित
हुआ। भीमराव ने इस शोध प्रबन्ध में दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए थे :
(1) प्रत्येक देश में सामाजिक शोषण व
अन्याय व्याप्त है, तथा
(2) इसका अर्थ यह नहीं है कि उस देश को
राजनीतिक शक्ति प्राप्त न हो।
फरवरी 1942 में
बम्बई विधानसभा की एक बहस में बोलते हुए डॉ. अम्बेदकर ने कहा था, "मेरा झगड़ा कुछ मामलों पर सवर्ण हिन्दुओं से है। मैं शपथ लेता हूं कि मैं
अपने देश की रक्षा के लिए अपना जीवन निछावर कर दूंगा।"
डॉ. अम्बेदकर ने 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का विरोध किया था और गांधीजी द्वारा संचालित इस आन्दोलन को ‘अनुत्तरदायित्वपूर्ण और पागलपन भरा कार्य' बतलाया था, लेकिन इस प्रसंग में इस बात को ध्यान में रखना होगा कि भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध तो उदारवादी नेता तेजबहादुर सप्रू और हिन्दू महासभा के नेता सावरकर द्वारा भी किया गया था। यह देश की स्वतन्त्रता का विरोध नहीं था; ये तो देश की स्वतन्त्रता के लिए अपनाई जाने वाली रणनीति और व्यूह रचना के मतभेद थे।
डॉ. अम्बेदकर न केवल प्रबल देशभक्त वरन्
राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के भी प्रबल समर्थक थे। पक्षों द्वारा कहा गया है कि
डॉ. अम्बेदकर ने भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में रुचि ली;
लेकिन वस्तुतः अम्बेदकर के सम्बन्ध में इस प्रकार के विचार को
अपनाने का कोई आधार नहीं है। देश के विभाजन के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेदकर का विचार
वही था, जिसे कुछ महीनों बाद नेहरू और पटेल ने अपनाया था।
विचार यह था कि यदि भारत की राजनीतिक समस्या का अन्य कोई विकल्प नहीं है, तो हमें पाकिस्तान स्वीकार करना ही होगा।
प्रारम्भ में वे देश के विभाजन के विरोधी थे
और उनका विचार था कि “कोई विभाजन नहीं, वरन् मुस्लिम लीग का अन्त और हिन्दुओं तथा मुसलमानों की एक सम्मिलित
पार्टी की स्थापना 'हिन्दू राज के भूत' को दफनाने का एकमात्र प्रभावदायक मार्ग है।"" लेकिन अन्त में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि "जहां
तक मेरा सम्बन्ध है, महत्वपूर्ण प्रश्न केवल यह है कि क्या
मुसलमान पाकिस्तान लेने के लिए दृढ़ निश्चयी हैं या पाकिस्तान उनके लिए केवल एक
नारा और बदलती हुई मनोस्थिति है ? क्या पाकिस्तान उनकी स्थाई
आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है ? इस प्रश्न पर मतभेद हो
सकते हैं ? जब एक बार यह निश्चित हो जाय कि मुस्लिम वर्ग
पाकिस्तान चाहता है, तब इसमें सन्देह नहीं कि
बुद्धिमत्तापूर्ण मार्ग उसे सिद्धान्त रूप में स्वीकार कर लेना है।''2 यह स्थिति विभाजन के प्रति उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय देती है और
यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए ही उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान, हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को, दासता तथा अतिक्रमण
के भय से मुक्त कर देगा। डॉ. अम्बेदकर ने यह भी प्रस्ताव किया था कि भारत के सभी
मुसलमान पाकिस्तान तथा पाकिस्तान से सभी हिन्दू भारत स्थानान्तरित हो जाएं,
जिससे कोई झगड़ा और खून-खराबा न हो; लेकिन डॉ.
अम्बेदकर की इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
भारत के अन्य कुछ राजनेताओं के समान ही डॉ.
