स्वतन्त्रता के विविध रूप ( Different forms of freedom)
फ्रांसीसी विद्वान माण्टेस्क्यू ने एक स्थान पर कहा है कि “स्वतन्त्रता के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा शब्द हो जिसके इतने अधिक अर्थ होते हों और जिसने नागरिकों के मस्तिष्क पर इतना अधिक प्रभाव डाला हो माण्टेस्क्यू के इस कथन का कारण है कि राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता के विविध रूप प्रचलित हैं, जिससे निम्नलिखित प्रमुख हैं :
- (1) प्राथमिक स्वतन्त्रता(Primary liberty)—
- प्राकृतिक स्वतन्त्रता( Natural freedom)
- (2) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता(Personal Liberty) -
- (3) नागरिक स्वतन्त्रता (Civil liberties)-
- (4) राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political freedom) -
- (5) आर्थिक स्वतन्त्रता(Economic freedom) —
- (6) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता (National independence) —
- (7) नैतिक स्वतन्त्रता (Moral freedom) –
- आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है—
- राजनीतिक स्वतन्त्रता आर्थिक समानता पर आधारित (Political freedom based on economic equality) —
(1) प्राथमिक स्वतन्त्रता(Primary liberty)—
इस
धारणा के अनुसार स्वतन्त्रता प्रकृति की देन है और मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र
होता है। इसी विचार को व्यक्त करते हुए रूसो ने लिखा है कि “मनुष्य स्वतन्त्र
उत्पन्न होता है, किन्न सर्वत्र वह बन्धनों में बंधा
हुआ है ।" "
प्राकृतिक स्वतन्त्रता( Natural freedom)
का
आशय मनुष्यों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता से है। संविदावादी
विचारकों का मत है कि राज्य की उत्पत्ति के पूर्व व्यक्तियों को इसी प्रकार की
स्वतन्त्रता प्राप्त थी । संयुक्त राज्य अमेरिका की 'स्वाधीनता
घोषणा' और 'फ्रांस की राज्यक्रान्ति'
में इसी प्रकार की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया गया था। प्राकृतिक
स्वतन्त्रता की इस धारणा के अनुसार स्वतन्त्रता प्रकृति प्रदत्त और निरपेक्ष होती
है अर्थात् समाज या राज्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता को किसी भी प्रकार से सीमित या
प्रतिबन्धित नहीं कर सकता है। परन्तु प्राकृतिक स्वतन्त्रता की यह धारणा पूर्णतया
भ्रमात्मक है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता की स्थिति में तो 'मत्स्य
न्याय'(Law of the jungle) का व्यवहार प्रचलित होगा और परिणामतः समाज में
केवल कुछ ही व्यक्ति अस्थायी रूप से स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकेंगे। व्यवहार में
प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है केवल शक्तिशाली व्यक्तियों की स्वतन्त्रता। जिस
समाज के अन्तर्गत स्वतन्त्रता का अस्तित्व शक्ति पर आधारित हो, वहां निर्बलों का कोई जीवन नहीं होगा। इसके अतिरिक्त समाज में रहकर
निरपेक्ष स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं किया जा सकता। सामूहिक हित में स्वतन्त्रता को
सीमित करना नितान्त आवश्यक है।
इस धारणा की आलोचना की जाने पर भी इसका पर्याप्त महत्व है। यह
सिद्धान्त इस बात पर प्रकाश डालता है कि प्रत्येक व्यक्ति की कुछ स्वाभाविक
शक्तियां होती हैं तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास इन शक्तियों के विकास पर ही
निर्भर करता है। राज्य का कर्तव्य है कि वह नागरिकों को इन शक्तियों के विकास हेतु
पूर्ण अवसर प्रदान करे। वर्तमान समय में प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार इस रूप
में मान्य है कि व्यक्ति समान हैं और उन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु समान
सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए।
(2) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता(Personal Liberty) -
इसका
तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए,
जिनका सम्बन्ध केवल उसके ही अस्तित्व से हो। इस प्रकार के व्यक्तिगत
कार्यों में भोजन, वस्त्र, धर्म और
पारिवारिक जीवन को सम्मिलित किया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के समर्थकों
के अनुसार इनसे सम्बन्धित कार्यों में व्यक्तियों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त
होनी चाहिए। व्यक्तिवादी और कुछ सीमा तक बहुलवादी विचारकों ने इस स्वतन्त्रता का
प्रबल समर्थन किया है। मिल व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए ही कहते हैं
कि “मानव समाज को केवल आत्मरक्षा के उद्देश्य से ही, किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप
करने का अधिकार हो सकता है। अपने ऊपर, अपने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा पर व्यक्ति सम्प्रभु है।""(Human society may have the right to intervene
individually or collectively in the freedom of an individual only for the
purpose of self-defense. The individual is sovereign over himself, his body,
mind and soul.)
इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्ति का आदर किया जाना चाहिए, लेकिन वर्तमान समय में सामाजिक जीवन इतना जटिल हो गया है कि व्यक्ति के
कौन से कार्य स्वयं उससे ही सम्बन्धित हैं इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता है
और अनेक बार ऐसे भी अवसर उपस्थित हो सकते हैं जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य, शालीनता और व्यवस्था के हित में व्यक्ति की भोजन सम्बन्धी, वस्त्र सम्बन्धी और धार्मिक स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करना पड़े। समाजवादी
विचारधारा( Socialist
ideology) का तो आधार ही यह है कि व्यक्ति के
सभी कार्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज पर प्रभाव डालते हैं, अतः समाज के पास इन कार्यों को नियमित करने की शक्ति होनी चाहिए। इस
प्रकार यद्यपि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के इस विचार को अब मान्यता प्राप्त नहीं रह
गई है, तथापि इस विचार में इतनी सत्यता अवश्य ही है कि जिन
कार्यों का सम्बन्ध किसी एक व्यक्ति से हो, उनके विषय में
उसे पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
(3) नागरिक स्वतन्त्रता (Civil liberties)-
नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय
व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है जो व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के
नाते प्राप्त करता है। नागरिक स्वतन्त्रता का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को समान
अवसर और अधिकार प्रदान करना होता है। अतः स्वभाव से यह स्वतन्त्रता असीमित या
निरंकुश नहीं हो सकती है।
नागरिक स्वतन्त्रता दो प्रकार की होती है— (1) शासन के विरुद्ध
व्यक्ति की स्वतन्त्रता, (freedom of
the individual against the rule) (2) व्यक्ति को
व्यक्ति और व्यक्तियों के समुदाय से स्वतन्त्रता।( Freedom of the individual from the individual and the
community of individuals) शासन के विरुद्ध
व्यक्ति की स्वतन्त्रता लिखित या अलिखित संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों के माध्यम
से या अन्य किसी प्रकार से स्वीकृत की जाती है। नागरिक स्वतन्त्रता का दूसरा रूप
मनुष्य के वे अधिकार हैं जिन्हें वह राज्य के अन्य समुदायों और मनुष्यों के
विरुद्ध प्राप्त करता है। साधारणतया नागरिक स्वतन्त्रता का स्तर सभी राज्यों में
एक-सा नहीं होता है। सोवियत रूस के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को कुछ विशेष
आर्थिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं तो पश्चिमी प्रजातन्त्रों के द्वारा
नागरिकों को कुछ विशेष नागरिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई । वस्तुतः जिस राज्य
में नागरिक स्वतन्त्रता का स्तर जितना ऊंचा होता है, उसे उतना ही अधिक लोकतन्त्रात्मक एवं लोककल्याणकारी राज्य कहा जा सकता है।
(4) राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political freedom) -
अपने राज्य के कार्यों में स्वतन्त्रतापूर्वक सक्रिय
भाग लेने की स्वतन्त्रता को राजनीतिक स्वतन्त्रता कहा जाता है। लास्की के अनुसार,
“राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति ही राजनीतिक
