सत्ता की प्रकृति(Nature of Power)
सत्ता की प्रकृति के सम्बन्ध में विचार भेद है और इस सम्बन्ध में प्रमुख
रूप से दो सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। ये दोनों ही सिद्धान्त प्रो. बीच (Beach) द्वारा प्रतिपादित किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं
(1) औपचारिक सत्ता सिद्धान्त (Formal Theory ) – इस सिद्धान्त के अनुसार सत्ता को आदेश देने का अधिकार माना जाता है और सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर चलता है। यह अधिकार व्यवस्थाओं एवं संगठनों में विशिष्ट एवं वरिष्ठ अधिकारियों को दिया जाता है और इससे आदेश या सत्ता का एक पदक्रम बन जाता है।
सत्ता के पीछे व्यवस्था या संगठन की औचित्यपूर्ण शक्ति होती है। इस शक्ति
के कारण उसे स्वीकार किया जाता है। सत्ता आवश्यक रूप से सत्ताधारी की व्यक्तिगत
श्रेष्ठता को नहीं बतलाती। सत्ताधारी तो व्यवस्था या संगठन में अन्तर्निहित शक्ति
का कार्यशील प्रतीक मात्र है। मैकाइवर ने इसे 'शासन का जादू' कहा है कि एक व्यक्ति जो आदेश देता है, वह भले ही अपने अधीनस्थों से अधिक बुद्धिमान न हो, अधिक योग्य न हो और किसी भी दृष्टि से अपने सामान्य साथियों
से श्रेष्ठ न हो, कभी-कभी तो उसका स्तर इन सबसे हीन भी हो सकता है, लेकिन वह सत्ता की स्थिति में होने के कारण आदेश-निर्देश देता है और उसके आदेशों का पालन किया जाता है।
(2) स्वीकृति सिद्धान्त (Acceptance Theory)—व्यवहारवादी या मानव
सम्बन्धवादी औपचारिक सत्ता सिद्धान्त में विश्वास न रखते हुए 'स्वीकृति सिद्धान्त' का प्रतिपादन करते हैं। इन यथार्थवादी
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, सत्ता कानूनी रूप से तो केवल
औपचारिक होती है, किन्तु वास्तव में सत्ता या आदेश के
अधिकार की सफलता अधीनस्थों की स्वीकृति पर निर्भर करती है। जब अधीनस्थ अपनी समझ और
योग्यता के दायरे Authority'
के लिए हिन्दी
भाषा में 'अधिकार सत्ता' या 'सत्ता' इन दोनों में से किसी शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।
में आदेशों को स्वीकार कर लेते हैं तो यह स्थिति 'सत्ता स्थिति' बन जाती है। बर्नार्ड अपनी रचना 'The Functions of the Executive' में लिखते हैं कि अधीनस्थ आदेशों को स्वीकार करें, इसके लिए चार शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं :
(i) अधीनस्थ अधिकारी आदेश अथवा सूचना को समझता या समझ सकता हो,
(ii) अपने
निश्चय करने के समय उसका यह विश्वास हो कि आदेश संगठन के उद्देश्यों के साथ असंगत
नहीं है,
(iii) निर्णय लेने के समय में वह यह सोचता हो कि एक समग्रता
के रूप में सम्बन्धित आदेश उसके अनुपालन की व्यक्तिगत हितों के अनुकूल है तथा
(iv) वह मानसिक और शारीरिक दृष्टि
से उस आदेश के क्षमता रखता हो।
वस्तुतः सत्ता की प्रकृति के सम्बन्ध में प्रतिपादित इन दोनों ही
सिद्धान्तों की अपनी दुर्बलताएँ हैं और इन्हें अतिवादी कहा जा सकता है। इन दोनों
सिद्धान्तों की सत्यताओं को ग्रहण करते हुए एक सन्तुलित दृष्टिकोण का विकास हुआ है, जिसके अन्तर्गत सत्ता की अवधारणा में संस्थाकृत औचित्यपूर्ण
शक्ति और अधीनस्थों की स्वीकृति दोनों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।
यही उचित दृष्टिकोण है और राजनीति विज्ञान में सामान्यतया इसी को अपनाया गया है।
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