अम्बेदकर भी ऐसा सोचते थे कि एक बार भारत का विभाजन हो जाने के बाद देश की एकता को
पुनः प्राप्त किया जा सकेगा। सन् 1946 के
अन्तिम दिनों में उन्होंने कहा था, “मुझे यह कहने में कोई
हिचकिचाहट नहीं होती कि जिस लीग ने देश के विभाजन के लिए आन्दोलन किया है, कुछ दिन पश्चात् जब जाग्रति जाएगी, यह सोचना
प्रारम्भ कर देगी कि हर प्राणी के लिए संगठित भारत ही अच्छा था।”” कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका यह विचार यथार्थवादिता से बहुत दूर था।
डॉ. अम्बेदकर द्वारा देशी रियासतों को जो
परामर्श दिया गया, उससे भी यह स्पष्ट है कि
डॉ. अम्बेदकर राजनीतिक एकीकरण के प्रबल समर्थक थे। सन् 1947 के
मध्य में उन्होंने देशी रियासतों को परामर्श देते हुए
कहा था, "रियासतों
को अपनी प्रभुसत्ता भारतीय संघ में मिला देनी चाहिए।" उन्होंने
आगे कहा, "उनका स्वतन्त्र रहकर संयुक्त राष्ट्रसंघ से
मान्यता तथा सुरक्षा प्राप्त कर लेने का विचार कल्पना लोक में रहने के समान है।""
डॉ. अम्बेदकर के सम्बन्ध में डॉ. वी. पी.
वर्मा लिखते हैं. "इसमें सन्देह नहीं कि
वे देशभक्त थे और राष्ट्रीय एकीकरण के विरोधी नहीं थे। कोई भी उनके इस विचार का
विरोध नहीं कर सकता कि अछूतों के लिए हिन्दुत्व द्वारा उन पर लादी गई घोर अपमानजनक
स्थितियों का विरोध और उनसे मुक्ति ब्रिटिश शासन से देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता
प्राप्त करने की तुलना में भी अधिक आवश्यक कार्य था।
(7)Karl Marx and Attitudes towards Marxism
कार्ल मार्क्स और
मार्क्सवाद के प्रति दृष्टिकोण
डॉ. अम्बेदकर का
लक्ष्य भारत के दलित वर्गों के लिए समानता की स्थिति प्राप्त करना था और राजनीतिक
चिन्तन तथा व्यवहार में विश्व स्तर पर समानता की लड़ाई के सबसे प्रमुख योद्धा
कार्ल मार्क्स और उनका मार्क्सवादी चिन्तन है। अम्बेदकर ने मार्क्सवाद का अध्ययन
किया था और वे उससे प्रभावित भी हुए थे,
लेकिन अम्बेदकर का मार्ग
कार्ल मार्क्स और उनकी विचारधारा से भिन्न है तथा उन्होंने निम्न बातों के आधार पर
मार्क्स से असहमति व्यक्त करते हुए मार्क्सवादी चिन्तन को अस्वीकार कर दिया है।
प्रथम, मार्क्स
का विचार है कि शोषित वर्ग की स्थिति में सुधार और व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन
हिंसा तथा बल प्रयोग के आधार पर ही लाया जा सकता है; लेकिन
अम्बेदकर बल प्रयोग की पद्धति को पूर्णतया अस्वीकार करते हैं और उनका विचार है कि
शक्ति के माध्यम से किया गया कोई भी कार्य स्थाई नहीं होता। अम्बेदकर कानूनी और
सामाजिक उपायों से व्यवस्था में परिवर्तन लाने के पक्षधर हैं। वे राज्यशक्ति के
माध्यम से व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हैं। अम्बेदकर कहते हैं, “हिंसा और वर्ग-संघर्ष से जन्मी व्यवस्था अधिनायकवाद को जन्म देगी, न कि राज्यविहीन समता मूलक समाज को।”
द्वितीय,
मार्क्सवादी
चिन्तन में लोकतन्त्र और संसदीय व्यवस्था का विरोध किया गया है और इन्हें मात्र
में 'उपहास की वस्तु' माना है; लेकिन
अम्बेदकर एक उदारवादी चिन्तक हैं, लोकतन्त्र और संसदीय
व्यवस्था उनकी आस्था है। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में ब्रिटिश राज के साथ
जुड़ते हैं और ब्रिटिश राज में तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्थापित होने वाली
व्यवस्था में दलित वर्ग के लिए सत्ता में भागीदारी चाहते हैं।