स्वतन्त्रता है।" "
लीकॉक राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ संवैधानिक स्वतन्त्रता से लेते
हैं जिसका विस्तार से अर्थ है कि जनता अपने शासक को अपनी इच्छानुसार चुन सके और
चुने जाने के बाद भी ये शासक उसके प्रति उत्तरदायी हों।
राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत व्यक्ति को ये अधिकार प्राप्त होते
हैं— (1) मतदान का अधिकार,( Right to vote) (2) निर्वाचित होने का
अधिकार, (The right to be
elected) (3) उचित योग्यता होने पर सार्वजनिक पद प्राप्त
करने का अधिकार, (The right
to hold public office when there is appropriate qualification,) (4) सरकार के कार्यों की आलोचना का अधिकार (The right to criticize the government's actions)। इन
अधिकारों से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक प्रजातन्त्रात्मक देश
में ही प्राप्त की जा सकती है। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभाव में नागरिक
स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं रह जाता क्योंकि राजनीतिक स्वतन्त्रताओं के उपयोग
से ही समाज का निर्माण सम्भव होता है जिसमें नागरिक स्वतन्त्रताओं की रक्षा सम्भव
हो सके।
(5) आर्थिक स्वतन्त्रता(Economic freedom) —
वर्तमान समय में
आर्थिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्ति की ऐसी स्थिति से है जिसमें व्यक्ति अपने
आर्थिक प्रयत्नों का लाभ स्वयं प्राप्त करने की स्थिति में हो तथा किसी प्रकार
उसके श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके। लॉस्की के अनुसार “आर्थिक
स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका कमाने की
समुचित सुरक्षा तथा सुविधा प्राप्त हो। व्यक्ति को बेरोजगारी और अपर्याप्तता के
निरन्तर भय से मुक्त रखा जाना चाहिए जो कि अन्य किसी भी अपर्याप्तता की अपेक्षा
व्यक्ति की समस्त शक्ति को बहुत अधिक आघात पहुंचाती है। व्यक्ति को कल की
आवश्यकताओं से मुक्त रखा जाना चाहिए"2
कुछ विचारक आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ 'उद्योग
में प्रजातन्त्र' की स्थापना से भी लगाते हैं। 'उद्योग में प्रजातन्त्र' की स्थापना का अर्थ यह है
कि एक श्रमिक केवल अपने श्रम को बेचने वाला ही नहीं, वह
उत्पादन व्यवस्था का निर्णायक भी है। कुछ भी हो, उद्योग में
प्रजातन्त्र की स्थापना श्रमिक वर्ग के हित का एक साधन ही है और मूल रूप में
आर्थिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताओं की
सन्तुष्टि और गम्भीर आर्थिक विषमताओं के अन्त से ही है।
(6) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता (National independence) —
प्रत्येक व्यक्ति के
स्वतन्त्रता के अधिकार के समान ही प्रत्येक राष्ट्र को भी स्वतन्त्र होने का अधिकार
होना चाहिए और राष्ट्रों की स्वतन्त्रता सम्बन्धी इस व्यवस्था को राष्ट्रीय
स्वतन्त्रता कहा जाता
है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के विचार के अनुसार भाषा, धर्म, संस्कृति, नस्ल, ऐतिहासिक परम्परा, आदि की एकता पर आधारित राष्ट्र का
यह अधिकार है कि वह स्वतन्त्र राज्य का निर्माण करे तथा अन्य किसी राज्य के अधीन न
हो ।
किन्तु जिस प्रकार व्यक्ति की
स्वतन्त्रता दूसरे व्यक्तियों की समान स्वतन्त्रता से सीमित होती है, उम्मी प्रकार एक राष्ट्र की स्वतन्त्रता दूसरे राष्ट्रों की समान
स्वतन्त्रता से सीमित होती है। सम्पूर्ण मानवता के हित में ऐसा होना भी चाहिए।
(7) नैतिक स्वतन्त्रता (Moral freedom) –
व्यक्ति को अन्य सभी प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्राप्त होने पर भी
यदि वह नैतिक दृष्टि से परतन्त्र हो, तो उसे स्वतन्त्र
नहीं कहा जा सकता। नैतिक स्वतन्त्रता ही वास्तविक एवं महान स्वतन्त्रता है। नैतिक
स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्ति की उस मानसिक स्थिति से है जिसमें वह अनुचित
लोभ-लालच के बिना अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करने की योग्यता रखता हो। काम्टे के
विचार में व्यक्ति की विवेकपूर्ण इच्छा शक्ति ही उसकी वास्तविक स्वतन्त्रता है। प्लेटो,
अरस्तू, ग्रीन, बोसांके
तथा काण्ट ने इस बात पर बल दिया है कि नैतिक स्वतन्त्रता में ही मनुष्य का विकास
सम्भव है।
वैसे तो सभी प्रकार के जीवन और शासन व्यवस्थाओं के लिए नैतिक
स्वतन्त्रता की आवश्यकता होती है किन्तु लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था के लिए तो नैतिक
स्वतन्त्रता नितान्त आवश्यक ही है।
आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक स्वतन्त्रता निरर्थक है—
राजनीतिक स्वतन्त्रता और आर्थिक समानता का सम्बन्ध स्पष्ट करने के पूर्व, इन दोनों का तात्पर्य समझ लेना उपयोगी होगा।
राजनीतिक स्वतन्त्रता (Political freedom) -
राजनीतिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य राज्य के कार्यों में सक्रिय रूप
से भाग लेना है अर्थात् राजनीतिक स्वतन्त्रता एक ऐसी स्थिति का नाम है जिसमें
नागरिकता के अधिकारों का उपयोग किया जा सके या दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने
विवेकपूर्ण निर्णय का राजनीतिक क्षेत्र में उपयोग कर सके। उसे अपने प्रतिनिधियों
को चुनने और स्वयं प्रतिनिधि रूप में निर्वाचित होने का अधिकार होना चाहिए। इस
प्रकार राजनीतिक स्वतन्त्रता शासन कार्यों में भाग लेने और शासन व्यवस्था को
प्रभावित करने की शक्ति का नाम है।
-आर्थिक समानता (Economic Equality)
आर्थिक समानता के दो अर्थ बताए जा सकते हैं। इसका प्रथम तात्पर्य यह
है कि सम्पत्ति की अधिकाधिक समानता होनी चाहिए। सभी व्यक्तियों की भोजन, वस्त्र, निवास, स्वास्थ्य और
शिक्षा की अनिवार्य आवश्यकताएं आवश्यक रूप से पूरी होनी चाहिए और जब तक सभी
व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताएं सन्तुष्ट न हो जाएं, तब
तक समाज के किन्हीं भी व्यक्तियों को आराम और विलासिता के साधनों के उपभोग का
अधिकार प्राप्त नहीं होना चाहिए। लॉस्की के शब्दों में, “मुझे
स्वादिष्ट भोजन करने का अधिकार नहीं है, यदि मेरे पड़ोसी को
मेरे इस अधिकार के कारण सूखी रोटी से वंचित रहना पड़े।"" आर्थिक समानता
का दूसरा तात्पर्य 'उद्योग में प्रजातन्त्र' की स्थापना से है। एक श्रमिक केवल अपने श्रम को बेचने वाला ही नहीं वरन्
इसके साथ-साथ उत्पादन व्यवस्था का निर्णायक भी होना चाहिए।
राजनीतिक स्वतन्त्रता आर्थिक समानता पर आधारित (Political freedom based on economic equality) —
यह