तृतीय,
अम्बेदकर
के लिए मार्क्सवादी चिन्तन इसलिए भी अस्वीकार्य है कि इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व
का लोप हो जाता है। अम्बेदकर सोचते हैं कि मार्क्सवाद से मानवीय मूल्यों का नाश
होता है और इस कारण इसे अपनाने की बात नहीं सोची जा सकती। अम्बेदकर व्यक्ति के
व्यक्तित्व और इसके साथ जुड़ी हुई संस्थाओं—–व्यक्तिगत सम्पत्ति,
आदि को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।
चतुर्थ,
धर्म
के सम्बन्ध में अम्बेदकर का दृष्टिकोण मार्क्स से भिन्न है। मार्क्स धर्म को जनता
के लिए 'अफीम' मानते हैं और इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि
शोषक वर्ग धर्म के नाम पर शोषितों का शोषण करता रहा है। अम्बेदकर मानते हैं कि
मात्र भौतिक और आर्थिक आधार पर समाज का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। अम्बेदकर मानते
हैं कि राज्यविहीन समाज की स्थापना भौतिकवादी क्रान्ति से सम्भव ही नहीं है। इसके
लिए धर्मनिष्ठ व्यक्ति अनिवार्य है। शील सम्पन्न व्यक्ति ही राज्यशक्ति के अभाव का
प्रतीक बन सकता है। सदाचार सम्पन्न आध्यात्मिक व्यक्ति होना राज्यविहीन समाज के
लिए अनिवार्य है। अम्बेदकर कहते हैं, 'बुद्ध ने बगैर अधिनायकवाद
के साम्यवाद की स्थापना की है और बुद्ध मार्क्स से महान् सत्य और अहिंसा के साधनों
के कारण हैं।" उन्होंने बुद्धवाद को मार्क्स का नैतिक
और सहिष्णु विकल्प माना है।
इन सबके अतिरिक्त कार्ल मार्क्स और अम्बेदकर
के चिन्तन में एक मूलभूत अन्तर है। मार्क्सवादी चिन्तन का मूल तत्व 'वर्ग' है। मार्क्स ने समानता की लड़ाई शोषक-शोषित के
स्तर पर लड़ी है और इस लड़ाई का लक्ष्य आर्थिक समानता है। अम्बेदकर के चिन्तन का
मूल तत्व 'जाति' है। उन्होंने समानता
की लड़ाई जातीय स्तर पर लड़ी है और उसका लक्ष्य सामाजिक समानता है। इस प्रकार
मार्क्स वर्ग-संघर्ष के साथ जुड़े हैं और अम्बेदकर जातीय संघर्ष के साथ जुड़े हुए
हैं।
अम्बेदकर ने मार्क्सवादी
चिन्तन को वस्तुतः पूर्णतया अस्वीकार कर दिया है।
(8)Dr. Ambedkar was a liberal
डॉ. अम्बेदकर एक उदारवादी
डॉ. अम्बेदकर उदारवादी व्यक्ति हैं और उनकी
आस्था उदारवादी विचारधारा में है। उदारवाद व्यक्ति के जीवन,
सम्पत्ति और स्वतन्त्रता में विश्वास करता है। अम्बेदकर भी
व्यक्तिगत सम्पत्ति और संसदीय व्यवस्था, आदि को व्यक्तित्व
निर्माण के लिए अनिवार्य मानते हैं।
भारतीय उदारवादियों की एक बड़ी विडम्बना यह
रही है कि वे एक ओर तो उस फ्रांसीसी राज्यक्रान्ति से प्रभावित हैं जिसमें
स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व की स्थिति को
प्राप्त करने के लिए हिंसक मार्ग अपनाया गया था; दूसरी ओर वे
फ्रांसीसी क्रान्ति के कट्टर आलोचक बर्फ के विचारों का औचित्य प्रतिपादित करते हैं
जो इस बात पर बल देता है कि शक्ति का माध्यम स्थाई नहीं होता। अम्बेदकर भी इसी
श्रेणी में आते हैं और उन पर बर्क के विचारों का प्रभाव ही अधिक है। भारतीय
मध्ययुगीन समाज के प्रतिवाद में अम्बेदकर उदारवादी तर्कों का प्रयोग तो करते हैं,
किन्तु ब्रिटिश सत्ता के प्रति वे समझौतावादी हैं। वे मानवतावादी
हैं, लेकिन भारतीय समाज के संघर्ष में केन्द्र जाति को मानते
हैं।
अम्बेदकर दलित वर्ग के सामाजिक पैगम्बर हैं,
लेकिन वे अपने संघर्ष को पूर्णता प्रदान करने के लिए भी उसे