ठीक ही कहा गया है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता का आधार आर्थिक समानता है। राजनीतिक
स्वतन्त्रता मूल रूप से निम्न तीन अनिवार्य परिस्थितियों पर निर्भर करती है :
(1) जनता में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति रुचि होनी चाहिए
ताकि वह राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय रूप से भाग लेने और शासन-व्यवस्था को
प्रभावित करने के लिए उत्सुक हो।
(2) व्यक्ति शिक्षित होने चाहिए ताकि वे स्वस्थ जनमत का
निर्माण कर सकें और शासन की रचनात्मक आलोचना कर सकें। शिक्षा की आवश्यकता इस कारण
और भी अधिक हो जाती है कि केवल शिक्षा ही नागरिकों को उनके अधिकार और कर्तव्यों के
प्रति जागरूकता प्रदान करती है।
(3) राजनीतिक स्वतन्त्रता के आदर्श को प्राप्त करने के लिए
यह जरूरी है कि व्यक्ति को सही सूचनाएं और विचारों की जानकारी प्राप्त हो। इस
कार्य को ठीक प्रकार से करने के लिए स्वस्थ और सबल प्रेस नितान्त आवश्यक है।
कुछ
उपर्युक्त तीनों ही परिस्थितियों की विद्यमानता के लिए आर्थिक समानता
नितान्त आवश्यक है। एक साधारण व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति उसी समय रुचि ले
सकता है जबकि उसके पास अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने के पर्याप्त साधन
हों। एक निर्धन व्यक्ति का धर्म, ईमान और राजनीति सभी रोटी तक
सीमित हो जाता है और पं. नेहरू के शब्दों में कहा जा सकता है कि 'भूखे व्यक्ति के लिए मत का कोई मूल्य नहीं होता।' इसके
अतिरिक्त व्यक्तियों को साधारण कार्य व्यापार से इतना अवकाश प्राप्त होना चाहिए कि
वे सार्वजनिक क्षेत्र के सम्बन्ध में विचार कर सकें और यह भी आर्थिक समानता की
स्थापना से ही सम्भव है। वर्तमान समय में जिन राज्यों के अन्तर्गत धनी और निर्धन
का भेद गम्भीर रूप से विद्यमान है, वहां पर निर्धन
व्यक्तियों के लिए न तो मताधिकार का कोई महत्व है और न ही प्रतिनिधि के रूप में
निर्वाचित होने के अधिकार का। इन दोनों ही बातों से सम्बन्ध में धनी व्यक्ति
निर्धन को अपनी इच्छानुसार दबा लेता है और आर्थिक समानता के अभाव के कारण राजनीतिक
स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं रह जाता । यदि साधारण व्यक्ति के पास अपना सामान्य
जीवन बिताने के साधन ही नहीं हैं तो वह शिक्षित होने का विचार कैसे कर सकता है ?
ऐसा व्यक्ति राजनीतिक स्वतन्त्रता का उपभोग करने में नितान्त असमर्थ
होगा ।
इसी प्रकार आर्थिक समानता के अभाव में प्रेस और विचार एवं अभिव्यक्ति
के साधनों पर धनिक वर्ग का अधिकार हो जाता है और यह धनिक वर्ग इन साधनों का प्रयोग
जनता को सही-सही जानकारी एवं ज्ञान प्रदान करने के लिए नहीं वरन् एक प्रकार से
अपने विचार दूसरों पर थोपने के लिए करता है। इस प्रकार आर्थिक समानता के अभाव में
धनिक वर्ग निर्धन वर्ग के जीवन पर आधिपत्य स्थापित कर लेता है और निर्धन वर्ग का
मनमाने तरीके से शोषण करता है।
आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता कभी वास्तविक नहीं हो
सकती है। लॉस्की ने ठीक ही कहा है कि “यदि राज्य सम्पत्ति को अधीन नहीं रखता, तो सम्पत्ति राज्य को वशीभूत कर लेगी।" "
“It is better to read one book for ten times, than to read ten books for time.”
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