वर्ग-संघर्ष के साथ नहीं जोड़ते। उनके संघर्ष का लक्ष्य दलित जाति के लिए सत्ता
में भागीदारी प्राप्त करना मात्र है। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में ब्रिटिश राज
के साथ जुड़ गए हैं। वे पूंजीवाद और सामन्तवाद के आर्थिक आधार पर आक्रमण नहीं
करते। इस प्रकार उनका सम्बन्ध न तो समाजवादियों से है और न ही साम्यवादियों से;
वे तो आचूड़ उदारवादी हैं।
उदारवादी होना डॉ. अम्बेदकर की स्वाभाविक
नियति भी है। उनकी शिक्षा-दीक्षा अमरीका और इंग्लैण्ड में हुई और एक विशेष बात यह
हुई कि भारत में रहते हुए तो अम्बेदकर को पग-पग पर अपमान और अमानवीय स्थितियों का
सामना करना पड़ा; लेकिन अमरीका और इंग्लैण्ड
में ऐसी कोई स्थिति उनके सामने नहीं आई। स्वाभाविक रूप से उन्होंने इस विचार को
अपनाया कि उदारवाद पर आधारित पाश्चात्य व्यवस्था स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व तथा व्यक्ति के व्यक्ति रूप में सम्मान में विश्वास
करती है।
(9)Evaluation & Delivery
मूल्यांकन और देन
बीसवीं सदी में जिन व्यक्तियों ने अपने आपको
भारतीय समाज की सेवा और उद्धार के लिए समर्पित किया, उनमें
डॉ. भीमराव रामजी अम्बेदकर निश्चित रूप से एक प्रमुख नाम है।
Proper and necessary and powerful attack on caste system and caste system-
वर्ण-व्यवस्था और
जाति-व्यवस्था पर उचित एवं आवश्यक तथा शक्तिशाली प्रहार-
जाति-व्यवस्था के उदय की चाहें जो भी
परिस्थितियां रही हों, वास्तविक व्यवहार में यह
सर्वाधिक अन्यायपूर्ण व्यवस्था है और आज इस व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है। डॉ.
अम्बेदकर ने सत्य रूप में इस बात का प्रतिपादन किया कि जाति-व्यवस्था पूर्णतया
अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक, अन्यायपूर्ण
और गरिमाहीन है। आर्थिक क्षेत्र में इसने कार्यकुशलता को आघात पहुंचाया है तथा
सामाजिक जीवन में जड़ता, रूढ़िवादिता एवं विद्वेष को जन्म
दिया है। उन्होंने 1930 ई. के लगभग ही इस बात को समझ लिया था
कि जाति-व्यवस्था राजनीतिक जीवन में अनेक विकृतियों को जन्म देगी। डॉ. अम्बेदकर को
इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने हिन्दुओं का ध्यान उन सामाजिक
समस्याओं की ओर आकर्षित किया जो हिन्दू समाज के दो अंगों में भारी तनाव को जन्म दे
रही थीं और कालान्तर में न केवल हिन्दू समाज, वरन् राष्ट्र
की सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए घातक हो सकती थीं।
Messiah of Dalits
दलितों के मसीहा-आधुनिक
भारत में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी और अन्य कुछ महामनाओं ने अपने-अपने तरीके से दलितोद्धार के
प्रयत्न किए हैं। लेकिन इन सभी व्यक्तियों का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था और
दलितोद्धार उनके विविधतापूर्ण कार्यक्षेत्र का एक अंग था। लेकिन डॉ. अम्बेदकर
दलितोद्धार के प्रति समर्पित थे, यह उनके जीवन का सर्वप्रमुख
संकल्प था। उन्होंने दलितों में चेतना उत्पन्न की, उन्हें
संगठित किया, उन्हें सवर्णों के अत्याचारों का विरोध करने के
लिए प्रेरित किया और हिन्दू समाज के उच्च वर्णों को यह समझाने का प्रयत्न किया कि
दलितों के प्रति अन्याय की स्थिति को बनाए रखना स्वयं सवर्णों के लिए और हिन्दू
समाज के लिए घातक होगा। ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व ने अछूत वर्ग पर असमानता, अन्याय और अपमानजनक व्यवहार का जो बोझ लादा है, उन्होंने
उसका विरोध किया और इस अन्याय ने उनके मन-मस्तिष्क में हिन्दुत्व के प्रति भारी
कटुता को जन्म दे दिया, जो उनके वचनों और कृतियों में
सर्वत्र
दिखाई देती है। इस सन्दर्भ में उन्होंने इस
बात पर बल दिया कि भारत के अछूत वर्ग के लिए इस राजनीतिक स्वतन्त्रता से भी अधिक
महत्वपूर्ण प्रश्न इस अपमानजनक और अमानवीय स्थिति से छुटकारा प्राप्त करना है।
उनकी इस बात में सच्चाई है और किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए इसे अस्वीकार कर
पाना कठिन है
हिन्दू समाज के प्रति उनके आक्रोश और
धर्म-परिवर्तन की निरपेक्ष रूप में आलोचना की जा सकती है। लेकिन यदि इस बात को
ध्यान में रखा जाय कि समाज के उच्च वर्णों के अन्याय,
अत्याचार और अमानवीय व्यवहार को उन्होंने केवल देखा नहीं, वरन् स्वयं भोगा था तथा उनके मन-मस्तिष्क पर गहरे घाव थे; तो आक्रोश और धर्म-परिवर्तन नितान्त स्वाभाविक प्रतीत होता है। भारत में
दलितों की मुक्ति के लिए उन्होंने वही कार्य किया, जो कार्य
अब्राहम लिंकन ने दासों की मुक्ति के लिए और पॉल रावसन ने अमरीका के नीग्रो लोगों
की मुक्ति के लिए किया था।
Realistic vision towards Dalit upliftment
दलितोद्धार के प्रति
यथार्थवादी दृष्टि–
दलितोद्धार डॉ. अम्बेदकर के जीवन का लक्ष्य
था और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि डॉ. अम्बेदकर ने दलितोद्धार के प्रति कोरे
सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को नहीं, वरन् यथार्थवादी
दृष्टिकोण को अपनाया। डॉ. अम्बेदकर ने दलितों की स्थिति के लिए समाज के उच्च
वर्णों को उत्तरदायी ठहराने के साथ-साथ इस बात को स्वीकार किया और दलितों के समक्ष
इस बात पर बल दिया कि दलितों को अपनी बुरी आदतें और हीनता की भावना का त्याग कर
आत्मसम्मानपूर्ण जीवन की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। उन्होंने अपने पत्रों और भाषणों
में इस बात पर बल दिया कि अछूतों को मांगना, झूठ बोलना तथा
मुर्दा जानवर खाना छोड़ देना चाहिए। इन सबके अतिरिक्त उन्हें हीनता की भावना का
त्याग कर स्वतन्त्रता, समानता और स्वाभिमान के साथ जीवन
बिताने का संकल्प लेना चाहिए। उनके सुझाव थे : दलित शिक्षित हों, संगठित हों और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करें। 20 मार्च,
1927 को महद में आई हुई स्त्रियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने
कहा था, “यदि तुम्हारे पति और लड़के शराब पीते हों, तो उन्हें खाना मत दो, अपने बच्चों को स्कूल भेजो।
शिक्षा जितनी जरूरी पुरुषों के लिए है, उतनी ही स्त्रियों के
लिए भी आवश्यक है। "
इस प्रसंग में उनकी यथार्थवादिता इस बात से
भी स्पष्ट है कि वे अस्पृश्यता निवारण के लिए मन्दिरों में प्रवेश दिलाने के
आन्दोलन को अधिक महत्व नहीं देते थे। उनका मत था कि दलित वर्ग अपना समय और क्षमताएं
मन्दिर प्रवेश जैसी निरर्थक बातों में व्यय करने की अपेक्षा उच्च शिक्षा,
अच्छे रोजगारों में प्रवेश पाने तथा आर्थिक स्थिति को सुधारने के
प्रयत्नों में लगायेंगे, तो निश्चित रूप से उनके सामाजिक
स्तर में वृद्धि होगी। दलितों की स्थिति में सुधार का एक उपाय उन्होंने बतलाया था,
'भारत का औद्योगीकरण'। यह सुझाव उनकी
दूरदर्शिता और यथार्थवादिता का परिचायक है।
Work towards women's upliftment
नारी- उत्थान की दिशा में
कार्य-
भारत में सभी वर्णों की स्त्रियों को
परम्परागत जीवन में दलितों जैसी स्थिति प्राप्त रही है तथा अम्बेदकर ने उनके
उत्थान के लिए भी प्रयत्न किए। अम्बेदकर ने 'मनुस्मृति'
के इस दृष्टिकोण को स्त्रियों पर अन्याय का मूल कारण माना, जिसमें कहा गया है, “बाल्यकाल में स्त्रियों की
रक्षा पिता करें, यौवन में पति व वृद्धावस्था में पुत्र करें
तथा स्त्रियों को स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जानी चाहिए।" अम्बेदकर ने स्मृतियों और अन्य शास्त्रों की इस आधार पर कटु आलोचना की कि
उन्होंने स्त्रियों की समाज में स्वतन्त्र भूमिका पर प्रतिबन्ध लगाए हैं।
अम्बेदकर भारतीय परिवार व्यवस्था में
स्त्रियों को पुरुषों के अधीन तथा उन पर निर्भर समझे जाने की प्रवृत्ति के प्रबल
विरोधी थे। अम्बेदकर की मान्यता थी कि स्त्रियों के शिक्षा और सामाजिक जीवन के
अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान ही अवसर प्राप्त होने चाहिए। हिन्दू समाज
में स्त्रियों को सम्पत्ति में उत्तराधिकार, निःसन्तान
होने पर गोद लेने का अधिकार और पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था। अम्बेदकर ने
स्त्रियों के प्रति विद्यमान इन भेदभावपूर्ण स्थितियों का अन्त करना आवश्यक माना
तथा इस उद्देश्य से उन्होंने 'हिन्दू कोड बिल' तैयार किया तथा उसे संसद से पारित करवाने के गम्भीर प्रयास किए। इस प्रकार
नारी-उत्थान की दिशा में उन्होंने प्रशंसनीय प्रयत्न किए।
Major role in the formation of Indian Constitution-
भारतीय संविधान के निर्माण
में प्रमुख भूमिका-
अम्बेदकर अपूर्व वैधानिक प्रतिभा के धनी थे
तथा नेहरू और पटेल, आदि कांग्रेसी नेताओं ने
उनकी इस प्रतिभा को समझकर उन्हें संविधान सभा की महत्वपूर्ण समिति 'प्रारूप समिति' के अध्यक्ष का पद सौंपा था। उनके नेतृत्व
में देश के लिए एक ऐसे संविधान का निर्माण हुआ, जो शान्तिकाल
और संकटकाल, दोनों ही परिस्थितियों में देश की एकता को बनाए
रखने में समर्थ है।
Representation of social injustice and social democracy
सामाजिक अन्याय और सामाजिक
लोकतन्त्र का प्रतिपादन—
अम्बेदकर ने भारतीय समाज की समस्त स्थिति को
भली-भांति समझा था। उन्होंने सामाजिक लोकतन्त्र को राजनीतिक लोकतन्त्र की पूर्व
शर्त के रूप में प्रतिपादित कर भारत में लोकतन्त्र की सार्थक व्याख्या एवं
परिकल्पना प्रस्तुत की। संविधान की प्रस्तावना और अन्य भागों में 'सामाजिक-आर्थिक न्याय' का जो संकल्प व्यक्त किया गया
है, उसमें अम्बेदकर के प्रयत्नों का महान योग है।
की तुलना में अम्बेदकर ने एक से अधिक बार
दलित वर्ग की मुक्ति को देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता भी अधिक महत्वपूर्ण बतलाया
था। इस कारण अम्बेदकर के कुछ आलोचक उनकी राष्ट्रवादिता और देश-प्रेम पर शंका करते
हैं। लेकिन वस्तुतः ऐसा सोचने का कोई आधार नहीं है। यदि किसी देश की लगभग 20
प्रतिशत जनसंख्या अन्याय और अमानवीय व्यवहार को भुगत रही हो,
तो उस देश के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता
है। अम्बेदकर ने इस सत्य को समझा था तथा उनके द्वारा किया गया दलितों की मुक्ति का
कार्य इस देश के प्रति की गई ऐसी अद्वितीय सेवा है, जिसे
युगों तक याद किया जाता रहेगा।
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